रुचिकर सुनने की चाहत
हमें जो रुचिकर लगता है वही हम सुनना चाहते हैं। हम यह कदापि नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति हमारी आलोचना करे। इसे हम एक इन्सानी कमजोरी कह सकते हैं कि मनुष्य अपने प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति का भी हस्तक्षेप अपने किसी भी मामले में पसन्द नहीं करता। उस समय उसे ऐसा लगता है कि कोई दूसरा व्यक्ति अनावश्यक ही हमारी स्वतन्त्रता में बाधक बन रहा है। यह बात हमें किसी भी तरह से सह्य नहीं होती। तब हम उस व्यक्ति की शक्ल भी नहीं देखना चाहते।
मनुष्य स्वयं चाहे दूसरों पर कितनी ही छींटाकशी क्यों न कर ले, उन्हें भला-बुरा कह ले परन्तु जब उसकी बारी आती है तो वह क्रोधित हो जाता है। वह सोचता है कि फलाँ व्यक्ति की हिम्मत कैसे हुई कि उसका विरोध करे? अपने विरोधियों को वह गाली-गलौज करता है। उन्हें पानी पी-पीकर कोसता है। ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता कि जो अच्छा है, मीठा है वह सब हमारे हिस्से में आएगा और जो कटु है, कड़वा है वह दूसरे के हिस्से में रहेगा। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं-
बिना आईने के मनुष्य अपना चेहरा
नहीं देख सकता।
अर्थात् अपनी असलियत जानने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है।
हमें तो लोगों के वही विचार अच्छे लगते हैं जिनसे हमारी प्रशंसा होती हो। इसी प्रकार वहीं व्यक्ति अच्छा लगता है जो हमारे लिए अच्छी-अच्छी बातें कहे। हमारी सोच रही होती है कि घर-परिवार में, भाई-बन्धुओं में और समाज में हमारा कोई भी विरोध करने वाला न हो। सभी लोग हमारी प्रशस्ति में कसीदे पढ़ते रहें। हमारे अन्दर जो भी बुराइयाँ हैं, उन्हें अनदेखा करके सब लोग केवल हमारी अच्छाइयों के प्रशंसक बनें। यह प्रशंसा चाहे दूसरे लोग स्वार्थवश चापलूसी ही क्यों न हो।
इस सबको सोचने में, कल्पना करने में बहुत आनन्द आता है। परन्तु यदि हम इसे वास्तविकता के धरातल पर देख सकें तो कह सकते हैं कि यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता। प्रत्येक मनुष्य में अच्छाई और बुराई दोनों का समावेश होता है। यदि मनुष्य में बुराई न हो तो वह देवतुल्य बन जाएगा। इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार का लिया जाए, उतना ही मनुष्य के लिए अच्छा हो जाएगा। तब उसे अपनी अच्छाइयों को संवारने और बुराइयों को दूर करने में महारत हासिल हो जाएगी।
हम भगवान तो हैं नहीं कि हममें कोई बुराई नहीं होगी। हम इन्सान हैं, गलतियाँ करना हमारा स्वभाव है। हम समय-समय पर गलतियाँ करते रहते हैं और फिर बार-बार उसके लिए क्षमा याचना करते हैं। जब हम पूर्ण नहीं हैं तो हमारी आलोचना होना भी स्वाभाविक है। हम इस समस्या से कभी बच नहीं सकते। ईश्वर जो पूर्ण है, हम लोग उस पर भी दोषारोपण करने से नहीं चूकते तो फिर दूसरों से यह आशा किस प्रकार रख सकते हैं कि हमारी मूर्खताओं के बावजूद भी वे हमें अपमानित नहीं करेंगे।
अपनी टीका-टिप्पणी होने पर मनुष्य को कभी घबराना नहीं चाहिए। विपरीत परिस्थिति होने पर उसे सदैव डटकर सामना करना चाहिए, अपने आलोचकों को सम्मान देना चाहिए। ये वही लोग हैं जो उसकी कमियों को चुन-चुनकर दूर करने में उसकी सहायता करते हैं। यदि मनुष्य इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे तो वह अपने अन्दर विद्यमान कमजोरियों को नियन्त्रित करके अपने भावी जीवन को सफल बना सकता है। इन निन्दकों को कबीरदास जी ने शुभचिन्तक कहा है-
निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी-साबुन बिना निर्मल करे सुभाय॥
अर्थात् इस दोहे में कबीर दास यह समझा रहे हैं कि जो व्यक्ति आपकी निन्दा करता है, जो व्यक्ति हर समय आपके भीतर कमियॉं तलाशता है, उसे हमेशा अपने पास रखना चाहिए। क्योंकि एक वही है जो बिना साबुन या बिना पानी के आपके स्वभाव को निर्मल बना सकता है। आपके भीतर की हर कमी को दूर कर सकता है।
वास्तव में निन्दक लोग मनुष्य के अन्तस के दोषों को दूर करने में सहायक होते हैं। इसलिए इनसे घृणा करने के बजाय उन्हें अपना हितैषी मानना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा सोच ले तो उसे अपनी निन्दा होने पर दुख नहीं होगा बल्कि उसे उन सब लोगों की तुच्छ मानसिकता के विषय में सोचकर कष्ट होगा जो अपना मूल्यवान समय अनावश्यक ही दूसरों की बुराई करने में बर्बाद करते हैं। तब अपनी प्रशंसा सुनकर उसे न तो प्रसन्नता होगी और न ही अपनी निन्दा सुनकर वह कभी विचलित होगा।
वास्तव में अक्सर हम उन लोगों की कम्पनी में रहना पसन्द करते हैं जो हमारे प्रिय होते हैं जो हमारी तारीफ करते हैं या हमारे भीतर सिर्फ गुणों को ही खोजते हैं। अपने प्रति हुए ऐसे व्यवहार पर हम लोग आनन्दित रहते हैं। अपनी आलोचना की चिन्ता किए बिना, उससे सदा ही प्रेरणा लेकर हम नित्य ही उन्नति के शिखर पर पहुँच सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद