आजकल पितृपक्ष यानी श्राद्ध चल रहे हैं। मैं इस विषय पर अपने कुछ विचार आप मित्रों से साँझा कर रही हूँ। इसे किसी की आलोचना न समझें। यदि मेरे विचारों से सहमत हैं तो अपने और मित्रों के साथ साँझा कीजिए शायद आने वाली पीढ़ियाँ इन सब आडम्बरों से मुक्त होने का साहस जुटा सकें।
सामाजिक अव्यवस्था के चलते आज भारत में कुछ सन्तानें ऐसी हैं जो अपने जीवित पितरों यानी अपने माता-पिता को दो जून भरपेट खाना चाहे न खिलाएँ, उनकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं को पूरा न करें पर उनके मरे पीछे श्राद्ध कर्म करना आवश्यकझ समझते हैं।
सोचने की बात यह है कि श्राद्ध करने की उपयोगिता क्या है? कई ऐसे भी लोग हैं जो घर-परिवार का भरण-पोषण करने में कठिनाइयों का सामना करते हैं पर श्राद्ध के नाम पर पंडितों को खिला पिला कर दक्षिणा अवश्य देंगे। बहुत से पंडित ऐसे हैं जो पहले से ही समृद्ध हैं, उन्हें किसी दान-दक्षिणा की आवश्यकता ही नहीं है।
हमें सबसे पहले तो यही सोचना चाहिए कि हम किसके नाम से यह सब आडम्बर कर रहे हैं? उन पितरों के लिए जो न जाने कब का नया जन्म लेकर अपना नया जीवन व्यतीत कर रहे हैं। न जाने कितने पूर्वज एकाधिक जन्म बिता चुके होंगे। ऐसी अवस्था में जब वे खाते-पीते प्रसन्नता से अपना नया जीवन यापन कर रहे हैं तो फिर उनके नाम यह आडम्बर क्यों?
जैसा कि मैंने अभी कहा है आज प्राय: पंडितों को किसी दान की आवश्यकता नहीं है। उनके घरों में भी पढ़े-लिखे बच्चे नौकरी कर रहे हैं। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के वे नखरे करके श्राद्ध कर्म के लिए आते हैं। इनमें बहुत से शुगर आदि बिमारियों से घिरे हुए हैं जो श्राद्ध का भोजन खाने की हालत में भी नहीं हैं। उनका कहना होता है भोजन घर भिजवा दो। उनके इन नखरों से भी लोगों को समझ नहीं आती। पता नहीं हम इतने धर्मभीरू क्यों हैं कि हम चेतते नहीं हैं।
बताइए जिन कौवों को हम अपने घर की मुँडेर पर काँव-काँव नहीं करने देना चाहते, उन्हें पूर्वज मान उन्हें भोजन खाने की मनुहार करते हैं।
यदि सच में आप बिना किसी सामाजिक दबाव के अन्न दान करना चाहते हैं तो किसी गरीब अथवा जरूरतमंद को भोजन कराएँ। बहुत से अनाथालय हैं जहाँ जाकर उनकी आवश्यकताओं को आप उस पैसे से पूरा कर सकते हैं। इससे आपको आत्मिक संतुष्टि मिलेगी और आपके खून-पसीने से कमाए धन का सदुपयोग भी होगा।
हमारे आदी ग्रंथों- वेदों तथा उपनिषदों में इस कर्म की कोई उल्लेख नहीं है। पता नहीं कब कुछ स्वार्थी लोगों ने धर्मभीरु भारतीयों को अपने चंगुल में फंसा दिया। हमारा कर्त्तव्य बनता है कि इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में तर्क की कसौटी पर परख कर निर्णय लें।
चन्द्र प्रभा सूद