किसका करना चाहिए और किसका नहीं। यह सदा से ही विवाद का विषय रहा है। पूरे विश्व में कुछ मुट्ठीभर लोग ही है जो श्राद्ध और तर्पण आदि करते हैं या इस रूढ़ि पर विश्वास करते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके प्रियजनों की सद्गति नहीं होती। मैं उन तथाकथित विद्वानों की भी चर्चा यहाँ नहीं करना चाहती, जो अपने ही स्वार्थ के कारण हम धर्मभीरु भोले-भाले भारतीयों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं और उन्हें अन्ध रूढ़ियों के गड्ढे में धकेलने का कुकर्म करते हैं।
इसी बात को दूसरे शब्दों में कहूँ तो श्राद्ध का अर्थ है, जो दूसरे को श्रद्धापूर्वक दिया जाए। अपने जीवित माता-पिता को मनुष्य जो भी मानपूर्वक या श्रद्धा से देता है, वही श्राद्ध कहलाता है। मृत पितरों के श्राद्ध के नाम पर भण्डारे करना, पण्डितों को मनुहार करके, उनके नखरे सहकर, उन्हें जबरस्ती खिलाना और दूसरी ओर उनके जीवित रहते माता-पिता दरबदर की ठोकरें खाएँ, अन्न के एक-एक दानें के लिए तरसें, बिना उपचार के एड़ियाँ रगड़ते हुए मर जाएँ। इसे किस तरह उचित कहा जा सकता है?
निम्न धटना मेरे ही विचारों पर अपनी मोहर लगती है या उनकी आवृत्ति करती है। वाट्सएप पर बिना लेखक के नाम की इस घटना को, कुछ भाषागत संशोधनों के साथ आपके साथ साझा कर रही हूँ।
दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया। उसने मुझसे कहा, "आज माँ का श्राद्ध है, माँ को लड्डू बहुत ही पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ।"
मैं आश्चर्य में पड़ गया। अभी पाँच मिनट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मण्डी में मिला था। मैं कुछ और कहता कि उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में एक झोला लिए वहाँ आ पहुँची।
मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा, "भले आदमी ये क्या मजाक है? माँ जी तो यह रही तेरे पास हैं।"
दोस्त अपनी माँ के दोनों कन्धों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, "भई, बात ऐसी है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ। मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही वास्तव में सच्चा श्राद्ध है।"
आगे उसने कहा, "माँ को मिठाई में
सफेद जामुन, आम का फल आदि पसन्द हैं। मैं वह सब उन्हें खिलाता रहता हूँ। श्रद्धालु मन्दिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं। मैं मन्दिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती जरूर जला देता हूँ। सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है, तो मैं माँ का चश्मा साफ करके देता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य माँ का चश्मा साफ करने से मनुष्य को मिलता है।"
यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है। हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं। पण्डितों को खीर-पूरी खिलाते हैं। रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय या कौए को खिलाया भोजन ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसी को पता नहीं है।
अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है। अपने माता-पिता को जीते-जी सारे सुख देना ही वास्तविक श्राद्ध है।
मन को छू देने वाली इस चर्चा को सभी सुधीजनों के समक्ष रखने के लोभ को मैं संवरण नहीं कर सकी। मेरा मानना भी यही है कि मन्दिर में जाकर मूर्तियों के आगे माथा रगड़ने के स्थान पर यदि अपने घर में विद्यमान माता-पिता को प्रणाम किया जाए तो पुण्य के साथ-साथ उनका आशीर्वाद भी मिलता है। अपने ही घर में विद्यमान बुजुर्गों का तिरस्कार करने वालों को ईश्वर कभी क्षमा नहीं करता। इसलिए समय रहते हुए चेतकर यदि अपने जीवित पितरों यानी माता-पिता की हर छोटी-बड़ी इच्छा को मन से पूर्ण करना, सच्चे अर्थों में उनका श्राद्ध करना कहलाता है। किसी भी मनुष्य को इस महान पुण्य को बटोरने में कभी भी जरा-सी कोताही नहीं करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
तथ्य परक लेख साधु वाद...
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