tag:blogger.com,1999:blog-29506398326063086062024-02-21T00:15:01.101-08:00प्रभव मंथनAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.comBlogger1699125tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-79028781766420830342023-10-13T19:37:00.001-07:002023-10-13T19:37:05.293-07:00श्राद्ध की उपयोगिता <div><br></div><div>आजकल पितृपक्ष यानी श्राद्ध चल रहे हैं। मैं इस विषय पर अपने कुछ विचार आप मित्रों से साँझा कर रही हूँ। इसे किसी की आलोचना न समझें। यदि मेरे विचारों से सहमत हैं तो अपने और मित्रों के साथ साँझा कीजिए शायद आने वाली पीढ़ियाँ इन सब आडम्बरों से मुक्त होने का साहस जुटा सकें।</div><div> सामाजिक अव्यवस्था के चलते आज भारत में कुछ सन्तानें ऐसी हैं जो अपने जीवित पितरों यानी अपने माता-पिता को दो जून भरपेट खाना चाहे न खिलाएँ, उनकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं को पूरा न करें पर उनके मरे पीछे श्राद्ध कर्म करना आवश्यकझ समझते हैं।</div><div> सोचने की बात यह है कि श्राद्ध करने की उपयोगिता क्या है? कई ऐसे भी लोग हैं जो घर-परिवार का भरण-पोषण करने में कठिनाइयों का सामना करते हैं पर श्राद्ध के नाम पर पंडितों को खिला पिला कर दक्षिणा अवश्य देंगे। बहुत से पंडित ऐसे हैं जो पहले से ही समृद्ध हैं, उन्हें किसी दान-दक्षिणा की आवश्यकता ही नहीं है।</div><div> हमें सबसे पहले तो यही सोचना चाहिए कि हम किसके नाम से यह सब आडम्बर कर रहे हैं? उन पितरों के लिए जो न जाने कब का नया जन्म लेकर अपना नया जीवन व्यतीत कर रहे हैं। न जाने कितने पूर्वज एकाधिक जन्म बिता चुके होंगे। ऐसी अवस्था में जब वे खाते-पीते प्रसन्नता से अपना नया जीवन यापन कर रहे हैं तो फिर उनके नाम यह आडम्बर क्यों?</div><div> जैसा कि मैंने अभी कहा है आज प्राय: पंडितों को किसी दान की आवश्यकता नहीं है। उनके घरों में भी पढ़े-लिखे बच्चे नौकरी कर रहे हैं। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के वे नखरे करके श्राद्ध कर्म के लिए आते हैं। इनमें बहुत से शुगर आदि बिमारियों से घिरे हुए हैं जो श्राद्ध का भोजन खाने की हालत में भी नहीं हैं। उनका कहना होता है भोजन घर भिजवा दो। उनके इन नखरों से भी लोगों को समझ नहीं आती। पता नहीं हम इतने धर्मभीरू क्यों हैं कि हम चेतते नहीं हैं।</div><div> बताइए जिन कौवों को हम अपने घर की मुँडेर पर काँव-काँव नहीं करने देना चाहते, उन्हें पूर्वज मान उन्हें भोजन खाने की मनुहार करते हैं।</div><div> यदि सच में आप बिना किसी सामाजिक दबाव के अन्न दान करना चाहते हैं तो किसी गरीब अथवा जरूरतमंद को भोजन कराएँ। बहुत से अनाथालय हैं जहाँ जाकर उनकी आवश्यकताओं को आप उस पैसे से पूरा कर सकते हैं। इससे आपको आत्मिक संतुष्टि मिलेगी और आपके खून-पसीने से कमाए धन का सदुपयोग भी होगा।</div><div> हमारे आदी ग्रंथों- वेदों तथा उपनिषदों में इस कर्म की कोई उल्लेख नहीं है। पता नहीं कब कुछ स्वार्थी लोगों ने धर्मभीरु भारतीयों को अपने चंगुल में फंसा दिया। हमारा कर्त्तव्य बनता है कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में तर्क की कसौटी पर परख कर निर्णय लें।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-21333332233296957342023-10-13T02:59:00.001-07:002023-10-13T02:59:56.694-07:00श्राद्ध किसका करना चाहिए?<div>श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय बहुत से विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था। अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।</div><div> कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ हैं कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हुआ, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से एक श्राद्ध भी एक है।</div><div> कुछ समय पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।</div><div> हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कहते कि कौवों को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।</div><div> हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।</div><div> कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।</div><div> किसी ने पीपल और बड़ के पौधे लगाए हैं क्या? या किसी को लगाते हुए देखा है? क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।</div><div> बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश करो परन्तु नहीं लगेगी। कारण प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गुदे को तो पचा लेता है। उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं।</div><div> पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण अपरम्पार है। इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना पड़ेगा। यह होगा कैसे?</div><div> मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है। इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत जरूरी है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।</div><div> ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखो तो अपने पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।</div><div> अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्ध विश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-64494120730337436742023-10-13T02:58:00.001-07:002023-10-13T02:58:10.145-07:00श्राद्ध किसलिए करना है?<div>श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय बहुत से विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था। अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।</div><div> कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ हैं कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हुआ, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से एक श्राद्ध भी एक है।</div><div> कुछ समय पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।</div><div> हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कहते कि कौवों को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।</div><div> हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।</div><div> कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।</div><div> किसी ने पीपल और बड़ के पौधे लगाए हैं क्या? या किसी को लगाते हुए देखा है? क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।</div><div> बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश करो परन्तु नहीं लगेगी। कारण प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गुदे को तो पचा लेता है। उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं।</div><div> पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण अपरम्पार है। इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना पड़ेगा। यह होगा कैसे?</div><div> मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है। इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत जरूरी है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।</div><div> ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखो तो अपने पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।</div><div> अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्ध विश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-90419913674327981242023-10-12T05:02:00.001-07:002023-10-12T05:02:36.481-07:00श्राद्ध जीवित पितरों का या मृतकों का<div>जीवित पितर आपके अपने घर में साक्षात् विद्यमान हैं, उनके विषय में विचार कीजिए। यदि आपको श्राद्ध करना ही है तो उन जीवितों का कीजिए। श्राद्ध का यही तो अर्थ है न कि अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक अन्न, वस्त्र, आवश्यकता की वस्तुएँ तथा धनराशि दी जाए।</div><div> आपके घर में जो माता-पिता आपकी स्वर्ग की सीढ़ी हैं उन्हें वस्त्र दीजिए, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें धन दीजिए, उनके खानपान में कोई भी कमी न रखिए, उनके स्वास्थ्य की ओर सदा ध्यान दीजिए। यदि वे अस्वस्थ हो जाते हैं तब उनका अच्छे डाक्टर से इलाज करवाइए तभी आपका श्राद्ध करना सही मायने में सफल हो सकेगा।</div><div> यदि जीवित पितरों की ओर से विमुख होकर मृतकों के विषय में सोचेंगे तो आपका सब किया धरा व्यर्थ हो जाएगा। जो पुण्य आप ऐसा करके कमाना चाहते हैं वह सब पाप में बदल जाएगा और आप अपयश के भागीदार बन जाएँगे। उसका कारण हैं कि आप पितरों के उपयोग में आने वाली जो भी सामग्री उन तथाकथित ब्राह्मणों के माध्यम से मृतकों को भेजना चाहते हैं, वह तो उन तक नहीं पहुँचेगी। वे ब्राह्मण तो इसी भौतिक जगत में खा-पीकर उसका उपभोग कर लेंगे।</div><div> ब्राह्मणों के पीछे फिरते हुए लोग अपने घर में आने के लिए अनावश्यक ही उनकी मिन्नत चिरौरी करते हैं। परन्तु अपने घर में विद्यमान ब्राह्मण स्वरुप माता-पिता को दो जून का भोजन खिलाने में शायद उनके घर का बजट गड़बड़ा जाता है। इसीलिए उनको असहाय छोड़ देते हैं और स्वयं गुलजर्रे उड़ाते हैं, नित्य पार्टियों में व्यस्त रहते हैं, शापिंग में पैसा उड़ाते हैं। फिर उनके कालकवलित (मरने) होने के पश्चात दुनिया में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए लाखों रुपए बरबाद कर देते हैं और उनके नाम के पत्थर लगवाकर महान बनने का यत्न करते हैं। इस बात को हमेशा याद रखिए कि माता-पिता का तिरस्कार कर ऐसे कार्य करने वाले की लोग सिर्फ मुँह पर प्रशंसा करते है और पीठ पीछे निन्दा। </div><div> माफ कीजिए मैं कभी ऐसे आडम्बर में विश्वास नहीं करती। मुझे समझ में नहीं आता कि आपने किसके सामने स्वयं को सिद्ध करना है? आपका अंतस तो हमेशा ही धिक्कारता रहेगा। अगर समाज में इस बात का लौहा मनवाना है कि आप बड़े ही आज्ञाकारी हैं, श्रवण कुमार जैसे पुत्र हैं तो उनके जीवित रहते ऐसी व्यवस्था करें कि जीवन काल में उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी न रहे। इससे उनका रोम-रोम हमेशा आपको आशीर्वाद देता रहे। उनके मन को अनजाने में भी जरा-सा कष्ट न हो।</div><div> हमारे ऋषि-मुनियों और महान ग्रन्थों ने माता और पिता को देवता माना है। उस परमात्मा को हम मनुष्य इन भौतिक आँखों से देख नहीं सकते परन्तु ईश्वर का रूप माता-पिता हमारी नजरों के सामने रहते हैं। जो बच्चे माता और पिता की पूजा-अर्चना करते हैं अर्थात् सेवा-सुश्रुषा करते हैं उनके ऊपर ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। ऐसे बच्चों का इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-87834412587748557012023-10-11T19:39:00.001-07:002023-10-11T19:39:23.547-07:00श्राद्ध का पुण्य <div> किसका करना चाहिए और किसका नहीं। यह सदा से ही विवाद का विषय रहा है। पूरे विश्व में कुछ मुट्ठीभर लोग ही है जो श्राद्ध और तर्पण आदि करते हैं या इस रूढ़ि पर विश्वास करते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके प्रियजनों की सद्गति नहीं होती। मैं उन तथाकथित विद्वानों की भी चर्चा यहाँ नहीं करना चाहती, जो अपने ही स्वार्थ के कारण हम धर्मभीरु भोले-भाले भारतीयों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं और उन्हें अन्ध रूढ़ियों के गड्ढे में धकेलने का कुकर्म करते हैं।</div><div> इसी बात को दूसरे शब्दों में कहूँ तो श्राद्ध का अर्थ है, जो दूसरे को श्रद्धापूर्वक दिया जाए। अपने जीवित माता-पिता को मनुष्य जो भी मानपूर्वक या श्रद्धा से देता है, वही श्राद्ध कहलाता है। मृत पितरों के श्राद्ध के नाम पर भण्डारे करना, पण्डितों को मनुहार करके, उनके नखरे सहकर, उन्हें जबरस्ती खिलाना और दूसरी ओर उनके जीवित रहते माता-पिता दरबदर की ठोकरें खाएँ, अन्न के एक-एक दानें के लिए तरसें, बिना उपचार के एड़ियाँ रगड़ते हुए मर जाएँ। इसे किस तरह उचित कहा जा सकता है? </div><div> निम्न धटना मेरे ही विचारों पर अपनी मोहर लगती है या उनकी आवृत्ति करती है। वाट्सएप पर बिना लेखक के नाम की इस घटना को, कुछ भाषागत संशोधनों के साथ आपके साथ साझा कर रही हूँ।</div><div> दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया। उसने मुझसे कहा, "आज माँ का श्राद्ध है, माँ को लड्डू बहुत ही पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ।"</div><div> मैं आश्चर्य में पड़ गया। अभी पाँच मिनट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मण्डी में मिला था। मैं कुछ और कहता कि उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में एक झोला लिए वहाँ आ पहुँची।</div><div> मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा, "भले आदमी ये क्या मजाक है? माँ जी तो यह रही तेरे पास हैं।" </div><div> दोस्त अपनी माँ के दोनों कन्धों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, "भई, बात ऐसी है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ। मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही वास्तव में सच्चा श्राद्ध है।"</div><div> आगे उसने कहा, "माँ को मिठाई में</div><div>सफेद जामुन, आम का फल आदि पसन्द हैं। मैं वह सब उन्हें खिलाता रहता हूँ। श्रद्धालु मन्दिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं। मैं मन्दिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती जरूर जला देता हूँ। सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है, तो मैं माँ का चश्मा साफ करके देता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य माँ का चश्मा साफ करने से मनुष्य को मिलता है।"</div><div> यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है। हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं। पण्डितों को खीर-पूरी खिलाते हैं। रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय या कौए को खिलाया भोजन ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसी को पता नहीं है।</div><div> अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है। अपने माता-पिता को जीते-जी सारे सुख देना ही वास्तविक श्राद्ध है।</div><div> मन को छू देने वाली इस चर्चा को सभी सुधीजनों के समक्ष रखने के लोभ को मैं संवरण नहीं कर सकी। मेरा मानना भी यही है कि मन्दिर में जाकर मूर्तियों के आगे माथा रगड़ने के स्थान पर यदि अपने घर में विद्यमान माता-पिता को प्रणाम किया जाए तो पुण्य के साथ-साथ उनका आशीर्वाद भी मिलता है। अपने ही घर में विद्यमान बुजुर्गों का तिरस्कार करने वालों को ईश्वर कभी क्षमा नहीं करता। इसलिए समय रहते हुए चेतकर यदि अपने जीवित पितरों यानी माता-पिता की हर छोटी-बड़ी इच्छा को मन से पूर्ण करना, सच्चे अर्थों में उनका श्राद्ध करना कहलाता है। किसी भी मनुष्य को इस महान पुण्य को बटोरने में कभी भी जरा-सी कोताही नहीं करनी चाहिए।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-24463838161469170252023-10-11T05:07:00.001-07:002023-10-11T05:07:26.828-07:00कौवा बनकर श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा <div>सालों पहले मरे पितर खीर कैसे खायेगे?</div><div><br></div><div>महापुरुष जो भी समाज सुधार के कार्य करते हैं, उन्हें उस समय समझ पाना शायद कठिन कार्य होता है। तत्कालीन समाज उन्हें विद्रोही की संज्ञा से अभिहित करता है। आने वाले युगों में उन कार्यों का मूल्यांकन जब किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि उनके जीवन का सार क्या था? अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने इन कार्यों के लिए कितना विरोध झेला होगा? फिर भी वे चट्टान की भाँति बिना डरे अडिग रहते रहे हैं। समाज की कठोर आलोचना से निर्लिप्त रहकर अपने उद्देश्य से वे कभी नहीं भटके।</div><div> कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का मैं यहाँ जिक्र करना चाहती हूँ। यह घटना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक बार गुरु रामानन्द जी ने कबीरदास से कहा, "कबीर, आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिए खीर बनानी है। जाओ खीर के लिये दूध ले आओ?"</div><div> कबीर उस समय केवल नौ वर्ष के थे। वे दूध का बर्तन लेकर चल पडे। चलते-चलते उन्हें एक मरी हुई गाय दिखाई दी। कबीर ने आसपास से घास उखाड कर, गाय के खाने के लिए डाल दी और वहीं पर बैठ गए। दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।</div><div> काफी देर हो गयी कबीर लौटे नहीं तो गुरु रामानन्द ने सोचा पितरों को खिलाने का समय हो गया है। रामानन्द जी दूध लेने खुद ही चल पड़े। उन्होंने देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखकर बैठे हुए हैं।</div><div> गुरु रामानन्द जी बोले, "अरे कबीर तू दूध लेने नही गया?"</div><div> कबीर बोले, "स्वामी जी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।"</div><div> रामानन्द ने कहा, "अरे मूर्ख, ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी?"</div><div> कबीर ने उत्तर दिया, "स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी हुई गाय घास नही खा सकती तो आपके सालों पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे?"</div><div> यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये। उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया। कबीरदास जी का मानना है कि घर पर जो भी जीवित बुजुर्ग हैं, सदा उनकी सेवा करनी चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध करना कहलाता है। उनके परलोक सिधार जाने के पश्चात कितना भी प्रदर्शन क्यों न कर लिए जाएँ, वे सब व्यर्थ होते हैं। जीवित पितरों को जो श्रद्धापूर्वक समर्पित किया जाता है, उसी का जीवन में महत्त्व होता है, समाज में अपनी नाक ऊँची करने वाले शेष सब कार्य आडम्बर कहलाते हैं।</div><div> सन्त कबीर जी ने इस विषय पर बहुत ही बेबाकी से, बिना किसी के प्रभाव में आए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं-</div><div>माटी का एक नाग बना के पूजे लोग लुगाया।</div><div>जिन्दा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।।</div><div>जिन्दा बाप कोई न पूजे मरे बाद पुजवाया।</div><div>मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।।</div><div>यह दुनिया कितनी बावरी हैं जो पत्थर पूजे जाय।</div><div>घर की चकिया कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।।</div><div>अर्थात् मिट्टी का नाग बनाकर नागपंचमी के दिन स्त्री, पुरुष सब उसकी पूजा करते हैं। परन्तु यदि जिन्दा साँप घर में निकल आए तो लाठी लेकर उसे धमकाते हैं, घर से बाहर निकलकर चैन लेते हैं। जीवित माता-पिता को लोग पूछते नहीं हैं। उनके मरने के बाद, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ करवाते हैं, ब्राह्मणों को भोजन खिलाते हैं। मुट्ठीभर यानी थोड़े से चावल लेकर कौवे को अपना बाप बनाते हैं। इस दुनिया के लोग इतने बाँवरे हैं जो पत्थर की पूजा करने जाते हैं। घर में पड़ी हुई उस चकिया को वे नहीं पूछते जिसका पीसा हुआ अन्न खाकर उस घर के सभी सदस्य पुष्ट होते हैं।</div><div> आशा है कि सभी सुधीजन कबीरदास जी के इन विचारों को सम्मान देंगे। इन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेंगे। अनावश्यक आडम्बरों का पालन करने के स्थान पर इन रूढ़ियों को त्यागने में ही समाज का हित निहित है। आखिर कब तक हम इन थोथी रूढ़ियों के मकड़जाल में उलझे रहकर अपने वास्तविक दायित्वों से मुख मोड़कर अनजान बने रहेंगे।</div><div> अपनी आने वाली पीढ़ी को यह संस्कार देने चाहिए कि घर में बैठे जीवित माता-पिता सबसे बड़े देवता हैं। उनकी सभी सुख-सुविधाओं के ध्यान रखना चाहिए। उनके लिए जो भी करने है, उनके जीते जी कर लो। उनके दुनिया से विदा हो जाने के पश्चात जो भी किया जाता है, वह उनके किसी काम नहीं आता। मन का कोई कोना अवश्य रीता रह जाता है कि काश उनके जीते जी कुछ कर लिया होता। समय रहते अपने दायित्वों को समझने में ही भला है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div><div><br></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-10024487875761024462023-10-11T05:05:00.002-07:002023-10-11T05:06:08.101-07:00सालों पहले मरे पितर खीर कैसे खाएंगे?<div>महापुरुष जो भी समाज सुधार के कार्य करते हैं, उन्हें उस समय समझ पाना शायद कठिन कार्य होता है। तत्कालीन समाज उन्हें विद्रोही की संज्ञा से अभिहित करता है। आने वाले युगों में उन कार्यों का मूल्यांकन जब किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि उनके जीवन का सार क्या था? अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने इन कार्यों के लिए कितना विरोध झेला होगा? फिर भी वे चट्टान की भाँति बिना डरे अडिग रहते रहे हैं। समाज की कठोर आलोचना से निर्लिप्त रहकर अपने उद्देश्य से वे कभी नहीं भटके।</div><div> कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का मैं यहाँ जिक्र करना चाहती हूँ। यह घटना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक बार गुरु रामानन्द जी ने कबीरदास से कहा, "कबीर, आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिए खीर बनानी है। जाओ खीर के लिये दूध ले आओ?"</div><div> कबीर उस समय केवल नौ वर्ष के थे। वे दूध का बर्तन लेकर चल पडे। चलते-चलते उन्हें एक मरी हुई गाय दिखाई दी। कबीर ने आसपास से घास उखाड कर, गाय के खाने के लिए डाल दी और वहीं पर बैठ गए। दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।</div><div> काफी देर हो गयी कबीर लौटे नहीं तो गुरु रामानन्द ने सोचा पितरों को खिलाने का समय हो गया है। रामानन्द जी दूध लेने खुद ही चल पड़े। उन्होंने देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखकर बैठे हुए हैं।</div><div> गुरु रामानन्द जी बोले, "अरे कबीर तू दूध लेने नही गया?"</div><div> कबीर बोले, "स्वामी जी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।"</div><div> रामानन्द ने कहा, "अरे मूर्ख, ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी?"</div><div> कबीर ने उत्तर दिया, "स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी हुई गाय घास नही खा सकती तो आपके सालों पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे?"</div><div> यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये। उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया। कबीरदास जी का मानना है कि घर पर जो भी जीवित बुजुर्ग हैं, सदा उनकी सेवा करनी चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध करना कहलाता है। उनके परलोक सिधार जाने के पश्चात कितना भी प्रदर्शन क्यों न कर लिए जाएँ, वे सब व्यर्थ होते हैं। जीवित पितरों को जो श्रद्धापूर्वक समर्पित किया जाता है, उसी का जीवन में महत्त्व होता है, समाज में अपनी नाक ऊँची करने वाले शेष सब कार्य आडम्बर कहलाते हैं।</div><div> सन्त कबीर जी ने इस विषय पर बहुत ही बेबाकी से, बिना किसी के प्रभाव में आए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं-</div><div>माटी का एक नाग बना के पूजे लोग लुगाया।</div><div>जिन्दा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।।</div><div>जिन्दा बाप कोई न पूजे मरे बाद पुजवाया।</div><div>मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।।</div><div>यह दुनिया कितनी बावरी हैं जो पत्थर पूजे जाय।</div><div>घर की चकिया कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।।</div><div>अर्थात् मिट्टी का नाग बनाकर नागपंचमी के दिन स्त्री, पुरुष सब उसकी पूजा करते हैं। परन्तु यदि जिन्दा साँप घर में निकल आए तो लाठी लेकर उसे धमकाते हैं, घर से बाहर निकलकर चैन लेते हैं। जीवित माता-पिता को लोग पूछते नहीं हैं। उनके मरने के बाद, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ करवाते हैं, ब्राह्मणों को भोजन खिलाते हैं। मुट्ठीभर यानी थोड़े से चावल लेकर कौवे को अपना बाप बनाते हैं। इस दुनिया के लोग इतने बाँवरे हैं जो पत्थर की पूजा करने जाते हैं। घर में पड़ी हुई उस चकिया को वे नहीं पूछते जिसका पीसा हुआ अन्न खाकर उस घर के सभी सदस्य पुष्ट होते हैं।</div><div> आशा है कि सभी सुधीजन कबीरदास जी के इन विचारों को सम्मान देंगे। इन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेंगे। अनावश्यक आडम्बरों का पालन करने के स्थान पर इन रूढ़ियों को त्यागने में ही समाज का हित निहित है। आखिर कब तक हम इन थोथी रूढ़ियों के मकड़जाल में उलझे रहकर अपने वास्तविक दायित्वों से मुख मोड़कर अनजान बने रहेंगे।</div><div> अपनी आने वाली पीढ़ी को यह संस्कार देने चाहिए कि घर में बैठे जीवित माता-पिता सबसे बड़े देवता हैं। उनकी सभी सुख-सुविधाओं के ध्यान रखना चाहिए। उनके लिए जो भी करने है, उनके जीते जी कर लो। उनके दुनिया से विदा हो जाने के पश्चात जो भी किया जाता है, वह उनके किसी काम नहीं आता। मन का कोई कोना अवश्य रीता रह जाता है कि काश उनके जीते जी कुछ कर लिया होता। समय रहते अपने दायित्वों को समझने में ही भला है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div><div><br></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-64424556465397431042023-10-08T19:33:00.001-07:002023-10-08T19:33:05.271-07:00पितरों को श्रद्धा से तृप्त करो श्राद्ध से नहीं <div>हर व्यक्ति अपने जीवन में कल्याण की कामना करता है। वह अपने परिवारों जनों तथा समाज में एक अच्छी सन्तान होने का मेडल पहनना चाहता है। इस प्रसिद्धी को पाने का एकमात्र यही उपाय है कि अपने बुजुर्ग होते माता-पिता को श्रद्धापूर्वक अपने आचार-व्यवहार से प्रसन्न करना चाहिए। </div><div> जहॉं तक हो सके उनके जीवनकाल में ही उनकी सेवा कर ली जाए। उनके खान-पान का समुचित ध्यान रखा जाए। उनके स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरती जाए। उनके वस्त्रों के प्रति सजग रहा जाए। उनके साथ कुछ समय व्यतीत किया जाए ताकि वे अकेलेपन से घबरा न जाऍं। जो बच्चे ऐसा करते हैं उनका घर ही मन्दिर बन जाता है और वहॉं पत्थर की मूर्तियों का स्थान जीवित मूर्तियॉं यानी उनके माता-पिता ले लेते हैं।</div><div> गुरु नानक देव जी के जीवन से जुड़ी एक घटना कहीं पढ़ी थी, उसे यहॉं उद्धृत करना चाहती हूॅं। एक बार गुरू नानक देव जी भ्रमण करते हुए शिष्यों सहित तीर्थराज हरिद्वार गए । वहाॅं उन्होनें देखा कि हजारों भावुक अन्ध विश्वासी श्रद्धालु लोग गंगा में खड़े होकर मरे हुए माता-पिता आदि को पानी द्वारा तर्पण व पिण्ड दान कर रहे हैं। </div><div> नानक देव जी ने सोचा कि इन भोले लोगों कैसे समझाया जाय, अतः वे भी गंगा की धारा में खड़े होकर पंजाब की तरह मुॅंह करके दोनों हाथों से गंगा का पानी फैंकने लगे। स्वयं से विपरीत दिशा में जल फैंकते देख लोगों को आश्चर्य हुआ तो उन्होनें नानक देव जी से पूछा महाराज! आप ये क्या कर रहे हैं? </div><div> सरल स्वभाव गुरु नानक जी बोले, "भाइयो, मैं अपने खेत को पानी दे रहा हूँ।" </div><div> यह सुनकर सब लोग हंसने लगे और गुरु नानक जी से कहने लगे, "महाराज इस प्रकार आपके खेतों में पानी पहुॅंचना सम्भव है क्या?" </div><div> तब महात्मा नानक देव जी बोले, "ओ भोले लोगो! मेरा पानी मेरे पंजाब प्रान्त के खेतों में नहीं पहुँचेगा तो तुम्हारे मरे हुए माता-पिता जो किस योनि में किस देश में और अपने कर्मानुसार क्या फल भुगत रहे हैं, उन्हें तुम्हारा ये तर्पण पिण्ड दान कैसे पहुँचेगा ?" </div><div> लोगों को समझाते हुए गुरु नानक देव जी ने फिर कहा, "अतः इस पर विचार करो और अपने जीवित माता पिता और गुरुजनों को श्रद्धा व भक्ति भाव से तृप्त करो तभी तुम्हारा कल्याण होगा अन्यथा आप दुःख सागर में गोते ही खाते रहोगे।"</div><div> इस घटना को पढ़कर यही प्रतीत होता है कि महापुरुषों के समझाने का तरीका बड़ा विचित्र होता है। वे अपनी क्रियात्मकता से जन साधारण के मन में अपनी बात को बड़ी सरलता से पहुॅंचा देते हैं। गुरु नानक देव जी के उपदेश के बाद मेरे कहने के लिए कुछ नहीं बचता। यह अब आप सुधीजनों पर निर्भर करता है कि आप महापुरुषों का अनुसरण करना चाहते हैं या अन्धविश्वासों एवं रुढ़ियों में फसे रहना चाहते हैं।</div><div> मैं बस इतना ही कहना चाहती हूॅं कि अपने माता-पिता का ऋण जीवनभर उनकी सेवा करके भी नहीं चुका सकते। इसलिए उनके जीवनकाल में ही उन्हें इतना सन्तुष्ट कर दीजिए ताकि उनके परलोक सिधारने पर आपको किसी ढकोसले की आवश्यकता ही न रहे।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-82149658360493995562020-10-31T19:17:00.001-07:002020-10-31T19:17:29.740-07:00खिलौना लेकर सोते बच्चे<div>खिलौना लेकर सोते बच्चे</div><div><br></div><div>आधुनिकीकरण के कारण आज के एकल परिवारों में प्रायः बच्चों को कोई न कोई खिलौना या स्टफ टॉय यानी टेडी बियर या कोई गुड़िया आदि लेकर सोने की आदत हो जाती है। माता-पिता अपने बच्चों के लिए घर में एक सुन्दर-सा डिजाइनर बेडरूम बनवा देते हैं। उसमें उनकी आवश्यकता का सारा सामान रखवा देते हैं, ताकि छोटे बच्चे आकर्षित होकर उस कमरे में सोने के लिए तैयार हो जाएँ।</div><div> दूसरे शब्दों में कहें तो माता-पिता बच्चे को अलग कमरे में रात को सोने के लिए एक प्रकार से रिश्वत देते हैं। हम कह सकते हैं कि पश्चिमी देशों के अँधानुकरण का ही यह परिणाम है कि माता-पिता द्वारा छोटे बच्चे को जबरदस्ती अलग कमरे में रात को सोने के लिए विवश किया जाता है। छोटी आयु में बच्चा माता-पिता के साथ ही सोने की जिद करता है। परन्तु वे उसे बहला फुसलाकर, लालच देकर वहाँ सोने के लिए तैयार करते हैं। </div><div> बहुत बार बच्चा उन्हें अपने पास सोने के लिए मजबूर करता है। उस समय माता या पिता उसके साथ सोने का नाटक करते हैं और बच्चे के सोते ही अपने कमरे में आ जाते हैं। बड़े ही दुख की बात है कि माता-पिता यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि बच्चा अलग क्यों नहीं सोना चाहता? वे बस अपने साथियों में अपनी शान बघारते नहीं थकते कि उन्होंने अपने छोटे बच्चे को सभी सुविधाओं से लैस एक सुन्दर-सा बेडरूम दिया हुआ है।</div><div> कई बार ऐसा होता है कि बच्चा रात को टॉयलेट जाने के लिए उठता है, तब माता या पिता को अपने पास न पाकर रोने लगता है अथवा उनके कमरे में आकर उनके पास ही सो जाता है। बड़ी आयु के बच्चों को प्राइवेसी चाहिए होती है, वे बड़ी कक्ष में आ जाते हैं। तब उनकी पढ़ाई डिस्टर्ब न हो, इसलिए उन्हें अपना अलग कमरा चाहिए होता है। पर छोटे बच्चों के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती।</div><div> एकल परिवार में प्रायः माता-पिता दोनों ही नौकरी अथवा व्यवसाय करते होते हैं। इसलिए उनके पास अपने बच्चों के लिए समय कम ही निकल पाता है। वे बच्चे के पास अधिक समय तक लेटकर या बैठकर उसे कहानी नहीं सुना सकते और न ही उसके साथ ज्यादा समय तक कुछ खेल सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दिया जा सकता। उनकी अपनी विवशता है कि वे चाहकर भी बच्चे को अधिक समय नहीं दे पाते।</div><div> परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि बच्चा उनसे मनचाहा समय पाना चाहता है, नहीं तो वह उदास हो जाता है। उस समय बच्चा खिलौने को ही अपने एकाकीपन का साथी बन लेता है। रात को जब उसे डर लगता है, तो वह कसकर उसे पकड़ लेता है। उसे यह अहसास होता है कि कोई उसके पास है, डरने की कोई बात नहीं है। उसे ऐसा लगता है कि कोई उसका साथी है, जो उसके साथ सो रहा है। </div><div> दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे के दुख और सुख का साथी वह खिलौना बन जाता है। वह उसी के साथ सोता है और उसी के साथ जागता है। उसी खिलौने से वह झगड़ा करता है, उसी से प्यार भी करता है। उससे मित्रवत बातें करके अपना मन बहलाता है। जब कभी उसे माता या पिता से डाँट पड़ती है, तब वह उसे ही जाकर बताता है। इस तरह वह अपने मन का गुबार निकल करके स्वस्थ हो जाता है।</div><div> संयुक्त परिवारों के रहते बच्चों को इन सब समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता था। वहाँ उनकी देखभाल के लिए दादा-दादी या परिवार के अन्य सदस्य होते हैं। दादा-दादी की गोद उनका सबसे बड़ा सम्बल होती है। रात को उनसे कहानी सुनते, उनके साथ मस्ती करते हुए, सोते और जागते हुए बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, यह पता ही नहीं चल पाता। वहाँ रहने वाले माता-पिता भी बच्चों की ओर से निश्चिन्त रहते हैं।</div><div> इस चर्चा का सार यही है कि बच्चे की सुरक्षा और भलाई के लिए माता-पिता कृतसंकल्प रहते हैं। उसकी छोटी-छोटी समस्याओं को समझने के लिए उन्हें अपने व्यस्त समय में से थोड़ा समय निकालना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए। बच्चे के ऊपर जबर्दस्ती अपनी मर्जी नहीं थोपानी चाहिए, उसे सदा प्यार से समझना चाहिए। इससे बच्चे के मन में माता-पिता के लिए कडवाहट नहीं आती।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-19186924134218874252020-10-30T19:17:00.001-07:002020-10-30T19:17:54.479-07:00चोरों से सावधान<div> चोरों से सावधान</div><div><br></div><div>'अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करो।' या 'जेबकतरों से सावधान।' घूमने-फिरने के स्थान, फिल्म हाल, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि किसी भी स्थान पर चले जाओ वहाँ ये वाक्य लिखे रहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे घर पर है अथवा घर से बाहर है, उसे चोर-डाकुओं से सावधान रहने की आवश्यकता होती है। यदि कहीं थोड़ी-सी भी लापरवाही हो जाती है, तो उसे हानि उठानी पड़ जाती है।</div><div> मनुष्य अपने घर को सुरक्षित बनाने का हर सम्भव प्रयास करता है। आज वह कच्चे घर में न रहकर सीमेंट, लोहे और ईंटों से अपना मजबूत घर बनाता है। अपनी सुरक्षा को और सुदृढ़ बनाने के लिए वह अपने घर के अन्दर और बाहर सीसीटीवी कैमरे लगवाता है। ताकि वह हर तरफ ध्यान दे सके। अपने धन को बैंक में जमा करता है। अपने खरीदे सोने, हीरे आदि के आभूषणों और आवश्यक कागजों को बैंक के लाकर में रखता है।</div><div> चोरों, लुटेरों, जेबकतरों, गला काटने वालों, भ्रष्टाचारियों, चोरबाजारी करने वालों आदि को पकड़ने और सजा देने के लिए ही न्याय-व्यवस्था है। वह उन्हें उनके दोषों के अनुसार ही दण्ड दे देती है। इन लोगों पर वह अंकुश लगा सकने में पूर्णरूपेण सक्षम है। उन लोगों पर विशेष नजर रखने के लिए पुलिस भी सतर्क रहती है। इस तरह इन असामाजिक तत्त्वों पर नकेल कसने का प्रबन्ध किया जाता है।</div><div> मनुष्य के मन में आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, नकारात्मक विचार आदि अनेक चोर डेरा जमाकर बैठ जाते हैं। ये सभी चोर मनुष्य का सुख और चैन सब हर लेते हैं। उसे किसी तरह से शान्त होकर नहीं बैठने देते। उन सबसे मनुष्य की रक्षा कौन कर सकता है? इन सबसे बचने के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच किस प्रकार बन सकेगा? ये प्रश्न वास्तव में विचारणीय हैं। जिनका हल खोजना ही होगा।</div><div> ये सभी नकारात्मक विचार मनुष्य को असफलता की राह पर ले जाते हैं। वह आलसी बनकर आज का काम कल पर टालता रहता है। परन्तु वह कल कभी आ ही पाता। इस तरह मनुष्य जीवन की रेस में पिछड़ जाता है। उस पर नालायक होने या नाकामयाब होने पा ठप्पा लग जाता है। वह स्वयं भी अपनी इस आदत के कारण घर, दफ्तर हर स्थान पर पिछड़कर, तिरस्कृत होता रहता है। </div><div> ईर्ष्या और द्वेष आदि चोरों की तरह मनुष्य के अन्तस् में अपना घर बना लेते हैं। उसे हर समय परेशान करते रहते हैं। किसी की अच्छी पोशाक हो, उसका उच्च जीवन स्तर हो, उसका खान-पान अच्छा हो, उसके बच्चे संस्कारित हों, कोई सुन्दर हो, उसका घर, उसकी गाड़ी उनसे बेहतर हो यानी किसी व्यक्ति से ईर्ष्या करने का कोई भी कारण हो सकता है। </div><div> इससे दूसरे व्यक्ति का तो कुछ भी नहीं बिगड़ता क्योंकि उसे कुछ पता ही नहीं चलता। पर वह अनावश्यक जल-जलकर अपना नुकसान कर बैठता है। मनुष्यअपने ही मन में घुलता रहता है। अपने ही स्वास्थ्य की हानि कर बैठता है। जितना अपने पास है, उसमें उसे सन्तोष करना चाहिए। मनुष्य नाम का जो यह जीव है, वह दूसरों की होड़ में परेशान रहता है। इसका कारण है, वह सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहता है।</div><div> अपनी अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने की आँधी दौड़ में वह कब गलत रास्ते पर चल पड़ता है, उसे पता ही नही चलता। फिर वह स्वयं को सिद्ध करने के लिए हिंसा का मार्ग अपना लेता है। सारी दुनिया पर हकूमत करने की उसकी प्रवृत्ति, अपने विरोध में उठने वाले किसी भी सिर को कुचलने के लिए तैयार हो जाती है। फिर उसका धीरे-धीरे पतन होने लगता है और तब व्यक्ति समाज की आँखों में खटकने लगता है।</div><div> मानव की मानवता को दाँव पर लगाने वाले इन सब चोरों से जितना हो सके बचना चाहिए। इन्हें मन में प्रश्रय देने के स्थान पर इनसे किनारा करना बुद्धिमानी कहलाती है। मनुष्य इसीलिए संसार के सभी जीवों से अलग है कि उसके पास बुद्धि है, विवेक है। उसे सोच-विचार करके अपना कदम उठाना चाहिए। बिना विचारे कार्य करके वह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-88706996956281937322020-10-29T19:18:00.001-07:002020-10-29T19:18:32.605-07:00स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम<div>स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम</div><div><br></div><div>जीवन में स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करना बहुत आवश्यक होता है। मानव शरीर प्रकृति की एक सुन्दर और परिपूर्ण रचना है।यह शरीर जितना चलता-फिरता रहता है, उतना ही स्वस्थ, मजबूत, और लचीला बना रहता है। इसीलिए आजकल जिम जाने का फैशन बढ़ता जा रहा है। वहाँ जाकर लोग वर्कआउट करते हैं। बहुत-सा धन देकर वे स्वयं के लिए प्रवेश पाते हैं। लड़की हो या लड़का यानी हर युवा जिम में जाकर अपनी बॉडी बनाकर फिट रहना चाहता है। नौजवान सिक्स पैक बनाने में गर्व का अनुभव करते हैं। जिम जाकर वे कई प्रकार की एक्सरसाइज करते हैं। </div><div> व्यायाम की रूपरेखा इंसान के स्वास्थ्य, जीवनपद्धति, व्यवसाय और आयु को ध्यान में रख कर निश्चित करनी चाहिए। किसी एक इंसान द्वारा किया जाने वाला व्यायाम दूसरे व्यक्ति को भी सूट कर जाएगा, यह आवश्यक नहीं है। कुछ युवा लोग सी डी चलाकर उसके साथ एक्सरसाइज करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ लोग सैर करना स्वास्घ्य के लिए बहुत आवश्यक मानते हैं। कुछ लोग भागकर, वेट ट्रेनिंग लेकर, स्विमिंग करके, कोई खेल खेलकर या डांस करके द्वारा व्यायाम करते हैं। तरीका कोई भी अपनाया जा सकता है। </div><div> वास्तव में व्यायाम एक ऐसी गतिविधि है जो मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखती है और साथ ही उसके समग्र स्वास्थ्य को भी बढाती है। माँसपेशियों को मजबूत बनाने, हृदय प्रणाली को सुदृढ़ करने, एथलेटिक कौशल बढाने, वजन घटाने या फिर केवल मात्र आनन्द आदि किसी भी कारणवश इसे किया जा सकता है। कारण कोई भी हो सकता है, पर उद्देश्य एक ही है कि शरीर स्वस्थ रहना चाहिए, नीरोग रहना चाहिए।</div><div> व्यायाम अथवा कसरत से जी चुराने वाले आलसी लोग तर्क देते हैं कि एक खरगोश अपने जीवनकाल में दौड़ता है, उछलता कूदता है, मस्ती करता है और फिर भी केवल पन्द्रह वर्ष तक ही जीवित रहता है। इसके विपरीत एक कछुआ है, जो न दौड़ता है और न ही कुछ करता है, फिर भी वह तीन सौ वर्ष तक जीवित रहता है। इसलिए एक्सरसाइज जाए भाड़ में, कौन शरीर को कष्ट दे। अतः निश्चिन्त होकर अच्छी गहरी नींद में सो लिया जाए। आराम से बढ़कर इस जीवन में और कुछ भी नहीं है।</div><div> प्रतिदिन दौड़ लगाना भी एक व्यायाम है। दौड़ने से शरीर में बदलाव होते हैं। तनाव से दूर रहने में भी मदद मिलती है। शरीर में जमी वसा नष्ट होती है। इस कारण मोटापा घटाने में मदद मिलती है। इससे अच्छी नींद आती है, इन्सान प्रसन्न रहता है। तनाव से दूर रहने में भी मदद मिलती है और सकारात्मक मानसिकता तैयार होती है। मनुष्य दिन भर फ्रैश रहता है और उसे थकावट नहीं होती। नियमित रूप से दौड़ने से स्ट्रोक, रक्तचाप, डायबिटीज जैसी बीमारियों से दूर रहना संभव होता है।</div><div> व्यायाम करते समय कुछ बिन्दुओं की ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक होता है। व्यायाम सदा विशेषज्ञ के मार्गदर्शन के बाद ही करना चाहिए। इस बात को समझना आवश्यक है कि व्यायाम की शुरुआत में बदनदर्द होता है, लेकिन बाद में लाभ होता है। व्यायाम हमेशा उतना ही किया जाना चाहिए, जिससे शरीर में थोड़ी थकावट बेशक हो जाए, पर अनावश्यक रूप से थककर चूर नहीं होना चाहिए। व्यायाम के बाद विश्राम करना बहुत आवश्यक होता है।</div><div> व्यायाम हमेशा शुद्ध वायु में खाली पेट और शौच के बाद प्रातःकाल करना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो भोजन के कम-से-कम चार घण्टे बाद इसे किया जा सकता है। शरीर पर मौसम के अनुसार ढीले वस्त्र होने चाहिए। व्यायाम के तुरन्त बाद पानी पिया जा सकता है, लेकिन उसके आधे घण्टे बाद ही कुछ खाना चाहिए। व्यायाम के पन्द्रह मिनट बाद गुनगुना दूध पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। तेज चलते हुए पंखे के सामने या उसके नीचे व्यायाम नहीं करना चाहिए। इससे अच्छा है कि पंखा धीमा कर दें और पसीना निकलने दें। व्यायाम करते वक्त पसीना पोंछने के लिए अपने पास सूती नैपकिन रखना चाहिए।</div><div> झटके से कभी व्यायाम नहीं करना चाहिए। व्यायाम में विविधता बनाए रखनी चाहिए। लगातार एक ही तरह का व्यायाम करने से हमारे शरीर को उसकी आदत होने लगती है। इसलिए धीरे-धीरे उसका सकारात्मक परिणाम दिखाई देना बन्द हो जाता है। </div><div> सबसे आवश्यक बात यह है कि व्यायाम में निरन्तरता बनाए रखना जरूरी होता है, अन्यथा सब बेकार हो जाता है। यदि लाभ लेना चाहते हैं, तो व्यायाम नियमित रूप से करना चाहिए। यदि कभी कोई समस्या आ जाए तो सप्ताह में कम-से-कम पाँच दिन व्यायाम अवश्य करना चाहिए।</div><div> कुछ लोग ऐसे भी हैं जो योगाभ्यास करके स्वयं को चुस्त और दुरुस्त रखने का प्रयास करते हैं। अधिकाँशत: लोग योगासन तथा व्यायाम दोनों को एक ही समझते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। दोनों ही विधाओं में बहुत अन्तर है और इन दोनों का ही अपना-अपना महत्व है। योग सिर्फ कसरत मात्र नहीं है। व्यायाम में केवल शारीरिक प्रक्रिया की जाती हैं ताकि शरीर स्वस्थ रहे। दूसरी ओर योग मनुष्य को शारीरिक, मानसिक एवं भावानात्मक रूप से सुदृढ़ बनाता है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-27923984658745336012020-10-28T19:20:00.001-07:002020-10-28T19:20:25.285-07:00पाँच प्राण<div>पाँच प्राण</div><div><br></div><div>मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण रहते हैं, तब तक वह जीवन्त रहता है। इन प्राणों के शरीर से निकलते ही वह निष्प्राण हो जाता है। तब उसे लोग शव के नाम से पुकारते हैं। सभी बन्धु-बान्धव अपने उस प्रियजन को कुछ समय के लिए भी घर में नहीं रहने देते। श्मशान में ले जाकर उसका अन्तिम संस्कर कर देते हैं। मनीषी कहते हैं कि उसके बाद यह भौतिक शरीर पाँच तत्त्वों यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश में जाकर मिल जाता है।</div><div> प्राण ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है, जिसका अस्तित्व होता है। यह समस्त जीवन का आधार और सार है। प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन के मध्य सम्पर्क सूत्र है। प्राण श्वास,ऑक्सीजन की आपूर्ति, पाचन, निष्कासन-अपसर्जन आदि बहुत से कार्य करता है। मनुष्य जब प्राण को नियन्त्रित करने का अभ्यास करता है, तब उसका शरीर और मन स्वास्थ्य व समन्वय को प्राप्त कर लेते हैं। </div><div> प्राण मुख्य रूप से पाँच कहे जाते हैं- प्राण, व्यान, अपन, उदान और समान। इनके विषय में चर्चा करते हैं-</div><div>प्राण - प्राण मानव के शरीर को अनिवार्य ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है। स्वच्छ वायु स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक होती है। दूषित वायु से कई बीमारियाँ हो जाती हैं। हमारा स्वास्थ्य केवल बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। स्वास्थ्य प्रतिरोधक शक्ति से अनुशासित होता है। दैनिक जीवन में योगाभ्यास हमारी जीवनी शक्ति को सुदृढ़ करता है। इसके लिए भस्त्रिका, नाड़ी शोधन और उज्जायी प्राणायाम किए जा सकते हैं।</div><div>अपान - यह नाभि से पैरों के तलवों तक यानी शरीर के निम्न-भाग को प्रभावित करता है। यह प्राण निष्कासन-प्रक्रिया को नियमित करता है। अपान पेट के निचले हिस्से को प्रभावित करता है- आंतों, गुर्दे, मूत्र मार्ग, टाँगों आदि सभी अपान प्राण की अवस्था का परिणाम होते हैं। अग्निसार क्रिया, नौलि, अश्विनी मुद्रा और मूलबन्ध विधियाँ अपान प्राण को मजबूत और शुद्ध करने का कार्य करती हैं।</div><div>व्यान - व्यान प्राण मानव शरीर के नाड़ी मार्ग से प्रवाहित होता है। इसका प्रभाव पूरे शरीर पर होता है। व्यान प्राण में कमी होने से रक्त प्रवाह में कमी, नाड़ी संचरण में खराबी और स्नायु सम्बन्धी गति हीनता होने लगती है। व्यान प्राण कुम्भक के अभ्यास से सुदृढ होता है। नाड़ी तन्त्र को प्रोत्साहित करता है। इस कुम्भक का अभ्यास करने के उपरान्त मनुष्य अच्छी तरह ध्यान लगा सकता है। </div><div>उदान - उदान प्राण उच्च आरोही ऊर्जा है। यह हृदय से सिर और मस्तिष्क में प्रवाहित होती है। उदान प्राण कुण्डलिनि शक्ति के जाग्रत होने पर उसके साथ होता है। उदान प्राण के नियन्त्रित करने से शरीर इतना हल्का हो जाता है कि व्यक्ति में हवा में उठ जाने की योग्यता आ जाती है। जब उदान प्राण मनुष्य के नियन्त्रण में होता है, तब बाह्य बाधाएँ बाधा नहीं डाल सकती। श्वास व्यायाम का गहन अभ्यास जल पर चलने और आकाश में तैरने की स्थिति बन सकती है। यह व्यायाम नाडिय़ों और विचारों को शान्त करके एकाग्रता को बढ़ाता है तथा मनुष्य को स्व यानी आत्मा के सम्पर्क में ले जाता है।</div><div>समान - समान एक महत्त्वपूर्ण प्राण है। यह अनाहत एवं मणिपुर चक्रों को जोड़ता है।</div><div>यह आहार की ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में वितरित करता है। जब योगी समान प्राण पर नियन्त्रण कर लेते हैं, तब उनके अन्दर शुद्ध ज्योति होती है। समान प्राण को पूर्ण करने से प्रभामण्डल से प्रदीप्त हो जाता है। यह अग्निसार क्रिया एवं नौलि के अभ्यास से सुदृढ़ होता है। संक्रमणशील बीमारी और कैंसर का प्रतिरोध करने की क्षमता को भी सुधारता है। समान प्राण को क्रिया योग से जाग्रत किया जा सकता है। इसका अभ्यास शरीर को गरम रखता है। </div><div> इसके अतिरिक्त पाँच उपप्राण कहे जाते हैं- नाग, कूर्म, देवदत्त, कृकल और धनञ्जय। ये शरीर के महत्त्वपूर्ण कार्यों को संचालित करते हैं। इन प्राणों का बिना मनुष्य का जीवन संचालित ही नहीं हो सकता। जब तक प्राण शरीर में रहते हैं, तब तक मनुष्य गतिशील बना रहता है। उसमें ऊर्जा व स्फूर्ति बने रहते हैं। इन प्राणों का बिना इस भौतिक शरीर का कोई मूल्य नहीं रह जाता। वह बस रख की ढेरी बनकर रह जाता है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-25611509788942247492020-10-27T19:18:00.001-07:002020-10-27T19:18:08.539-07:00त्रिगुणात्मक सृष्टि<div> त्रिगुणात्मक सृष्टि</div><div><br></div><div>यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है, जो तीन गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण पर आधरित है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जो इन त्रिगुण तत्वों से परे हो। ये तीनों गुण इस संसार के समस्त प्राणियों में विद्यमान रहते हैं। मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा को छोड़कर किसी और प्रकार के शरीरधारी जीवात्मा को तीन गुणों वाली प्रकृति को जानने और समझने का अधिकार ही नहीं है।</div><div> भगवान श्रीकृष्णजी अर्जुन को त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुण धर्म के विषय में समझाते हुए गीता में कहते हैं-</div><div>सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत। ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।।</div><div>अर्थात् हे अर्जुन! सत्त्व गुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा ज्ञान को छोड़कर तमोगुण के कारण मनुष्य प्रमादी बन जाता है। </div><div> भगवान श्रीकृष्ण के कथन का यह तात्पर्य है कि प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज और तम स्थूल प्रकृति के हर अंश में विद्यमान हैं। परन्तु जब प्रकृति के सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म और स्थूल रूपों को एकसाथ जानने-समझने की बात आती है, तो केवल मनुष्य शरीरधारी जीवात्मा ही इस रहस्य को समझ पाता है। अर्थात् प्रकृति का सम्पूर्ण ज्ञान हम मनुष्य शरीर के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। </div><div> मनुष्य जन्म से ही इन तीनों गुणों से प्रभावित होता है। कोई भी मनुष्य इन तीनों गुणों से बच नहीं पाया है। प्राणी में जिस गुण की प्रधानता होती है, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का हो जाता है। मनुष्य को सदैव अपने तमोगुण यानी तामसी प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। उसे रजोगुण यानी राजसी प्रवृत्ति को अपने अनुकूल करना चाहिए। सतोगुण या सात्त्विक प्रवृत्ति को ही जीवन भर अपनाना चाहिए।</div><div> यद्यपि तीनों गुण सृष्टि में विद्यमान हैं, परन्तु सतोगुण के दर्शन बड़ी कठिनता से होते हैं। सत्त्वगुण को प्राप्त करके ही जीवात्मा को सुख की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति सुख भोग रहा है, तो यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के सत्त्वगुण के प्रभुत्व में है। इस सत्त्वगुण के विकसित होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य मोक्षगामी बन जाता है।</div><div> राजसी प्रवृत्ति की कामना में मनुष्य सुख, ऐश्वर्य एवं अधिकाधिक धन प्राप्त करने में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति दुःख भोग रहा है, तो यह कह सकते हैं कि वह प्रकृति के रजगुण के अधीन हो चुका है। रजोगुणी व्यक्ति निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। रजोगुण का प्रधान लक्षण सक्रियता ही है। रजगुण विकसित होने पर ऐश्वर्य प्राप्ति की कामना बलवती होती है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख-सुविधा के साधनों का संग्रह करता है।</div><div> तामसी प्रवृत्ति आलस्य, प्रमाद , क्रोध एवं नकारात्मकता को प्रकट करती है। आज यह अधिक देखने को मिल रही है। जब मनुष्य युवावस्था में प्रवेश करता है तो संगति-कुसंगति में पड़कर नकारात्मक होकर कर्म-कुकर्म करने लगता है। तब उसमें तमोगुण प्रभावी होते हैं। जीवन भर दुर्दान्त बनकर वह तमोगुण से घिरकर ही जीवन यापन करता है। यदि कोई व्यक्ति हमेशा आलस्य का अनुभव करता है; और आज का काम कल पर टालता रहता है तो ऐसी स्थिति में हमें यह समझ लेना चाहिये कि वह प्रकृति के तमगुण के प्रभाव में अपना जीवन-यापन कर रहा है। तमोगुण प्रधान व्यक्ति की बुद्धि उसे सुख में दुःख का और दुःख में सुख का अनुभव कराती है। </div><div> सतोगुण सुख का, रजोगुण दुःख का और तमोगुण मोह का प्रतिनिधित्व करता है। सतोगुण की न्यूनता चिन्ता का विषय कही जा सकती है। मनुष्य के जीवनकाल में तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। जिसकी जो इच्छा हो उसे अपना सकता है। लोग अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता से ही सुख प्राप्ति का प्रयास करते हैं। यद्यपि ये तीनों गुण एक ही शरीर में विद्यमान रहते हैं। फिर भी एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।</div><div> मनुष्य इन तीनों गुणों को जानता हो या न जानता हो इस बात से त्रिगुणों के आपसी व्यवहार में कोई अन्तर नहीं पड़ता। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकृति के तीनों गुणों का सम्पूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति प्रकृति के तमोगुण और रजोगुण को नियन्त्रित करके सभी दुःखों से स्वयं को मुक्त कर सकता है और केवल सुख भोगते हुए ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। तभी मनुष्य अपने इस जीवन को सार्थक बना सकता है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-17936443546979964562020-10-26T19:20:00.001-07:002020-10-26T19:20:40.053-07:00विधि का विधान<div> विधि का विधान बहुत कठोर है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। विधि या होनी जो न कराए वही थोड़ा है, वह बहुत ही बलवान है। उसके प्रकोप से आज तक कोई भी नहीं बच सका। मनुष्य के कर्मों के अनुसार जो भी सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि उसे मिलते हैं, उनमें रत्ती भर की भी कटौती नहीं की जाती। मनुष्य को उनसे भोगकर ही छुटकारा मिलता है। इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता है।</div><div> भगवान राम और भगवती सीता का विवाह और राम का राज्याभिषेक, दोनों कार्य शुभ मुहूर्त में किए गए थे। परन्तु उनका सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन कष्टों से भरा रहा। प्रातः राज्याभिषेक होने को था, सब तैयारियाँ हो चुकी थीं। परन्तु रात ही रात में ऐसा कुछ घटित हो गया कि उन्हें सब कुछ त्याग देना पड़ा। राजसी ठाठबाट और वस्त्रों का परित्याग करके उन्हें मुनि वेश में ही वन में जाना पड़ गया।</div><div> अयोध्या के राजगुरु मुनि वसिष्ठ से इन विषय मे पूछा गया, तो तुलसीदास जी के शब्दों में उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया-</div><div>सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ।</div><div>लाभ हानि, जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।।</div><div>अर्थात् हे भरत सुनो! जो विधि ने निश्चित किया है वही होकर रहेगा। लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश सब भाग्य के अधीन हैं। </div><div> भगवान कृष्ण की चर्चा करते हैं। यह सर्वविदित है कि उनको जन्म माँ देवकी ने भाई कंस के कारगर में मथुरा में दिया था। उनके पैदा होते ही उन्हें पिता वासुदेव ने गोकुल में नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया। वहाँ उनका लालन-पालन माता यशोदा ने किया। बचपन से ही अनेक अवाँछनीय स्थितियों का सामना उन्हें करना पड़ा। फिर उन्हें माँ यशोदा और पिता नन्द बाबा को भी छोड़कर मथुरा वापिस जाना पड़ा। </div><div> माता सती भगवान शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के यज्ञ में भाग लेने गईं। वहाँ पति का अपमान सहन न कर सकेने के कारण वे सती हो गईं। भगवान शिव माता सती की मृत्यु को टाल नहीं सके, जबकि महामृत्युंजय मन्त्र उन्ही का आह्वान करता है। भगवान शिव और भगवती पार्वती की जोड़ी को तोड़ा नहीं जा सकता।</div><div> रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि तथाकथित स्वयंभू ईश्वर कहलाने वालों के पास समस्त शक्तियाँ थीं। फिर भी इन सबका दुखद अन्त हुआ। इनका और इन जैसे सभी लोग इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह को शर शैय्या पर शयन करने पड़ा। भक्ति काल में रानी मीराबाई को उसके देवर ने ही विष दे दिया। कृष्ण भक्ति में मस्त वे मन्दिर-मन्दिर भटकती रहीं।</div><div> दानवीर राजा हरिश्चन्द्र को ऋषि विश्वामित्र को दान देने के कारण स्वयं को ही एक चाण्डाल के पास बेचना पड़ा। उन्हें उसके पास श्मशान घाट पर नौकरी करनी पड़ी। उन्हें अपनी पत्नी को एक दासी के रूप में बेचना पड़ा। इससे बढ़कर और उनका दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए उन दोनों पति और पत्नी के पास कर देने तक के लिए धन नहीं था।</div><div> आधुनिक काल में बहुत-सी घटनाएँ हृदय को विदीर्ण करती हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को उनके रसोइए के द्वारा विष दिया गया। ईसा मसीह को उनके शत्रुओं के द्वारा जीवित ही सूली पर लटका दिया गया, जिनके अनुयायी पूरे विश्व में विद्यमान हैं। महात्मा गांधी को गोली मार दी गई। इतिहास के पन्नों को खंगालने पर ऐसी अनेक घटनाएँ मिल जाएँगी।</div><div> इस सारी चर्चा का सार यही है कि होनी बहुत बलवान है। उससे इस संसार का कोई भी जीव नहीं बच सकता। विधि के इस विधान की दृष्टि में साधु-सन्यासी, राजा-रंक, योगी-भोगी, अमीर-गरीब आदि सभी ही एक बराबर हैं। मनुष्य चाहे स्वयं को कितना ही तीसमारखाँ क्यों न समझ ले विधि के इस विधान के समक्ष उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। इसलिए मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-34831303106307140032020-10-25T19:19:00.001-07:002020-10-25T19:19:28.426-07:00पढ़ने से जी चुराते बच्चे<div> पढ़ने से जी चुराते बच्चे</div><div><br></div><div>प्रायः माता-पिता परेशान रहते हैं कि बच्चे पढ़ने में मन नहीं लगाते। वे अपनी पुस्तकों को देखना भी नहीं चाहते। विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य को जल्दबाजी में करके वे अपना पिंड छुड़ाते हैं। उन्हें किसी वस्तु की कमी माता-पिता नहीं रहने देते, फिर भी वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। घूमने-फिरने, खेलने-कूदने, टी वी देखने और सारा दिन मोबाईल पर अपना समय व्यतीत करना चाहते हैं। </div><div> कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चे हर समय अपनी मनमानी करना चाहते हैं। क्या कभी इस बात का पता करने का यत्न किया है कि आखिर बच्चे मनमानी क्यों करते हैं? बच्चों का पढ़ने से जी चुराने का कारण क्या है? उनका ध्यान दूसरी ओर क्यों रहता है? वे आखिर खेल-कूद में क्यों लगे रहते हैं? टी वी और मोबाईल उन्हें क्यों अधिक अच्छे लगते हैं? बच्चे आखिर पढ़ने के लिए कहने पर अपने माता-पिता की अवहेलना क्यों करते हैं? </div><div> ये कुछ प्रश्न हैं, जिनके हल खोजे जाने चाहिए। आजकल बच्चों को खिलौनों से भी अधिक टीवी और मोबाईल पसन्द आते हैं। इसका बहुत बड़ा कारण है। बच्चा जब छोटा होता है, उस समय माँ उसे उसका मनपसन्द गाना या टीवी कार्यक्रम लगाकर बिठा देती है या मोबाईल दे देती है, ताकि उन्हें देखता हुआ बच्चा आराम से नाश्ता या खाना खा ले। उस समय बच्चे ने क्या खाया, कितना खाया, उसे पता ही नहीं चलता।</div><div> इसके अतिरिक्त यदि माता-पिता कोई कार्य करना चाहते हैं और बच्चों की डिस्टरबेंस नहीं चाहते, तो उस समय वे बच्चों को टीवी चलाकर बैठने के लिए कह देते हैं या उन्हें व्यस्त रखने के लिए मोबाईल पकड़ा देते हैं। यही कारण हैं कि धीरे-धीरे बच्चे टीवी और मोबाईल के अभ्यस्त हो जाते हैं। उन्हें इनमें आनन्द आने लगता है। माता-पिता आवाज लगाते रहें, वे उसे अनसुना कर देते हैं। </div><div> यदि बच्चों से जबर्दस्ती उनसे टीवी बन्द करवाया जाए या उनसे मोबाईल ले लिया जाए, तो वे चीख-पुकार मचाते हैं। यह कुछ प्रमुख कारण हैं, जो बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए बाधक बन रहे हैं। इनके अतिरिक्त बच्चा घर में खिलौनों से खेलना पसन्द करते हैं। घर के बाहर जाना बहुत से बच्चों को अच्छा नहीं लगता। आजकल घर में एक या दो बच्चे होते हैं, उन्हें माता-पिता अनावश्यक लाड़-प्यार करके बिगाड़ देते हैं।</div><div> बच्चों का पढ़ाई में मन न लगने का कारण भी टीवी, मोबाईल और खेलकूद है। बच्चे सारा दिन यदि टीवी और मोबाईल में व्यस्त रहेंगे, तो निश्चित है कि उन्हें पढ़ने का समय नहीं मिल पाएगा। वे जब पढ़ाई से जी चुराने लगते हैं, तब वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं। इन सबमें उन्हें आनन्द आता है, पर पढ़ाई बहुत बोरिंग होती है। उन्हें अपनी पुस्तकें लेकर बैठने में अच्छा नहीं लगता, वे उससे बचने का बहाना ढूंढते रहते हैं।</div><div> जब माता-पिता बच्चों को पढ़ने के लिए कहते हैं, उस समय उन्हें पानी की प्यास लग जाती है, भूख लगी है कुछ खाने को दो, टॉयलेट जाना या फिर कुछ और ऐसे बहाने याद आते हैं, जिन्हें रोक पाना सम्भव नहीं हो पाता। अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कॉमिक्स, कहानी की पुस्तक या उपन्यास पढ़ने में उन्हें अधिक रुचिकर लगता है। इन पुस्तकों को पढ़ने में उन्हें मजा आता है।</div><div> आजकल करोना काल में जब बच्चे विद्यालय नहीं जा सक रहे, तब उनकी ऑनलाइन क्लासेस चल रही हैं। उसी पर उनका गृहकार्य भी मिलता है। परीक्षाएँ भी ऑनलाइन हो रही हैं। इसलिए सारा दिन वे मोबाईल पर व्यस्त रहते हैं। यह स्थिति तो अपवाद काल की है, सदा रहने वाली नहीं है। यही आयु पढ़ने की होती है और यही आयु खेलने या मौज-मस्ती करने की भी होती है।</div><div> माता-पिता का यह परम दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को टीवी और मोबाईल का एडिक्ट न बनने दें। टीवी और मोबाईल का समय निश्चित करें, जिससे बच्चे अनुशासित रहें। उन्हें पढ़ाई करने के लिए प्रोत्सहित करें। जीवन की ऊँच-नीच उन्हें इस प्रकार समझाएँ, जिससे उनके बच्चे समझदार बन जाएँ। एक जिम्मेदार नागरिक बनने का अपना दायित्व वे पूर्ण कर सकें।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-32858863756027097052020-10-24T19:17:00.001-07:002020-10-24T19:17:08.752-07:00दुनिया का मेला<div> दुनिया का मेला</div><div><br></div><div>ईश्वर की बनाई हुई यह सृष्टि बहुत खूबसूरत है। यहाँ चारों ओर चहल-पहल दिखाई देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ न समाप्त होने वाला कोई मेला लगा हुआ है। लोग इधर-उधर रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर अपनी मस्ती में चले जा रहे हैं। कहीं झूले सजे हुए हैं, कहीं बच्चे पशुओं की सवारी का आनन्द ले रहे हैं। लोकनर्तक यहाँ वहाँ नृत्य कर रहे हैं। दुकानों को सजाए दुकानदार आवाज लगाकर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं।</div><div> कहीं पर सर्कस दिखाई जा रही है। अनेक कार्टून चरित्रों के मुखौटे लगाकर कुछ लोग जन-साधारण का मनोरञ्जन कर रहे हैं। कहीं पर लोग निशानेबाजी कर रहे हैं। एक स्थान पर तो फिल्म दिखाई जा रही है। लोग किसी ज्योतिषी के पास बैठकर अपना भविष्य जानने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ लोग अपनी जरूरत के पशुओं का मोल भाव कर रहे हैं। खाने-पीने की दुकानों पर तो बहुत ही भीड़ है।</div><div> कुल मिलाकर सर्वत्र आनन्द मनाते हुए लोग दिखाई दे रहे हैं। प्रकृति के सौन्दर्य को इस पृथ्वी पर निहारते ही बनता है। वन-उपवन में खिले हुए फूल अपनी और बरबस ही आकर्षित करते हैं। पशु-पक्षियों को देखो, तो उनसे नजर नहीं हटती। सदा से नदियाँ और समुद्र मनुष्य के मन को हर लेते हैं। पर्वतों की सुन्दरता देखते ही बनती है। लोग इन मनमोहक स्थानों पर जाकर प्रकृति से अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं।</div><div> प्रातःकालीन और सायंकालीन सूर्य की आभा देखते ही बनती है। चाँद-सितारों से भरे आसमान की तो शान ही निराली होती है। बादलों की बाट जोहते हुए लोग उसकी एक फुहार पर मानो कुर्बान हो जाते हैं। छहों ऋतुओं का आनन्द मनुष्य इसी धरती पर ले सकते हैं। वर्षा ऋतु में चारों ओर बड़े-बड़े पेड़ और इमारतें नहाई हुई सी लगती हैं। वसन्त ऋतु की तो छटा निराली होती है। हरियाली और सुगन्धित बयार सबका मन मोह लेती है।</div><div> मनुष्य चाहे अपने इस जीवन से चाहे कितना भी निराश हो, हताश हो, उसका शरीर बीमारियों के कारण साथ न दे रहा हो, यदि ऐसे व्यक्ति से पूछा जाए कि इस संसार को छोड़कर जाना चाहते हो, तो वह एकदम मना कर देगा। इसका कारण है कि दुनिया की खूबसूरती को कोई भी नहीं छोड़ना चाहता। संसार का आकर्षण उसे इतना बाँध लेता है कि वह इसे छोड़कर जाने की सोच भी नहीं सकता।</div><div> मोह-माया के झूठे बन्धनों में मनुष्य इतना जकड़ा हुआ है कि अपने इन भौतिक रिश्तों से दूर जाने की कल्पना करना उसके लिए बहुत कठिन होता है। चाहे वह अपने बन्धु-बान्धवों से कितना भी पीड़ित किया जाता हो, फिर भी वह उनसे वियोग के विषय में सोच ही नहीं सकता। इसी आशा पर वह जीवित रहना चाहता है कि कभी तो सब ठीक हो जाएगा। वह उनके साथ पहले की तरह रह सकेगा।</div><div> यह सृष्टि युगों-युगों से चली आ रही है और पता नहीं कब तक चलेगी। इस बात को यह मनुष्य समझना ही नहीं चाहता कि उसका जीवन पानी के बुलबुले की तरह है। वह उस तारे की तरह इस धरा पर रात को उदित होकर चमकता है, जो प्रातः होते ही छिप जाता है। यानी उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। कोई उसके बारे में जान ही पाता। मनुष्य जब अपने अनुभव से ज्ञान का कोश बन जाता है, तब तक उसके विदा होने का समय आ जाता है।</div><div> दुनिया के ऐसे वर्णनातीत मेले में हर किसी का मन रम जाता है। इसे छोड़कर जाने का किसी का भी मनुष्य का मन नहीं करता। परन्तु इस सृष्टि के नियम बहुत ही कठोर हैं। दुनिया के इस मेले को इन्सान को आखिर छोड़कर जाना ही पड़ता है। यह मेला केवल उसी व्यक्ति के लिए ही समाप्त हो जाता है, जो इस दुनिया से विदा लेकर परलोक की यात्रा के लिए प्रस्थान कर जाता है। </div><div> मनुष्य अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार जितनी आयु लेकर इस संसार में आता है, उसे भोगकर इस संसार से उसे जाना ही पड़ता है। यह संसार रूपी मेला ऐसे ही चलता रहता है। किसी के यहाँ से विदा हो जाने के उपरान्त कुछ भी नहीं बदलता। सब कुछ यथावत चलता रहता है। वैसे ही यहाँ मेला लगा रहता है, उसमें भाग लेने वाले लोगों की भीड़ भी वैसी ही बनी रहती है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-50477002690951058492020-10-23T19:21:00.001-07:002020-10-23T19:21:12.896-07:00बहुरूपिया मन<div> बहुरूपिया मन</div><div><br></div><div>हमारा मन एक बहुरूपिया है। बहुरूपिया उसे कहते हैं जो विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने में सक्षम होता है। बहुरूपिया व्यक्ति तरह-तरह के रूप धारण करके लोगों का दिल बहलाता है। लोग उसकी अदाकारी को बहुत समय तक स्मरण करते हैं। उसी प्रकार तरह-तरह के स्वाँग रचाकर मनुष्य का यह मन भी उसे नाना प्रकार से बहलाता रहता है। अपनी मोहिनी छवि से मनुष्य को अपने जाल में फँसाकर मोहित कर लेता है।</div><div> मन सदा ही गतिमान रहता है। वह असंख्य स्थानों की सैर पल भर में करके आ जाता है। उसकी गति की सीमा को निर्धारित नहीं किया जा सकता। यदि कोई चाहे भी तो इसके उड़ान भरते पंखों को कोई नहीं काट सकता। मन को यदि किसी तरह से प्रवाह रहित कर दिया जाए, तब मनुष्य छोटे बच्चे की तरह विवेक शून्य हो जाएगा। उस समय मनुष्य सोचने-समझने की शक्ति ही खो देगा।</div><div> यहाँ नदी का उदाहरण लेते हैं। नदी बिना रुके निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। रास्ते में अनेक चट्टानें उसका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए पड़ी रहती हैं। परन्तु वे बड़ी-बड़ी चट्टानें उसके जल के प्रवाह को नहीं रोकने में समर्थ नहीं हो सकती। नदी का जल अपना मार्ग बना लेता है। वह उन चट्टानों के अगल-बगल होकर बहने लगता है। इस प्रकार नदी का जल सदा गतिमान रहता है।</div><div> नदी की तरह मनुष्य का यह मन सतत प्रवहमान रहता है। इसकी गति को कोई आजतक बाँध नहीं पाया है। कितने भी अवरोध लगा लो, यह अपने विचरने का मार्ग निकल लेता है। मनुष्य को तरह-तरह के सब्जबाग यह दिखाता ही रहता है। उसे भरमाता रहता है। उसे कभी भी चैन से नहीं बैठने देता। मनुष्य इसके बनाए भ्रमजाल में उलझकर रह जाता है, उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाता है।</div><div> मनुष्य का मन उसे सतरंगी सपने दिखाता है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को प्रोत्साहित करता है। मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए उत्साहित करता है। उसे अशुभ कार्य करने पर डराता नहीं है बल्कि उकसाता है। उसके आलस्य को पोषित करता है। उसे निकम्मा बनने में सहायता करता है। जैसा मनुष्य करना चाहता है, वैसा करने में उसकी हाँ में हाँ मिलता रहता है।</div><div> इस तरह अनेक रूप धारण करके यह मन एक ओर मनुष्य का मनोरंजन करता है और दूसरी ओर उसे विनाश के गर्त में धकेल देता है। इस प्रकार यह अपने अनेक रूपों से मनुष्य को प्रभावित करता है। जो मनुष्य इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो मन उसके अनुसार चलता है। इसके विपरीत जो मनुष्य मन के अनुसार चलते हैं, वे दुखों और परेशानियों में घिर जाते हैं।</div><div> यदि मनुष्य अपने इस जीवन में सुख-चैन से जीना चाहता है, तो उसे मन की बात को सुनकर अपने विवेक का भी सहारा लेना चाहिए। मन का सुझाया हुआ जो मार्ग उचित लगे, तो उसका अनुसरण करना चाहिए। जहाँ लगे कि मन का बताया हुआ मार्ग अनुचित प्रतीत हो रहा है अथवा वहाँ कुछ सन्देह हो रहा है, तब वहाँ अच्छे से सोच-विचार करके अपना कदम आगे बढ़ाना चाहिए।</div><div> हमारा खुराफाती मन हमें विभिन्न प्रकार के नजारों में उलझाकर तमाशा देखता है। इस मन को मनुष्य किस प्रकार सीधे रास्ते पर लेकर आएँ? यह प्रश्न ऐसा है, जिसे सुलझा पाना बहुत ही टेड़ी खीर है। कितने ही ऋषि-मुनि इसे साधने में सफल हो गए और कितने ही हारकर मन के दास बन गए। मनुष्य की सफलता और असफलता का मुख्य कारण यह मन ही होता है।</div><div> कर्म योग से यह मन विचलित नहीं होता। इसे साधने के लिए मनुष्य को अनवरत कर्म की साधना करनी पड़ती है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने कर्मों को पूर्णरूपेण से ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जब वह अपने कर्म ईश्वर को समर्पित करेगा, तब निश्चित ही उसका ध्यान कर्मों की शुचिता की ओर जाएगा। वह अशुभ कर्म करने से बचेगा और शुभ कर्म करेगा।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-38267405340754262712020-10-22T19:17:00.001-07:002020-10-22T19:17:18.377-07:00चुगलखोरी की लत<div> चुगलखोरी की लत</div><div><br></div><div>चुगलखोरी एक विशेष कला है, जिसमें व्यक्ति निपुणता हासिल न ही करे तो अच्छा है। इस शब्द का प्रयोग सभी गाली के रूप में करते हैं। चमचा, बॉस का कुत्ता आदि कहकर लोग उनके सामने अथवा पीछे उनका उपहास उड़ाते हैं। इन चिकने घड़ों को इन विशेषणों से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। वे उल्टा खुश होते हैं। चुगलखोरी की इस नामुराद आदत को हम नकारात्मक सोच का नाम दे सकते हैं।</div><div> प्राय: लोग चुगलखोरी की आदत को पसन्द नहीं करते। अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, ये चुगलखोर दूसरों की पीठ में छुरा भौंकने जैसा निकृष्ट कार्य करते हैं। ऐसा दुष्कृत्य करने वालों से लोग दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। उनके सामने ऐसी कोई भी बात करने से कतराते हैं, जिसको तोड़-मरोड़कर वे अपने ही लाभ के लिए उपयोग कर सकें और दूसरों की पीठ में छुरा घोंप सकें।</div><div> जबान का यह कुटेव किसी इन्सान को सबकी नजरों से गिरा देता है। लोग सोचते हैं कि जब दूसरों की चुगली हमारे सामने करके यह वाहवाही लूटना चाहता है, तो फिर अन्यों के समक्ष अवश्य हमारी बुराई भी करता होगा। ऐसे लोग हमारे आसपास सर्वत्र ही उपलब्ध रहते हैं। कार्यालयों में कम्पनी के स्वामी अथवा बॉस ऐसे चुगलखोरों को पालते हैं, जो ऑफिस में बैठे हुए उन्हें अपने साथियों के विषय में बताते रहें।</div><div> इस चुगलखोर के विषय में 'नर्ममाला' में कवि ने कहा है -</div><div>पिशुनेभ्य:नमस्तेभ्य: यत्प्रसादान्नियोगिन:।</div><div>दूरस्था अपि जायन्ते सहस्त्रश्रोत्रचक्षुष:॥</div><div>अर्थात् उन चुगलखोरों को नमस्कार है जिनकी कृपा से स्वामी दूर रहते हुए भी हजार आँखों और कानों वाले हो जाते हैं।</div><div> इसका तात्पर्य यही है कि किसी भी कार्यालय में कार्य करने वाले स्वामी यदि दूर भी बैठे हों, तब भी उनको ऑफिस की खबरें देने वाले उनके चमचे वहाँ विद्यमान रहते हैं। वे उन्हें आँखों देखी सारी खबरें देते रहते हैं। वे नमक-मिर्च लगाकर उन सारी झूठी-सच्ची खबरों को बताने का अपना कार्य बड़ी कुशलता से निभाते हैं। इस प्रकार करके वे अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं।</div><div> इन चुगलखोरों को बॉस भी कोई महत्त्व नहीं देते। सिर्फ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ही बॉस इनको मुँहलगा बना लेते हैं। वे काम निकल जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह इन्हें निकाल फैंकने में भी परहेज नहीं करते। इस चुगलखोरी के दूरगामी परिणाम भयंकर होते हैं। ये लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिए भी बॉस के कान भरते हुए, अनजाने में ही अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं। </div><div> 'पञ्चतन्त्रम्' नामक पुस्तक में कवि ने इसी भाव को स्पष्ट किया है -</div><div>अहो खलभुजङ्गस्य विपरीतो वचक्रम:।</div><div>कर्णे लगति चैकस्य प्राणैरन्यो वियुज्यते॥</div><div>अर्थात् यह आश्चर्य की बात है कि इस चुगलखोर रूपी सर्प के मारने का उपाय ही विपरीत प्रकार का है। वह एक के कान में डसता है, पर प्राणों से कोई दूसरा वियुक्त होता है।</div><div> कवि चुगलखोर को साँप की संज्ञा दे रहा है। वह कह रहा है कि इनको मारने का तरीका बहुत ही विचित्र है। यह किसी एक व्यक्ति के कान में अपनी चुगली का विष उगलता है और उससे किसी दूसरे व्यक्ति का विनाश होता है। चुगलखोर व्यक्ति दूसरे का अनजाने में कितना अहित कर जाता है, शायद वह स्वयं भी नहीं जानता। जिसका वह अहित करता है, उसे अपनी स्थिति को सुधारने में बहुत प्रयास करना पड़ता है।</div><div> चुगलखोरी रूपी निन्दा पुराण दूसरे का अहित तो करता ही है, स्वयं अपने लिए भी गड्ढा खोदता है। दूसरों को नीचा दिखाने की होड़ में मनुष्य हर जगह अपनी ही हानि कर बैठता है। ऐसे व्यक्ति अविश्वसनीय होते हैं। अत: उन पर कोई विश्वास नहीं करता। ऐसा कुकृत्य करता हुआ मनुष्य अपने अन्तस् के विचारों को दूषित करता है। इस चुगली रूपी मल से अपने अन्त:करण की शुद्धि करना बहुत कठिन हो जाता है।</div><div> जीवन के अन्त में अर्थात् मृत्यु के पश्चात ऐसे लोगों का नाम सभी हिकारत से लेते हैं। प्रयास यही करना चाहिए कि इस बुराई के घर से यथासम्भव दूर रहा जाए। क्षणिक तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अथवा अपने अहं को तुष्ट करने के लिए, किसी का अहित नहीं करना चाहिए। ऐसा करना स्वयं से दुश्मनी निभाना होता है। इस प्रकार करके मनुष्य को अपने लोक और परलोक को बिगड़ने नहीं देना चाहिए।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-17391029272660920862020-10-21T18:40:00.001-07:002020-10-21T18:40:49.391-07:00पल की खबर नहीं<div> पल की खबर नहीं</div><div><br></div><div>जीवन में अगले पल क्या होने वाला है, इस विषय में मनुष्य को कुछ पता नहीं होता। जीवन उसका है, पर वही अपने भविष्य से अनभिज्ञ रहता है। इसका कारण है कि जो भी भविष्य के गर्भ में छुपा रहता है, उसके विषय में कोई नहीं बता सकता। भविष्य वक्ता केवल कयास लगा सकते हैं। उनकी बताई बात यथार्थ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। केवल एक ईश्वर है, जो सब कुछ जानता है।</div><div> मनुष्य अभी है, पर अगले पल रहेगा या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अगला पल किसने देखा? मनुष्य के जीवन का पलभर का भी भरोसा नहीं है, पर वह इस तरह दुनिया भर का सामान इकट्ठा करता है, जैसे उसे सौ साल तक जीना है। इसी बात को किसी कवि ने कहा है-</div><div> सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।</div><div>इस संसार मे आकर मनुष्य अपने डेरा सदा के लिए डाल लेता है।</div><div> यद्यपि हमारे ऋषि-मुनि ईश्वर से सौ वर्ष जीने की प्रार्थना करते थे। वे कहते थे कि सौ वर्षों तक वे स्वस्थ होकर इस संसार में जीवित रहें। पर फिर भी इस क्षणभंगुर जीवन के विषय में कोई कुछ भी नहीं कह सकता। मनुष्य कब तक जीवन का भोग करेगा, यह उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों पर निर्भर करता है। इन कर्मों के अनुसार उसे यह जीवन मिलता है। उसकी आयु समाप्त होते ही उसे इस दुनिया से विदा हो जाना पड़ता है।</div><div> क्षणभंगुर मनुष्य के इस जीवन के विषय में कबीरदास जी कहते हैं-</div><div>पानी केर बुदबुदा अस मानस की जात।</div><div>देखत ही छुप जाएगा ज्यों तारा परभात।।</div><div>अर्थात् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है, जो बनता है और पलभर में टूटकर बिखर जाता है। जिस प्रकार प्रातः होते ही तारे छुप जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी इस दुनिया से विदा ले लेता है।</div><div> कहने का तात्पर्य यही है कि इस संसार में सभी लोग काल के बन्धन में बँधे हुए हैं। मनुष्य को मात्र थोड़ा-सा जीवन जीने के लिए मिला है और वह उसी में बहुत-से ठाठ-बाठ रचाता है। आराम और सुविधा से जीवन व्यतीत करना चाहता है। यदि मनुष्य अपने मन की आँखें खोलकर देखे, तो अमीर, गरीब, राजा, रंक, आदि सभी के ऊपर जन्म-मरण तथा आवागमन का चक्र मंडराता रहता है।</div><div> मनुष्य की हवस है, जो उसे चैन नहीं लेने देती। एक घर खरीद लिया, वह कम है। नामी-बेनामी सम्पत्तियाँ मनुष्य खरीदता रहता है। एक गाड़ी से काम चल सकता है, पर मँहगी गाड़ियों का जखीरा उसके पास होना चाहिए। कोई कहता है कि उसके पास इतना धन है कि उसकी सात पीढ़ियाँ बैठकर खा सकती हैं। अरे भाई, कभी सोचा है कि तुमने तो परिश्रम कर लिया, बाकी आने वाली पीढ़ियाँ हाथ पर हाथ धरे निठल्ली बैठेंगी क्या?</div><div> घर में अलमारियाँ कपड़ों से भरी हुई हैं, पर पहनने के लिए वस्त्र नहीं है। कितना विचित्र है न यह सब। अगले ही पल यदि भूकम्प आ गया या बाढ़ आ गयी, तो जोड़ा हुआ सब धन-वैभव कहाँ जाएगा? किसी को कुछ भी पता नहीं है। सब समय की रेत पर लिख दिया जाएगा। तब कोई भी मनुष्य दाने-दाने के लिए मोहताज हो सकता है। तब उसे समझ में नहीं आएगा कि वह अब क्या करे? उस समय कल का राजा आज का रंक बनकर रह जाता है।</div><div> यह भी मनुष्य को खबर नहीं कि वह जो निवाला हाथ में पकड़कर बैठा है, उसे मुँह तक ले जा सकेगा या नहीं। चाय का जो कप लेकर बैठा है, उसे पी सकेगा अथवा वह लहराकर उसके हाथ से ही गिर जाएगा। मनुष्य चलते-फिरते, गाड़ी में बैठे या ऑफिस से ही सबको बिलखता हुआ छोड़कर, परलोक की यात्रा के लिए तो नहीं निकल जएगा। इसे ही कहते हैं कि मनुष्य को अगले पल के बारे में पता नहीं है।</div><div> मृत्यु मनुष्य के जन्म के साथ से ही उसकी सखी बनकर उसके पास ही रहती है और इस संसार से अपने साथ ही लेकर जाती है। मनुष्य उसे अनदेखा करके दुनिया के भोग-विलास में मस्त रहता है। वह अपने किसी बन्धु-बान्धव की अन्तिम यात्रा के लिए श्मशान घाट पर भी जाता है। फिर भी वह सोचता है कि मृत्यु उसके पास नहीं आएगी। इसलिए वह फिर इस दुनिया के कारोबार में व्यस्त हो जाता है।</div><div> मनुष्य को पल-पल अपनी ओर बढ़ रही मृत्यु को सदैव स्मरण रखना चाहिए। उसे जीवन के साथ-साथ मृत्यु का भी मूल्य समझना आना चाहिए। यदि वह उसे कभी न भूले, तो जीवन में गलत रास्ते पर नहीं जा सकेगा। वह अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देगा। अपना इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने का भरसक प्रयत्न करेगा। ईश्वर की सच्चे मन से आराधना करता हुआ मनुष्य अपने जीवन को सफल बनाएगा।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-9090255661698409812020-10-20T19:17:00.001-07:002020-10-20T19:17:06.377-07:00मन का खालीपन<div> मन का खालीपन</div><div><br></div><div>बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य का मन बिना किसी कारण के परेशान हो जाता है। उस समय मनुष्य को लगता है कि वह संसार का सबसे अधिक दुखी प्राणी है। इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो मनुष्य के मन में एक तरह का खालीपन समा जाता है। एक ही जैसा बोरियत वाला काम करते हुए मनुष्य उकता जाता है या ऊब जाता है। उस समय वह उससे भागकर कहीं चले जाना चाहता है, जो उसके लिए सम्भव नहीं होता।</div><div> खालीपन का अर्थ है कोई काम न होना। वैसे यह खालीपन जीवन के लिए अच्छा नहीं होता। यदि मनुष्य के जीवन में कहीं कुछ खालीपन आ जाता है, तो उसे उसको अपनी इच्छानुसार भरने का प्रयास करना चाहिए। वैसे तो कोई भी मनुष्य नहीं चाहता कि उसके जीवन में किसी चीज की कोई कमी रह जाए। चाहे वह कमी घर की हो, गाड़ी की हो या अन्य सुख-सुविधा की हो, जिनसे लोग अक्सर अपने जीवन में वंचित रह जाते है। </div><div> खालीपन महसूस करने वाले सब लोग एक ही तरह से सोचते हैं। उन्हें सदा यही लगता है कि उनका जीवन अर्थहीन हो गया है। उनके पास कुछ भी करने के लिए नहीं है। मनुष्य से मानो उसके होने के अस्तित्व का अहसास छिन जाता है। वह स्वयं को अन्दर से खोखला महसूस करने लगता है। वह किसी से बात ही नहीं करना चाहता, पर अपने अकेलेपन से वह घबरा जाता है।</div><div> सयाने कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। एक खाली घर में यदि कोई व्यक्ति अकेला रहता है, उसका वहाँ पर मन नहीं लगता। वह परेशान हो जाता है। उसमें उल्टे-पुल्टे विचार घर करने लगते हैं। इसी प्रकार जब मनुष्य का मन खाली हो जाता है, तो उसमें नकारात्मक विचार भरने लगते हैं। वे उसका सुख-चैन सब हर लेते हैं, उसे निराशा घेरने लगती है और वह छटपटाने लगता है।</div><div> यदि जीवन में सब कुछ पहले से विद्यमान होता है, तो मनुष्य उन सब चीजों से ऊब जाता है। अभी तक जो चीजे उसे सुख देती थीं, वही उसके दुःख का कारण बनने लगती हैं। मनोचिकित्सकों का मानना है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य के खालीपन से मानसिक डिसऑर्डर या पर्सनैलिटी डिसऑर्डर हो सकता है, शराब या ड्रग्स की लत लग सकती है, अवसाद या डिप्रेशन में जा सकता है, उसे अस्तित्व सम्बन्धी संकट हो सकता है।</div><div> मनुष्य को चाहिए कि किसी भी छोटी या बड़ी उपलब्धि पर उसे स्वयं को बधाई देनी चाहिए। अपनी पीठ थपथपानी चाहिए। इससे प्रसन्नता होती है। अपने विचारों को सकारात्मक बनाने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य जब अपने जीवित होने या अस्तित्व को स्वीकार करने लगता है, तो उसमें उत्सह आने लगता है। दूसरों की राय को अनावश्यक महत्त्व नहीं देना चाहिए। </div><div> मनुष्य के मन में जब किसी भी कारण से खालीपन समाने लगता है, उस स्थिति में वह आत्महत्या तक कर लेता है। यह स्थिति मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं होती। इस अवसादपूर्ण अवस्था से मनुष्य का बाहर निकलना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिए उसे अपनों के साथ की आवश्यकता होती है। परिवारी जनों को चाहिए कि ऐसे मनुष्य को अकेले न छोड़ें। सदा ही कोई न कोई उसके साथ रहना चाहिए।</div><div> मन के खालीपन के कारणों के विषय में मनुष्य को विचार करना चाहिए। खालीपन को स्वीकार कर लेना चाहिए। इससे बचने के लिए टीवी देख सकते हैं या वीडियो गेम्स खेल सकते हैं। अपने विचारों और सपनों पर ध्यान देना चाहिए। इस समय योग करना चाहिए, किसी मनपसन्द साज को बजाना चाहिए। लेखन कार्य भी किया जा सकता है, बागवानी में समय बिताया जा सकता है। </div><div> मनुष्य को जिस काम में मजा आता हो या जो उसकी हॉबी हो, वह उस कार्य को कर सकता है। अपने बन्धु-बान्धवों से मिलकर मन को प्रसन्न कर सकता है। मन को बहलाने के लिए किसी मनोरम स्थान पर घूमने जा सकता है। इन सबसे बढ़कर वह अपनी रुचि की पुस्तकें पढ़ सकता है। ईश्वर की आराधना में अपना ध्यान लगा सकता है। इस तरह करने से कुछ समय बाद इस खालीपन के स्थान पर आनन्द का अनुभव होने लगेगा। </div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-91172273022434760682020-10-19T19:22:00.001-07:002020-10-19T19:22:22.315-07:00जीवन चलने का नाम<div>जीवन चलने का नाम</div><div><br></div><div>मनुष्य का जीवन जब तक चलता रहता है, तभी तक उसमें जीवन्तता रहती है। इससे मनुष्य में कार्य करने का उत्साह एवं स्फूर्ति बनी रहती है। मानव जीवन की सफलता का मार्ग है, सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। उसके लिए मनुष्य को जागृत होकर निरन्तर आगे बढ़ना होता है। अपने भाग्य का मालिक मनुष्य स्वयं है, वह इसे बना सकता है। जब वह उठ खड़ा होता है, तो उसका भाग्य भी उन्नत होता है। </div><div> जब यह जीवन किसी कारण से निराश होकर अथवा हताश होकर चलने से इन्कार कर देता है या बैठ जाता है, तब यह जीवन मृतप्रायः हो जाता है। जब एक मनुष्य निष्क्रिय, आलसी और एक प्रकार से सोया हुआ होता है, तब उसकी सफलता को ग्रहण लग जाता है। यदि मनुष्य केवल बैठा रहता है, तो उसका भाग्य भी निष्क्रिय हो जाता है। मनुष्य के सो जाने पर उसका भाग्य भी सो जाता है।</div><div> 'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है- 'चरैवेति चरैवेति।' अर्थात् मनुष्य को सदा चलते रहना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि सारी प्रकृति गतिशील है। वह अपने निश्चित समय पर बदलती है। सूर्य सभी के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत है। वह कभी निष्क्रिय नहीं बैठता, न ही वह आराम करता है और न ही सोता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने कार्य बिना किसी के कहे कुशलतापूर्वक करता है।</div><div> नदी प्रवहमान रहती है, तो उसका जल शुद्ध और पीने योग्य होता है। यदि वह रुक जाए, तो उसका जल कीचड़युक्त हो जाता है। उसमें से दुर्गन्ध भी आने लगती है। इसी प्रकार वायु निरन्तर बहती रहती है, इसीलिए वह जीवों की प्राणशक्ति है। यदि वायु दूषित हो जाए, तो रोगों का कारण बन जाती है। इसी प्रकार सभी ग्रह-नक्षत्र अपने नियम से चलते रहते हैं, उनमें कहीं कोई रुकावट नहीं होती।</div><div> मनुष्य एक बच्चे के रूप में जन्म लेता है। फिर अपने विकास के क्रम को पूर्ण करता हुआ अन्त में मृत्यु के आगोश में समा जाता है। मृत्यु जीवन का अन्त नहीं होती, अपितु नवजीवन का आरम्भ होती है। जीवन का यह क्रम अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार एक बीज क्रमानुसार वृक्ष बन जाता है। तब वह जीवों को छाया और फल देता है। इस क्रम में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।</div><div> अनुकूल या प्रतिकूल हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही आगे बढ़ते रहने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर मनुष्य अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। जो बीत गया सो बीत गया, उसकी चिन्ता छोड़कर शेष बचे हुए जीवन के विषय में ही मनुष्य को विचार करना चाहिए। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं और रेस में आगे भागते हुए जीत जाते हैं। जो मनुष्य भागता है, उसी को ही लक्ष्य मिलने की सम्भावना होती है।</div><div> जंगल का राजा शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक उसे भोजन प्राप्त नहीं होता। अपने आप तो कोई पशु उसके मुँह में आहार बनने के लिए नहीं चला जाता। इसी प्रकार भोजन की थाली चाहे मनुष्य के सामने क्यों न पड़ी रहे, जब तक वह स्वयं ग्रास तोड़कर मुँह में नहीं डालता, तब तक वह उस स्वादिष्ट भोजन का आनन्द नहीं ले सकता।</div><div> मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करना है। उसे सदाचार और अनुग्रह करना चाहिए। शुभकर्म करना सन्तोषप्रद होता है। भाग्य को केवल आलसी और कामचोर लोग कोसा करते हैं। पुरुषार्थी व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। जो जो ईश्वर पर विश्वास रखकर कर्म और पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें सफलता मिल जाती है। संसार का बनना-बिगड़ना सब ईश्वर के ही आधीन है। </div><div> इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को अपने जीवन में अनवरत चलते रहना होता है। अपने जीवन का निर्माण वह कर्म करके करता है। उसे किसी भी शर्त पर थक-हारकर या निराश होकर नहीं बैठना है, ऐसा करके वह रोगों का घर बन जाता है। वह जितना परिश्रम करता है, उतना ही सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है। अतः अपने स्वर्णिम भविष्य के लिए चलते जाना है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-8705890507267396292020-10-18T19:22:00.001-07:002020-10-18T19:22:01.308-07:00चार लोग क्या कहेंगे?<div> चार लोग क्या कहेंगे?</div><div><br></div><div>उन चार लोगों का बहुत शिद्दत से इन्तजार है, जो हम सबके जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। मनुष्य को हर समय उनसे डर-डरकर जीना पड़ता है। उनकी नाराजगी की परवाह करनी पड़ती है। यह बात आज तक समझ में नहीं आ पाई कि मनुष्य अपने सारे जीवन में उनकी ओर आस लगाकर क्यों देखता है? ये चार लोग हौव्वा बनकर उसके सिर पर सवार रहते हैं। उनसे बचने का कोई रास्ता उसके पास नहीं है।</div><div> ये चार लोग आखिर कौन से हैं? जो देखेंगे तो क्या कहेंगे? सुनेंगे तो क्या सोचेंगे? उन्हें सबके जीवन में ताक झाँक करने का अधिकार किसने दिया? ये चार लोग क्या इतने शक्तिशाली हैं, जो सबके जीवन को प्रभावित करते हैं? मनुष्य क्यों सोचे कि लोग क्या कहेंगे? ये लोग क्यों दूसरों की जिन्दगी में हस्तक्षेप करते रहते हैं? ये कुछ प्रश्न हैं, जिनके उत्तर खोजे जाने आवश्यक हैं।</div><div> मम्मी हमेशा कहती है, बेटी है हर जिद पूरी मत करो, चार लोग क्या कहेंगे? लड़की जात है, ऐसे शहर से बाहर अकेले भेजेंगे तो चार लोग क्या सोचेंगे? बेटी का जोर से हँसना उन्हें परेशान करता है, वे कहती हैं कि अच्छे घरों की बेटियाँ ऐसे नहीं हँसती। कोई सुन लेगा तो चार लोग बातें करेेंगे। घर के पास वाले कॉलेज से ही पढ़ाई करेगी, तो घर के काम-काज सीख लेगी। इतनी दूर दूसरे शहर पढ़ने भेजा तो चार लोग क्या कहेंगेंं?</div><div> घर-परिवार में यदा कदा झगड़े हो ही जाते हैं। पति-पत्नी का, पिता-पुत्र का, माता-बेटी का, सास-बहू का, भाई-भाई का यानी किसी का झगड़ा किसी भी बात पर हो सकता है। तब यही कहा जाता है, कि चार लोग घर में मनमुटाव की बात सुनेंगे तो क्या कहेंगे? इसी प्रकार यदि कोई सदस्य ऊँचा बोलता है, तब भी यही कहा जाता है कि धीरे बोलो कोई सुन लेगा, तो चार लोग बात बनाएँगे।</div><div> हम सभी बचपन से ही ये वाक्य सुनते आए हैं कि ऐसा मत करो चार लोग बातें करेंगे, ऐसे कपड़े मत पहनों, कोई देखेगा तो चार लोग क्या कहेंगे और हमें अभी तक पता नहीं लग पाया कि वो चार लोग कौन से हैं? यदि माँ से पूछा जाए कि ये चार लोग कौन हैं? जो हमारे हर काम में दखल देते हैं। तो उन्हें भी नहीं पता होगा। ब्रह्मवाक्य की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी यह वाक्य बोला जाता है। </div><div> मनुष्य को अपने जीवन के निर्णय स्वयं ही लेने आना चाहिए। उसे अपने ही सपनो को पहचानना आना चाहिए। उसे उन सपनों के सच होने की उम्मीद को अवश्य ही मजबूती देनी चाहिए। बिना यह सोचे कि लोग क्या सोचेंगे या क्या कहेंगे? मनुष्य को अपनी जिन्दगी, अपने तरीके से जीना आना चाहिए। उसे किसी भी कार्य के लिए दूसरों का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। </div><div> हमारे समाज के अधिकतर लोग इन चार लोगों के चक्कर में अपने जीवन के जरूरी निर्णय समाज और परिस्थितियों के भरोसे ले रहे हैं। उन्हें अपने बूते पर जीवन चलाने की क्षमता होनी चाहिए। उन्हें किसी का मुँह नहीं देखना चाहिए। यदि वे हर कदम पर दूसरों की परवाह करते रहेंगे, तो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकेंगे। हर मनुष्य की प्राथमिकता उसके जीवन की सफलता होनी चाहिए।</div><div> ये चार लोग वास्तव में मनुष्य के बेहद करीबी तथा शुभचिन्तक होते हैं। ये ही मनुष्य को जीवन की अन्तिम यात्रा के समय अपने कन्धों पर उठाकर श्मशान ले जाते हैं। ये चार लोग कोई नहीं हैं, केवल हमारे मन कि उपज है, जो हमारे अन्दर गहरे पैठ गए हैं। लोग तो कहते ही रहेंगे। उनका तो काम ही कहना है। मनुष्य जब अच्छा करता है, तब वे परेशान होते हैं और जब वह गलत करता है, तब वे हैरान हो जाते हैं। </div><div> मेरे विचार में 'चार लोग क्या कहेंगे' यह मुहावरा पूरे समाज का ही प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य पूरे समाज का नाम लेकर कोई चेतावनी नहीं दे सकता, इसलिए चार लोगों के नाम पर यह उत्तरदायित्व सौंप दिया गया है। ताकि इनसे डरकर लोग गलत कार्यों की ओर प्रवृत्त न हों। यदि विद्वज्जन को इसके अतिरिक्त कोई और अर्थ उचित प्रतीत हो रहा हो, तो वे अपने विचार रख सकते हैं।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-43438608131546208162020-10-17T19:20:00.001-07:002020-10-17T19:20:24.425-07:00धर्म का अर्थ<div>धर्म का अर्थ</div><div><br></div><div>धर्म मनुष्य को घुट्टी में पिलाया जाता है। बच्चा जब बोलने लगता है, तब माता-पिता उसे अपने इष्ट देव की स्तुति स्मरण करवाने लगते हैं। जब बच्चा उसका शुद्ध उच्चारण करते हुए उसे कण्ठस्थ कर लेता है, तो वे फूले नहीं समाते। माना यही जाता है कि धर्म दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल का कार्य करता है। विश्व का कोई भी धर्म आपस में वैमनस्यता फैलाने का कार्य नहीं करता। </div><div> धर्म के नाम पर यदि दंगे-फसाद या मारकाट होने लगे, तब इसके कारण और निवारण पर मनुष्य को अवश्य ही विचार कर लेना करना चाहिए। धर्म हर मनुष्य का बेशक व्यक्तिगत मामला होता है, परन्तु उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। यदि धर्म को हम मनुष्य का कर्त्तव्य मानते है, तो भी उसका व्यक्तिगत आचरण निस्सन्देह उसके अपनों तथा समाज पर अपना प्रभाव छोड़ता है।</div><div> 'देवी भागवत' नामक पुराण में महर्षि वेदव्यास ने कहा है-</div><div>परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।</div><div>धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकृष्टमेव च॥</div><div>अर्थात् जो धन-सम्पत्ति तथा मन की इच्छा धर्म के विपरीत हो, उसका त्याग करना चाहिए। जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है या किसी समाज के प्रतिकूल सिद्ध हो सकता है, उस धर्म में भी परिवर्तन करना आवश्यक है।</div><div> इस श्लोक में यह समझाया गया है कि धन-वैभव या कोई कामना यदि धर्म के विरुद्ध हो, तो मनुष्य को चाहिए कि वह उनका त्याग कर दे। आने वाले समय में यदि धर्म से संकट उत्पन्न होने की आशंका हो, तो उस धर्म में परिवर्तन कर देना ही श्रेयस्कर होता है। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि धर्म जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का कार्य करने लगे, तो विद्वत सभा को उस पर विचार करके, उसमें परिवर्तन कर देना चाहिए। यही मानव जाति के लिए उत्थान के लिए आवश्यक होता है।</div><div> 'मनुस्मृति:' में मनु महाराज धर्म के विषय में कहते हैं-</div><div>धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।</div><div>अर्थात् जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म रक्षा करता है। मरा हुआ धर्म हमें न मार डाले, इस भय से धर्म का त्याग कभी न करना चाहिए।</div><div> महाराज मनु के अनुसार धर्म का आशय व्यक्ति के अपने कर्त्तव्य, नैतिक नियम, आचरण आदि से है। जो व्यक्ति इन सबका ईमानदारी से पालन करता है, वह धर्म की रक्षा करने वाला होता है। प्राचीन धर्मशास्त्रों में धर्म के स्वरुप का विभिन्न रूप से वर्णन किया गया है। मनुस्मृति ग्रन्थ में सामाजिक नियमों और वर्ण व्यवस्था के अनुरूप इन सभी कर्तव्यों या नियमों को बताया गया है। </div><div> मनुस्मृति में ब्राह्मण का कर्त्तव्य क्षत्रिय से सर्वथा अलग बताया गया है, वैश्य और शूद्र के कार्य भी यहाँ अलग-अलग बताए गए हैं। इसी तरह एक स्त्री के कर्त्तव्य भी पुरुष से भिन्न कहे गए हैं। ये सब कर्तव्य धर्म और विधान से जुड़े हुए हैं, इसलिए इस विधान को चुनौती देना धर्म सम्मत नहीं कहा गया, इसे धर्म की अवमानना करना समझा जाता था। इसके लिए मनुस्मृति में दण्ड का विधान भी किया गया था।</div><div> भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भागवद्गीता' में अहिंसा को परम धर्म माना है-</div><div> अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च</div><div>इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं। परन्तु जब धर्म पर आंच आए तो यह नहीं कह सकते कि हम अहिंसक हैं, इसलिए कायर बनकर मार खाते रहेंगे। उस समय। धर्म की रक्षा करने के लिए प्रतिकार करना सबसे बड़ा धर्म होता हैं। </div><div> दूसरे शब्दों में कहें तो सदा अहिंसा का मार्ग मनुष्य को अपनाना चाहिए, परन्तु यदि उसके धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आए, तो पाण्डवों की तरह अहिंसा का मार्ग त्यागकर, डटकर शत्रु का मुकाबला करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी के परिवार को कोई हानि पहुँचता हैं, उसका उत्तर तो देना ही पड़ता है। मनुष्य का पहला कर्त्तव्य या धर्म अपने घर-परिवार, देश और समाज के हितार्थ होता है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-89325549650719049262020-10-16T19:18:00.001-07:002020-10-16T19:18:04.288-07:00आश्चर्य की बात<div>आश्चर्य की बात</div><div><br></div><div>संसार में अनेक आश्चर्यजनक प्रतिदिन घटनाएँ घटती रहती हैं। जिन्हें देखकर और सुनकर लोग उन्हें अनदेखा और अनसुना कर देते हैं। उस समय मनुष्य यही सोचता है कि उसके साथ तो अमुक घटना नहीं घटी। वह इसलिए निश्चिन्त होकर रह जाता है। इसी कड़ी में एक जीवन सत्य की आज चर्चा करते हैं। अपने आसपास नित्य प्रति कई लोगों को मृत्यु का ग्रास बनते हुए सब लोग देखते हैं। फिर भी मनुष्य अपने में ही मस्त रहता है।</div><div> महाभारत में एक प्रसंग आता हैं कि पाण्डव अपने तेरह-वर्षीय वनवास के दौरान एक वन में विचरण कर रहे थे। तब उन्होंने प्यास बुझाने के लिए एक बार पानी की तलाश की। उन्हें पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वे वहाँ पहुँचे। एक यक्ष उस जलाशय का स्वामी था। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव उस यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिए बिना ही जल पीने चाहते थे। यक्ष ने उन्हें चेतावनी दी पर वे नहीं माने, तब उसने उन्हें बेहोश कर दिया। </div><div> अन्त में युधिष्ठिर स्वयं उस तालाब पर गए। उन्होंने यक्ष के प्रश्नों के उत्तर दिए। उस समय यक्ष ने उनसे एक प्रश्न पूछा, "संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है?"</div><div> युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "हर रोज आँखों के सामने कितने ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है, यह देखते हुए भी इन्सान अमरता के सपने देखता है। यही महान आश्चर्य है।"</div><div> इस घटना का तात्पर्य यही है कि अपने सामने ही लोगों को मृत्यु के मुँह में जाते हुए देखते हैं। कुछ लोगों के संस्कार करने के लिए श्मशान घाट में भी जाते हैं। वहाँ पर कुछ समय के लिए ही मनुष्य को वैराग्य होता है, जिसे श्मशान वैराग्य कहते हैं। मनुष्य यह सोचता है कि उसका कुछ भी नहीं है। सब कुछ यहीं पर रह जाना है। मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता हैं और खाली हाथ ही इस दुनिया से विदा हो जाता है।</div><div> यह वैराग्य मनुष्य को बस वहीं खड़े रहकर होता है। ज्योंहि वह श्मशान घाट से मृतक का संस्कार करके बाहर निकलता है, उसका ज्ञान कहीं खो जाता है। वह संसार की मोह-माया में भटक जाता है। वह अपने कार्य-व्यापार में सब कुछ भूलकर मस्त हो जाता है। उसे श्मशान की और वैराग्य की सारी बातें भूल जाती हैं। वह सोचता है कि जाने वाला तो चला गया है, पर वह यहाँ से नहीं जाएगा।</div><div> मनुष्य सोचता है कि मानो वह इस संसार में अमर रहने के लिए ईश्वर से अपने लिए एक पट्टा लिखवाकर लाया है। वह इस संसार से कहीं नहीं जाने वाला। इसलिए वह दिन-रात अथक परिश्रम करके अकूत धन और वैभव का संग्रह करता है। हर प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है। किसी भी तरह सफल हो जाने की जुगत भिड़ाता है। स्वयं को सत्य सिद्ध करने के लिए वह तरह-तरह के बहाने गढ़ता रहता है। </div><div> मनुष्य तभी तक इस संसार में डेरा डालकर रह सकता है, जब तक उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसकी आयु का निर्धारण ईश्वर ने किया है। न उससे एक पल अधिक और न ही उससे क्षण भर भी कम। मनुष्य को सदा यह सत्य याद रखना चाहिए। उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सदा के लिए इस संसार में नहीं रहने वाला। एक दिन उसे यहाँ से विदा लेकर जाना ही होगा। </div><div> कबीरदास जी ने इस इस संसार की असारता के विषय में एक गीत लिखा है, जिसकी पहली पंक्ति है-</div><div> रहना नहीं देश बीराना हैं।</div><div>मनुष्य जब इस अटल सत्य को आत्मसात कर लेता है, तब वह इस संसार में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। वह मोह-माया के जाल में अनावश्यक नहीं फंसता। अपने सभी कार्यों को ईश्वर को ही समर्पित करता रहता है।</div><div> मनुष्य का जीवन पल-पल करके घटता जाता है। वैसे तो मृत्यु के लिए किसी आयु विशेष की बात नहीं होती। पर फिर भी एक पीढ़ी इस संसार से विदा लेती है, तो पीछे नई पीढ़ी तैयार रहती है। रहीम जी के दोहे में यही बात समझाई गई है-</div><div>माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।</div><div>फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥</div><div>अर्थात् माली को आते देखकर कलियाँ कहती हैं कि आज तो उसने फूल चुन लिए, पर कल हमारी भी बारी भी आएगी क्योंकि कल हम भी खिलकर फूल हो जाएँगे।</div><div> यही एक शाश्वत सत्य इस संसार के लोगों के लिए आश्चर्य का कारण है।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2950639832606308606.post-32423843576550798422020-10-15T19:16:00.001-07:002020-10-15T19:16:53.418-07:00सौतेली माँ<div>सौतेली माँ</div><div><br></div><div>मेरे विचार में माँ तो माँ होती है, चाहे वह अपनी सगी हो या सौतेली। मुझे दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। सौतेली माँ वह होती है, जो बच्चे की अपनी जन्मदात्री सगी माँ की मृत्यु के उपरान्त पिता की पुनः शादी करने पर घर में आती है। वह भी वही सब कार्य करती है, जो बच्चे की अपनी सगी माँ किया करती थी। उन दोनों के कार्य व्यवहार में किसी तरह का कोई अन्तर नहीं होता है।</div><div> सौतेली माँ का हौवा बच्चे के कोमल मन में इस तरह बिठा दिया जाता है कि वह उससे अनजाने में घृणा करने लगता है। उसे अपना शत्रु समझने लगता है। उसके हर काम में मीनमेख निकालने लगता है। जब भी उसे अवसर मिलता है, वह उसका अपमान कर देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सौतेली माँ और बच्चे के बीच एक खाई-सी बन जाती है। इस खाई को पटना बहुत कठिन कार्य हो जाता है।</div><div> देखा जाए तो अपनी माँ भी बच्चे को गलती करने पर डाँट-डपट करती है। बहुत ज्यादा शरारत करने पर वह कभी-कभार उसकी पिटाई भी कर देती है। अनुशासन सिखाने के लिए या पढ़ने में कोताही करने पर उसे सजा भी दे देती है। बच्चे के इन्हीं दोषों के लिए यदि सौतेली माँ वैसा करती है, तो उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। यदि वह बच्चे की कमियों को अनदेखा कर दे, तो बच्चा बड़ा होकर हाथ से निकल जाता है। उस समय सारा दोष सौतेली माँ का ही माना जाता है।</div><div> कुछ लोगों को दूसरों के घर में आग लगाकर तमाशा देखने में बहुत ही आनन्द आता है। ऐसे लोग उस मासूम से बच्चे को भड़काते हैं कि उसकी सौतेली माँ है, तो वह उसके साथ बुरा व्यवहार करेगी। उधर महिला को उल्टी पट्टी पढ़ाते हैं कि सौतेला बच्चा है, वह इस तरह बत्तमीजी करेगा ही। घर के लोगों ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है। तुम्हारे खिलाफ उसे भड़काते रहते हैं। घर के अन्य सदस्य अनावश्यक लाड़ लड़ाकर उसे बेचारा बना देते हैं।</div><div> सौतेली माँ और बच्चे के बीच होने वाली कटुता के लिए घर-परिवार के लोग और आस-पड़ोस के लोग जिम्मेदार होते हैं। वे उन दोनों के बीच होने वाले सद् भाव को बनने से पहले ही बिगाड़ देते हैं। वे दूसरे के घर में सामञ्जस्य बना रहे, खुशहाली रहे यह उनको सहन नहीं होता। इसलिए वे उनके घर में दोनों को भड़काने का कार्य करते हैं। उनके आपसी वैमनस्य को हवा देते रहते हैं।</div><div> कई बच्चे इतने अधिक भावुक होते हैं कि वे अपनी माँ की किसी भी वस्तु को सौतेली माँ को छूने नहीं देते। कोई भी उसे बच्चा समझकर क्षमा नहीं करता। कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं, जो विवाह इसी शर्त पर करते हैं कि उन्हें नई पत्नी से बच्चा नहीं चाहिए। वे केवल अपने बच्चों की परवरिश के लिए शादी कर रहे हैं। ऐसे में अपने बच्चे न हों और सौतेले बच्चे अपने न बनें, तब समस्या वाकई गम्भीर हो जाती है।</div><div> सब जगह अच्छा-अच्छा ही नहीं होता। कभी कोई सौतेली माँ ऐसी भी होती है, जो सौतेले बच्चों से दुर्व्यवहार करती है। अपने बच्चों और सौतेले बच्चों में भेदभाव करती है। उनकी पढ़ाई और शादी आदि में भी एक समान व्यवहार नहीं रखती। धन और सम्पत्ति के विभाजन के समय वह अपने बच्चों को अधिक दिलवाती है। इन कारणों से भी यह सम्बन्ध हाशिए पर आ जाता है। उन दोनों के सम्बन्धों में मधुरता नहीं आ पाती।</div><div> इसी कड़ी में हम सौतेले पिता के व्यवहार पर भी चर्चा कर लेते हैं। कहीं पति और पत्नी दोनों के ही बच्चे होते हैं और कहीं केवल पत्नी के बच्चे होते हैं। सौतेले पिता का सौतेली बेटी के शोषण के समाचार हम बहुधा समाचार पत्रों में पढ़ते हैं और टी वी में देखते हैं। सौतेले बेटों के साथ भी उसका व्यवहार कुछ सामञ्जस्य पूर्ण नहीं हो पाता। बहुत बार बच्चे अपने सौतेले पिता को स्वीकार नहीं कर पाते। वहाँ उनमें फिर झगड़े की स्थिति बनी ही रहती है।</div><div> इस चर्चा का सार यही है कि सौतेली माता के साथ सभी बन्धु-बान्धवों का सौहार्दपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। घर के अन्य सदस्यों को माता और बच्चों को मिलाने वाली कड़ी बनना चाहिए, न कि उनमें दुर्भावना आने देनी चाहिए। यदि उनमें मधुर सम्बन्ध बनेंगे, तभी तो घर में सुख और शान्ति बनी रह सकेगी। अन्यथा घर में कलह-क्लेश होता रहता है। इससे घर के सभी सदस्य परेशान रहते हैं। बच्चे तो बच्चे होते हैं, सौतेली माता को अपना दायित्व समझकर उन्हें उनकी गलतियों के साथ, खुले दिल से अपनाना चाहिए।</div><div>चन्द्र प्रभा सूद</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/05814235640691670911noreply@blogger.com0