शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

श्राद्ध की उपयोगिता


आजकल पितृपक्ष यानी श्राद्ध चल रहे हैं। मैं इस विषय पर अपने कुछ विचार आप मित्रों से साँझा कर रही हूँ। इसे किसी की आलोचना न समझें। यदि मेरे विचारों से सहमत हैं तो अपने और मित्रों के साथ साँझा कीजिए शायद आने वाली पीढ़ियाँ इन सब आडम्बरों से मुक्त होने का साहस जुटा सकें।
      सामाजिक अव्यवस्था के चलते आज भारत में कुछ सन्तानें ऐसी हैं जो अपने जीवित पितरों यानी  अपने माता-पिता को दो जून भरपेट खाना चाहे न खिलाएँ, उनकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं को पूरा न करें पर उनके मरे पीछे श्राद्ध कर्म करना आवश्यकझ समझते हैं।
      सोचने की बात यह है कि श्राद्ध करने की उपयोगिता क्या है? कई ऐसे भी लोग हैं जो घर-परिवार का भरण-पोषण करने में कठिनाइयों का सामना करते हैं पर श्राद्ध के नाम पर पंडितों को खिला पिला कर दक्षिणा अवश्य देंगे। बहुत से पंडित ऐसे हैं जो पहले से ही समृद्ध हैं, उन्हें किसी दान-दक्षिणा की आवश्यकता ही नहीं है।
         हमें सबसे पहले तो यही सोचना चाहिए कि हम किसके नाम से यह सब आडम्बर कर रहे हैं? उन पितरों के लिए जो न जाने कब का नया जन्म लेकर अपना नया जीवन व्यतीत कर रहे हैं। न जाने कितने पूर्वज एकाधिक जन्म बिता चुके होंगे। ऐसी अवस्था में जब वे खाते-पीते प्रसन्नता से अपना नया जीवन यापन कर रहे हैं तो फिर उनके नाम यह आडम्बर क्यों?
        जैसा कि मैंने अभी कहा है आज प्राय: पंडितों को किसी दान की आवश्यकता नहीं है। उनके घरों में भी पढ़े-लिखे बच्चे नौकरी कर रहे हैं। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के वे नखरे करके श्राद्ध कर्म के लिए आते हैं। इनमें बहुत से शुगर आदि बिमारियों से घिरे हुए हैं जो श्राद्ध का भोजन खाने की हालत में भी नहीं हैं। उनका कहना होता है भोजन घर भिजवा दो। उनके इन नखरों से भी लोगों को समझ नहीं आती। पता नहीं हम इतने धर्मभीरू क्यों हैं कि हम चेतते नहीं हैं।
      बताइए जिन कौवों को हम अपने घर की मुँडेर पर काँव-काँव नहीं करने देना चाहते, उन्हें पूर्वज मान उन्हें भोजन खाने की मनुहार करते हैं।
       यदि सच में आप बिना किसी सामाजिक दबाव के अन्न दान करना चाहते हैं तो किसी गरीब अथवा जरूरतमंद को भोजन कराएँ। बहुत से अनाथालय हैं जहाँ जाकर उनकी आवश्यकताओं को आप उस पैसे से पूरा कर सकते हैं। इससे आपको आत्मिक संतुष्टि मिलेगी और आपके खून-पसीने से कमाए धन का सदुपयोग भी होगा।
       हमारे आदी ग्रंथों- वेदों तथा उपनिषदों में इस कर्म की कोई उल्लेख नहीं है। पता नहीं कब कुछ स्वार्थी लोगों ने धर्मभीरु भारतीयों को अपने चंगुल में फंसा दिया। हमारा कर्त्तव्य बनता है कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में तर्क की कसौटी पर परख कर निर्णय लें।
चन्द्र प्रभा सूद

श्राद्ध किसका करना चाहिए?

श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय बहुत से विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था। अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।
            कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ हैं कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हुआ, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से एक श्राद्ध भी एक है।
            कुछ समय पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
         हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कहते कि कौवों को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।
          हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।
         कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।
         किसी ने पीपल और बड़ के पौधे लगाए हैं क्या? या किसी को लगाते हुए देखा है? क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
         बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश करो परन्तु नहीं लगेगी। कारण प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गुदे को तो पचा लेता है। उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं।
        पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण अपरम्पार है। इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना पड़ेगा। यह होगा कैसे?
         मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है। इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत जरूरी है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।
         ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखो तो अपने पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।
          अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्ध विश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद

श्राद्ध किसलिए करना है?

श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय बहुत से विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था। अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।
            कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ हैं कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हुआ, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से एक श्राद्ध भी एक है।
            कुछ समय पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
         हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कहते कि कौवों को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।
          हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।
         कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।
         किसी ने पीपल और बड़ के पौधे लगाए हैं क्या? या किसी को लगाते हुए देखा है? क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
         बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश करो परन्तु नहीं लगेगी। कारण प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गुदे को तो पचा लेता है। उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं।
        पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण अपरम्पार है। इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना पड़ेगा। यह होगा कैसे?
         मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है। इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत जरूरी है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।
         ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखो तो अपने पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।
          अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्ध विश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

श्राद्ध जीवित पितरों का या मृतकों का

जीवित पितर आपके अपने घर में साक्षात् विद्यमान हैं, उनके विषय में विचार कीजिए। यदि आपको श्राद्ध करना ही है तो उन जीवितों का कीजिए। श्राद्ध का यही तो अर्थ है न कि अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक अन्न, वस्त्र, आवश्यकता की वस्तुएँ तथा धनराशि दी जाए।
        आपके घर में जो माता-पिता आपकी स्वर्ग की सीढ़ी हैं उन्हें वस्त्र दीजिए, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें धन दीजिए, उनके खानपान में कोई भी कमी न रखिए, उनके स्वास्थ्य की ओर सदा ध्यान दीजिए। यदि वे अस्वस्थ हो जाते हैं तब उनका अच्छे डाक्टर से इलाज करवाइए तभी आपका श्राद्ध करना सही मायने में सफल हो सकेगा।
          यदि जीवित पितरों की ओर से विमुख होकर मृतकों के विषय में सोचेंगे तो आपका सब किया धरा व्यर्थ हो जाएगा। जो पुण्य आप ऐसा करके कमाना चाहते हैं वह सब पाप में बदल जाएगा और आप अपयश के भागीदार बन जाएँगे। उसका कारण हैं कि आप पितरों के उपयोग में आने वाली जो भी सामग्री उन तथाकथित ब्राह्मणों के माध्यम से मृतकों को भेजना चाहते हैं, वह तो उन तक नहीं पहुँचेगी। वे ब्राह्मण तो इसी भौतिक जगत में खा-पीकर उसका उपभोग कर लेंगे।
          ब्राह्मणों के पीछे फिरते हुए लोग अपने घर में आने के लिए अनावश्यक ही उनकी मिन्नत चिरौरी करते हैं। परन्तु अपने घर में विद्यमान ब्राह्मण स्वरुप माता-पिता को दो जून का भोजन खिलाने में शायद उनके घर का बजट गड़बड़ा जाता है। इसीलिए उनको असहाय छोड़ देते हैं और स्वयं गुलजर्रे उड़ाते हैं, नित्य पार्टियों में व्यस्त रहते हैं, शापिंग में पैसा उड़ाते हैं। फिर उनके कालकवलित (मरने) होने के पश्चात दुनिया में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए लाखों रुपए बरबाद कर देते हैं और उनके नाम के पत्थर लगवाकर महान बनने का यत्न करते हैं। इस बात को हमेशा याद रखिए कि माता-पिता का तिरस्कार कर ऐसे कार्य करने वाले की लोग सिर्फ मुँह पर प्रशंसा करते है और पीठ पीछे निन्दा। 
          माफ कीजिए मैं कभी ऐसे आडम्बर में विश्वास नहीं करती। मुझे समझ में नहीं आता कि आपने किसके सामने स्वयं को सिद्ध करना है? आपका अंतस तो हमेशा ही धिक्कारता रहेगा। अगर समाज में इस बात का लौहा मनवाना है कि आप बड़े ही आज्ञाकारी हैं, श्रवण कुमार जैसे पुत्र हैं तो उनके जीवित रहते ऐसी व्यवस्था करें कि जीवन काल में उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी न रहे। इससे उनका रोम-रोम हमेशा आपको आशीर्वाद देता रहे। उनके मन को  अनजाने में भी जरा-सा कष्ट न हो।
        हमारे ऋषि-मुनियों और महान ग्रन्थों ने माता और पिता को देवता माना है। उस परमात्मा को हम मनुष्य इन भौतिक आँखों से देख नहीं सकते परन्तु ईश्वर का रूप माता-पिता हमारी नजरों के सामने रहते हैं। जो बच्चे माता और पिता की पूजा-अर्चना करते हैं अर्थात् सेवा-सुश्रुषा करते हैं उनके ऊपर ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। ऐसे बच्चों का इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

श्राद्ध का पुण्य

 किसका करना चाहिए और किसका नहीं। यह सदा से ही विवाद का विषय रहा है। पूरे विश्व में कुछ मुट्ठीभर लोग ही है जो श्राद्ध और तर्पण आदि करते हैं या इस रूढ़ि पर विश्वास करते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके प्रियजनों की सद्गति नहीं होती। मैं उन तथाकथित विद्वानों की भी चर्चा यहाँ नहीं करना चाहती, जो अपने ही स्वार्थ के कारण हम धर्मभीरु भोले-भाले भारतीयों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं और उन्हें अन्ध रूढ़ियों के गड्ढे में धकेलने का कुकर्म करते हैं।
          इसी बात को दूसरे शब्दों में कहूँ तो श्राद्ध का अर्थ है, जो दूसरे को श्रद्धापूर्वक दिया जाए। अपने जीवित माता-पिता को मनुष्य जो भी मानपूर्वक या श्रद्धा से देता है, वही श्राद्ध कहलाता है। मृत पितरों के श्राद्ध के नाम पर भण्डारे करना, पण्डितों को मनुहार करके, उनके नखरे सहकर, उन्हें जबरस्ती खिलाना और दूसरी ओर उनके जीवित रहते माता-पिता दरबदर की ठोकरें खाएँ, अन्न के एक-एक दानें के लिए तरसें, बिना उपचार के एड़ियाँ रगड़ते हुए मर जाएँ। इसे किस तरह उचित कहा जा सकता है? 
        निम्न धटना मेरे ही विचारों पर अपनी मोहर लगती है या उनकी आवृत्ति करती है। वाट्सएप पर बिना लेखक के नाम की इस घटना को, कुछ भाषागत संशोधनों के साथ आपके साथ साझा कर रही हूँ।
         दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया। उसने मुझसे कहा, "आज माँ का श्राद्ध है, माँ को लड्डू बहुत ही पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ।"
          मैं आश्चर्य में पड़ गया। अभी पाँच मिनट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मण्डी में मिला था। मैं कुछ और कहता कि उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में एक झोला लिए वहाँ आ पहुँची।
           मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा, "भले आदमी ये क्या मजाक है? माँ जी तो यह रही तेरे पास हैं।" 
          दोस्त अपनी माँ के दोनों कन्धों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, ‍"भई, बात ऐसी है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ। मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही वास्तव में सच्चा श्राद्ध है।"
        आगे उसने कहा, "माँ को मिठाई में
सफेद जामुन, आम का फल आदि पसन्द हैं। मैं वह सब उन्हें खिलाता रहता हूँ। श्रद्धालु मन्दिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं। मैं मन्दिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती जरूर जला देता हूँ। सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है, तो मैं माँ का चश्मा साफ करके देता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य माँ का चश्मा साफ करने से मनुष्य को मिलता है।"
         यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है। हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं। पण्डितों को खीर-पूरी खिलाते हैं। रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय या कौए को खिलाया भोजन ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसी को पता नहीं है।
        अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है। अपने माता-पिता को जीते-जी सारे सुख देना ही वास्तविक श्राद्ध है।
         मन को छू देने वाली इस चर्चा को सभी सुधीजनों के समक्ष रखने के लोभ को मैं संवरण नहीं कर सकी। मेरा मानना भी यही है कि मन्दिर में जाकर मूर्तियों के आगे माथा रगड़ने के स्थान पर यदि अपने घर में विद्यमान माता-पिता को प्रणाम किया जाए तो पुण्य के साथ-साथ उनका आशीर्वाद भी मिलता है। अपने ही घर में विद्यमान बुजुर्गों का तिरस्कार करने वालों को ईश्वर कभी क्षमा नहीं करता। इसलिए समय रहते हुए चेतकर यदि अपने जीवित पितरों यानी माता-पिता की हर छोटी-बड़ी इच्छा को मन से पूर्ण करना, सच्चे अर्थों में उनका श्राद्ध करना कहलाता है। किसी भी मनुष्य को इस महान पुण्य को बटोरने में कभी भी जरा-सी कोताही नहीं करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

कौवा बनकर श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा

सालों पहले मरे पितर खीर कैसे खायेगे?

महापुरुष जो भी समाज सुधार के कार्य करते हैं, उन्हें उस समय समझ पाना शायद कठिन कार्य होता है। तत्कालीन समाज उन्हें विद्रोही की संज्ञा से अभिहित करता है। आने वाले युगों में उन कार्यों का मूल्यांकन जब किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि उनके जीवन का सार क्या था? अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने इन कार्यों के लिए कितना विरोध झेला होगा? फिर भी वे चट्टान की भाँति बिना डरे अडिग रहते रहे हैं। समाज की कठोर आलोचना से निर्लिप्त रहकर अपने उद्देश्य से वे कभी नहीं भटके।
           कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का मैं यहाँ जिक्र करना चाहती हूँ। यह घटना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक बार गुरु रामानन्द जी ने कबीरदास से कहा, "कबीर, आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिए खीर बनानी है। जाओ खीर के लिये दूध ले आओ?"
       कबीर उस समय केवल नौ वर्ष के थे। वे दूध का बर्तन लेकर चल पडे। चलते-चलते उन्हें एक मरी हुई गाय दिखाई दी। कबीर ने आसपास से घास उखाड कर, गाय के खाने के लिए डाल दी और वहीं पर बैठ गए। दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।
       काफी देर हो गयी कबीर लौटे नहीं तो गुरु रामानन्द ने सोचा पितरों को खिलाने का समय हो गया है। रामानन्द जी दूध लेने खुद ही चल पड़े। उन्होंने देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखकर बैठे हुए हैं।
         गुरु रामानन्द जी बोले, "अरे कबीर तू दूध लेने नही गया?"
        कबीर बोले, "स्वामी जी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।"
        रामानन्द ने कहा, "अरे मूर्ख, ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी?"
        कबीर ने उत्तर दिया, "स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी हुई गाय घास नही खा सकती तो आपके सालों पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे?"
        यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये। उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया। कबीरदास जी का मानना है कि घर पर जो भी जीवित बुजुर्ग हैं, सदा उनकी सेवा करनी चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध करना कहलाता है। उनके परलोक सिधार जाने के पश्चात कितना भी प्रदर्शन क्यों न कर लिए जाएँ, वे सब व्यर्थ होते हैं। जीवित पितरों को जो श्रद्धापूर्वक समर्पित किया जाता है, उसी का जीवन में महत्त्व होता है, समाज में अपनी नाक ऊँची करने वाले शेष सब कार्य आडम्बर कहलाते हैं।
        सन्त कबीर जी ने इस विषय पर बहुत ही बेबाकी से, बिना किसी के प्रभाव में आए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं-
माटी का एक नाग बना के पूजे लोग लुगाया।
जिन्दा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।।
जिन्दा बाप कोई न पूजे मरे बाद पुजवाया।
मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।।
यह दुनिया कितनी बावरी हैं जो पत्थर पूजे जाय।
घर की चकिया कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।।
अर्थात् मिट्टी का नाग बनाकर नागपंचमी के दिन स्त्री, पुरुष सब उसकी पूजा करते हैं। परन्तु यदि जिन्दा साँप घर में निकल आए तो लाठी लेकर उसे धमकाते हैं, घर से बाहर निकलकर चैन लेते हैं। जीवित माता-पिता को लोग पूछते नहीं हैं। उनके मरने के बाद, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ करवाते हैं, ब्राह्मणों को भोजन खिलाते हैं। मुट्ठीभर यानी थोड़े से चावल लेकर कौवे को अपना बाप बनाते हैं। इस दुनिया के लोग इतने बाँवरे हैं जो पत्थर की पूजा करने जाते हैं। घर में पड़ी हुई उस चकिया को वे नहीं पूछते जिसका पीसा हुआ अन्न खाकर उस घर के सभी सदस्य पुष्ट होते हैं।
           आशा है कि सभी सुधीजन कबीरदास जी के इन विचारों को सम्मान देंगे। इन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेंगे। अनावश्यक आडम्बरों का पालन करने के स्थान पर इन रूढ़ियों को त्यागने में ही समाज का हित निहित है। आखिर कब तक हम इन थोथी रूढ़ियों के मकड़जाल में उलझे रहकर अपने वास्तविक दायित्वों से मुख मोड़कर अनजान बने रहेंगे।
           अपनी आने वाली पीढ़ी को यह संस्कार देने चाहिए कि घर में बैठे जीवित माता-पिता सबसे बड़े देवता हैं। उनकी सभी सुख-सुविधाओं के ध्यान रखना चाहिए। उनके लिए जो भी करने है, उनके जीते जी कर लो। उनके दुनिया से विदा हो जाने के पश्चात जो भी किया जाता है, वह उनके किसी काम नहीं आता। मन का कोई कोना अवश्य रीता रह जाता है कि काश उनके जीते जी कुछ कर लिया होता। समय रहते अपने दायित्वों को समझने में ही भला है।
चन्द्र प्रभा सूद

सालों पहले मरे पितर खीर कैसे खाएंगे?

महापुरुष जो भी समाज सुधार के कार्य करते हैं, उन्हें उस समय समझ पाना शायद कठिन कार्य होता है। तत्कालीन समाज उन्हें विद्रोही की संज्ञा से अभिहित करता है। आने वाले युगों में उन कार्यों का मूल्यांकन जब किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि उनके जीवन का सार क्या था? अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने इन कार्यों के लिए कितना विरोध झेला होगा? फिर भी वे चट्टान की भाँति बिना डरे अडिग रहते रहे हैं। समाज की कठोर आलोचना से निर्लिप्त रहकर अपने उद्देश्य से वे कभी नहीं भटके।
           कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का मैं यहाँ जिक्र करना चाहती हूँ। यह घटना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक बार गुरु रामानन्द जी ने कबीरदास से कहा, "कबीर, आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिए खीर बनानी है। जाओ खीर के लिये दूध ले आओ?"
       कबीर उस समय केवल नौ वर्ष के थे। वे दूध का बर्तन लेकर चल पडे। चलते-चलते उन्हें एक मरी हुई गाय दिखाई दी। कबीर ने आसपास से घास उखाड कर, गाय के खाने के लिए डाल दी और वहीं पर बैठ गए। दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।
       काफी देर हो गयी कबीर लौटे नहीं तो गुरु रामानन्द ने सोचा पितरों को खिलाने का समय हो गया है। रामानन्द जी दूध लेने खुद ही चल पड़े। उन्होंने देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखकर बैठे हुए हैं।
         गुरु रामानन्द जी बोले, "अरे कबीर तू दूध लेने नही गया?"
        कबीर बोले, "स्वामी जी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।"
        रामानन्द ने कहा, "अरे मूर्ख, ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी?"
        कबीर ने उत्तर दिया, "स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी हुई गाय घास नही खा सकती तो आपके सालों पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे?"
        यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये। उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया। कबीरदास जी का मानना है कि घर पर जो भी जीवित बुजुर्ग हैं, सदा उनकी सेवा करनी चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध करना कहलाता है। उनके परलोक सिधार जाने के पश्चात कितना भी प्रदर्शन क्यों न कर लिए जाएँ, वे सब व्यर्थ होते हैं। जीवित पितरों को जो श्रद्धापूर्वक समर्पित किया जाता है, उसी का जीवन में महत्त्व होता है, समाज में अपनी नाक ऊँची करने वाले शेष सब कार्य आडम्बर कहलाते हैं।
        सन्त कबीर जी ने इस विषय पर बहुत ही बेबाकी से, बिना किसी के प्रभाव में आए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं-
माटी का एक नाग बना के पूजे लोग लुगाया।
जिन्दा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।।
जिन्दा बाप कोई न पूजे मरे बाद पुजवाया।
मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।।
यह दुनिया कितनी बावरी हैं जो पत्थर पूजे जाय।
घर की चकिया कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।।
अर्थात् मिट्टी का नाग बनाकर नागपंचमी के दिन स्त्री, पुरुष सब उसकी पूजा करते हैं। परन्तु यदि जिन्दा साँप घर में निकल आए तो लाठी लेकर उसे धमकाते हैं, घर से बाहर निकलकर चैन लेते हैं। जीवित माता-पिता को लोग पूछते नहीं हैं। उनके मरने के बाद, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ करवाते हैं, ब्राह्मणों को भोजन खिलाते हैं। मुट्ठीभर यानी थोड़े से चावल लेकर कौवे को अपना बाप बनाते हैं। इस दुनिया के लोग इतने बाँवरे हैं जो पत्थर की पूजा करने जाते हैं। घर में पड़ी हुई उस चकिया को वे नहीं पूछते जिसका पीसा हुआ अन्न खाकर उस घर के सभी सदस्य पुष्ट होते हैं।
           आशा है कि सभी सुधीजन कबीरदास जी के इन विचारों को सम्मान देंगे। इन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेंगे। अनावश्यक आडम्बरों का पालन करने के स्थान पर इन रूढ़ियों को त्यागने में ही समाज का हित निहित है। आखिर कब तक हम इन थोथी रूढ़ियों के मकड़जाल में उलझे रहकर अपने वास्तविक दायित्वों से मुख मोड़कर अनजान बने रहेंगे।
           अपनी आने वाली पीढ़ी को यह संस्कार देने चाहिए कि घर में बैठे जीवित माता-पिता सबसे बड़े देवता हैं। उनकी सभी सुख-सुविधाओं के ध्यान रखना चाहिए। उनके लिए जो भी करने है, उनके जीते जी कर लो। उनके दुनिया से विदा हो जाने के पश्चात जो भी किया जाता है, वह उनके किसी काम नहीं आता। मन का कोई कोना अवश्य रीता रह जाता है कि काश उनके जीते जी कुछ कर लिया होता। समय रहते अपने दायित्वों को समझने में ही भला है।
चन्द्र प्रभा सूद