शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

सुख का मूलमन्त्र जानो

मेरा मन होता है
व्यथित यूँ ही सदा
देखकर इस दुनिया के
दिखावे वाला अनोखा व्यवहार पाकर।

अनावश्यक ही
बना लिया है मैंने
एक संकुचित दायरा
अपने इर्द-गिर्द चारों ओर अनजाने ही।

हर समय बस
यही सोचती रहती
नहीं कोई साथी अपना
सब झूठ का व्यापार हो रहा जग में।

मन से नहीं है
चाहता किसी को
कोई भी इस दुनिया में
दिलों में शेष केवल दिखावा है बचा।

अपना-अपना
हित साधकर बस
सब हो जाते हैं ओझल
बचते हैं केवल अवशेष उन यादों के।

फिर मैंने सोचा
अपने ही मन की
गहराई से तो पाया
कितनी मूर्खतापूर्ण थी मेरी यह सोच।

सभी लोगों को
एक ही तराजू से
तौल लेने की भूल मैं
क्योंकर कर बैठी हूँ यूँ अनजाने ही।

यदि सब होते
स्वार्थी इस जग में
तो दिखाई देती दुनिया
पराई-सी, हैरान-सी, अपने में खोई-सी।

नहीं, ऐसा नहीं
दूसरों के लिए जीते
हित साधते महान जन
हर ओर न दिखाई देते पीड़ा हरते हुए।

मै अपनी इस
संकुचित सोच
पे हँस पड़ी आप ही
जाने क्या अनाप-शनाप विचार बैठी।

सबको सुनो
देखो, परखो पर
करो अपने मन की
यदि सुख का मूलमन्त्र जानना चाहो।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

मर्यादा का पालन

स्त्री हो या पुरुष मर्यादा का पालन करना सबके लिए आवश्यक होता है। घर-परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों और सेवक आदि सबको अपनी-अपनी मर्यादा में रहना होता है। यदि मर्यादा का पालन न किया जाए तो बवाल उठ खड़ा होता है, तूफान आ जाता है।
        मर्यादा शब्द भगवान श्रीराम के साथ जुड़ा हुआ है। संसार उन्हें आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर पुकारता है क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में सभी मर्यादाओं का पालन किया।
        बच्चे यदि अपनी मर्यादा में न रहें और अनुशासन हीन हो जाएँ, अपने से बड़ों का सम्मान न करें, अपने भाई और बहनों के साथ दुर्व्यवहार करें, मित्रों के साथ अभद्रता करें, जरा-सा क्रोध आने पर घर में तोड़फोड़ करें, हर किसी के साथ बदतमीजी करें, किसी का सम्मान न करें तो उन्हें कोई भी अच्छा बच्चा नहीं कहेगा।
        उन्हें बिगडैल बच्चों की श्रेणी में रखा जाएगा। घर-बाहर कहीं भी उन्हें प्यार और मान नहीं मिलेगा। हर ओर से वे दुत्कारे जाते हैं। कोई ऐसे उद्दण्ड बच्चों के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहता और न ही उन्हें अपने घर में देखकर किसी को प्रसन्नता होती है।
        भाई-बहन यदि अपनी मर्यादा भूल जाएँ और एक-दूसरे की भावनाओं को न समझें और परस्पर अमर्यादित व्यवहार करें तो सम्बन्धों में दरार आने लगती है। उनमें अपनेपन की भावना समाप्त हो जाती है। वे जिन्दगी भर एक-दूसरे की शक्ल देखना पसन्द नहीं करते। उनमें जीने-मरने के मानो सारे रिश्ते समाप्त हो जाते हैं।
       माता-पिता यदि परस्पर अमर्यादित व्यवहार करें यानि एक-दूसरे से झगड़ा करें, मारपीट करें अथवा बच्चों से पक्षपात करें तो उनका सम्मान उनके अपने बच्चे भी नहीं करते। ऐसे घरों के बच्चे अपने माता-पिता से घृणा करते हैं।
           कितनी ही धन-सम्पत्ति उनके पास हो वे उसका सुख नहीं भोग पाते। ऐसे घरों से सुख-शान्ति विदा हो जाती है। घर में हर समय अशान्ति का वातावरण बना रहता है। वहाँ ऐसा लगता है मानो मरघट-सी शान्ति रहती हो।
         पति-पत्नी का अमर्यादित व्यवहार घर का समूल नाश कर देता है। उन दोनों में से किसी का भी विवाहेत्तर सम्बन्ध मान्य नहीं होता। यदि किसी घर में ऐसा हो जाता है तो वहाँ पति-पत्नी में आपसी प्यार समाप्त हो जाता है। उनमें एक-दूसरे के लिए घृणा का भाव पनपने लगता है जो उन्हें एक-दूसरे से दूर कर देता है।
         इसके अतिरिक्त दोनों में से कोई एक झगड़ालू हो, अपने घर-परिवार के रिश्तों को अहमियत न दे तो भी वहाँ मनमुटाव होने लगता है। ऐसे सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं चलते। फिर उनमें अबोलापन आ जाता है। जब सहनशक्ति जवाब दे जाती है तो अन्त में उनमें अलगाव हो जाता है। यह स्थिति किसी के लिए भी कष्टदायक होती है। उनके झगड़ों में निरपराध बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
         चोरी, डकैती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, इन्सानियत का कत्ल करना आदि भी मर्यादा का पालन न करने के दुष्परिणाम हैं। इन सबसे बढ़कर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध भी मर्यादा हीनता की श्रेणी में आते हैं। ये किसी भी सभ्भ समाज के लिए ये कोड़ के समान होते हैं।
         नदी जब अपने तटबन्धों को तोड़कर मर्यादाहीन हो जाती है तो उसका नुकसान जनमानस को भुगतना पड़ता है। भयंकर बाढ़ आती है, चारों ओर जल-थल हो जाता है। गाँव के गाँव और शहर नष्ट हो जाते हैं। चारों ओर हाहाकार मच जाता है। कितनी ही धन-सम्पत्ति, जान और माल की हानि होती है।
         इसी प्रकार समुद्र जब अपनी हदों को छोड़कर पानी को बहुत ऊपर उछालने लगता है तब वहाँ बड़े-बड़े जहाज डूब जाते हैं और अनिर्वर्णनीय क्षति होती है। उसके पास विद्यमान जनमानस को भी त्रासदी झेलनी पड़ती है।
        चाहे मनुष्य हो या प्रकृति सबको अपनी मर्यादा का पालन करना होता है। जहाँ मर्यादा का उल्लंघन किया जाता है वहीं विनाश का ताण्डव होता है। इसलिए मर्यादा की सीमा रेखा को पार नहीं करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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Twitter : http//tco/86whejp

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

किसी की मुस्कुराहट पर न जाएँ

किसी व्यक्ति के हँसते-मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाना कदापि उचित नहीं है कि उसे अपने जीवन में कोई गम नहीं है। अपितु यह सोचना अधिक समीचीन होता है कि उसमें सहन करने की शक्ति दूसरों से कुछ अधिक है।
        पता नहीं अपनी कितनी मजबूरियों और परेशानियों को अपने सीने में छुपाकर वह दूसरों के चेहरे पर हँसी ला पाता है। ऐसे साहसी लोग इस दुनिया में बहुत कम मिलते हैं।
       प्रायः लोग यही सोचते हैं कि जिसके पास भी वे बैठें, वह उनके दुखों की दास्तान को दत्तचित्त होकर सुने और अपनी सहानुभूति उसके लिए प्रकट करे। उसे यह पता चलना चाहिए कि उसका वह साथी मनुष्य कितनी पीड़ा भोग रहा है।
       वह अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों से सताया हुआ है। उसे नौकरी या व्यापार में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वह धन की कमी या अस्वस्थता के कारण हताश है, जीवन से निराश है। इन सबसे बढ़कर उसे किसी अपने से सदा के लिए बिछुड़ जाने का दर्द है।
         यह सब सोचते समय मनुष्य भूल जाता है कि हर मनुष्य किसी-न-किसी पीड़ा से गुजर रहा है। किसी के पास उसके दुखों-परेशानियों पर मलहम लगाने का समय नहीं है। इस मँहगाई के चलते सभी लोग अपने जीवन की भागदौड़ में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास समय का अभाव रहता है। आज हर इन्सान को जीवन जीने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है अन्यथा वह जीवन की रेस में पिछड़ जाता है।
       अपने हिस्से के दुखों, तकलीफों और परेशानियों को मनुष्य को स्वयं ही भोगना पड़ता है। कोई भी उन्हें उसके साथ भोगते हुए साझा नहीं कर सकता। जिन लोगों को अपना हमदर्द समझता है, वह उनसे अपने दुख साझा करने का यत्न करता है।
        पहली बात तो यह है कि कोई उसकी बात को ध्यान से सुनना ही नहीं चाहता। दूसरी बात यह है कि कोई सुनता है और प्रत्यक्ष में सहानुभूति का प्रदर्शन करता है तो पीठ पीछे उसकी छिछालेदार करने का अवसर तलाशता है। नमक-मिर्च लगाकर, बढ़ा-चढ़ाकर और चटखारे लेकर उसका सबके सामने उपहास करता है। जहाँ तक हो सके अपने दुख अपनी परेशानियों को अपने हृदय में ही समा लेना चाहिए।
        यहाँ हम सर्कस के जोकर की चर्चा कर सकते हैं। वह बहुत ही सफाई से अपने जीवन की परेशानियों को अपने अंतस में दफन कर देता है। जब वह स्टेज पर आता है तो अपनी अदाओं से सबको हँसाकर लोटपोट कर देता है। किसी को भी उसके जीवन के दुखों और कष्टों का ज्ञान ही नहीं हो पाता।
      वह एक गुमनाम-सी जिन्दगी जीता हुआ जोकर सबको खुश करने का भरसक प्रयास करता है। वहाँ सर्कस में बैठे हुए वे लोग उसके मसखरेपन का आनन्द लेते हैं। वहाँ से बाहर निकलकर दो-चार मिनट उसके बारे में बात करते हैं। उसके बाद अपने-अपने कामों में व्यस्त होकर उसे भूल जाते हैं।
       जोकर की तरह यदि अपने अंतस में अपनी सारी व्यथाओं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मान लेने से किसी के सामने उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं रहती। मनुष्य स्वयं ही उन पर विचार करता हुआ बाहर निकलने का मार्ग खोज लेता है।
       मनुष्य को सदा स्मरण रखना चाहिए कि चन्द्रमा को भी अमावस्या का दंश झेलना पड़ता है। सूर्य को ताप से जलना पड़ता है। दिन को अंधेरे से मुक्त होने के लिए संघर्ष करना होता है। सोने को खरा बनने के लिए आग में तपना पड़ता है।
        संसार में हितचिन्तक बहुत कम हैं। अधिकतर लोग दूसरों का मजाक बनाते हैं। यही उनका मनोरंजन होता है। इसलिए वे ऐसे अवसर की तलाश करते रहते हैं और अपना शिकार ढूँढते ही लेते हैं। ऐसे लोगों को पहचानाने की कोशिश करनी चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो उनसे किनारा करना ही श्रेयस्कर होता है।
         सज्जनों की सगति, स्वाध्याय और ईश्वर की उपासना से मनुष्य कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी नहीं हारता। उसे अपने कष्ट भी फूल की तरह लगने लगते हैं। हँसने वाले के सभी मीत बनते हैं और बिसूरते रहने वाले से किनारा कर लेते हैं। उसे स्वयं ही भान हो जाता है कि फूलों की तरह मुस्कुराने और खुशियों की सुगन्ध चारों ओर बिखेरनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 26 सितंबर 2016

दूसरे के सहारे की बैसाखी

अपना जीवन जीने के लिए आखिर किसी दूसरे के सहारे की कल्पना करना व्यर्थ है। किसी को बैसाखी बनाकर कब तक चला जा सकता है? दूसरों का मुँह ताकने वाले को एक दिन धोखा खाकर, लड़खड़ाकर गिर जाना पड़ता है। उस समय उसके लिए सम्हलना बहुत कठिन हो जाता है।
         बचपन की बात अलग कही जा सकती है। उस समय मनुष्य सदा माता-पिता की अँगुली थामकर चलता है। वह उनके बिना एक कदम भी नहीं चल पाता। उनकी नजरों से ही बच्चा इस दुनिया को देखने और समझने की कोशिश करता है।
         बड़ा होने पर जब वह योग्य बनकर इस संसार सागर में तैरने के लायक हो जाता है, तब उसे मजबूत और स्वावलम्बी बन जाना चाहिए। उस समय मनुष्य को किसी के भी कन्धे को बैसाखी बनाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। उसे स्वावलम्बी बनकर, अपने ऊपर पूरी तरह से विश्वास रखना चाहिए।
        यह सत्य है कि लता बहुत नाजुक और कमजोर होती है। उसे किसी सहारे की आवश्यकता होती है, तभी वह फलती फूलती है। इसीलिए उसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी मजबूत वृक्ष का सहारा लेना पड़ता है।
         मनुष्य को यह बात हमेशा ही याद रखनी चाहिए कि जो बेल बड़े वृक्ष का सहारा लेकर बहु इतराती फिरती है और समझती है कि उसमेँ आकाश छूने की सामर्थ्य आ गई है तो वह गलत सोचती है। वृक्ष के कटते ही वह धड़ाम से जमीन पर औंधे मुँह गिर जाती है। फिर उसे मुँह की खानी पड़ जाती है। तब कोई उसे सहारा देने नहीं आता। उसकी सहायता नहीं कर सकता।
           परावलम्बी मनुष्य स्वयं को बहुत कमजोर समझता है। वह कभी भी अपने जीवन में सिर उठाकर नहीं चल पाता। उसे हमेशा यही लगता है कि वह अपने जीवन में अकेले या बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता। इसलिए वह ऐसे व्यक्ति की तलाश करता रहता है जो उसका सहारा बन सके और हाथ पकड़कर, थामकर आगे ले जाए। ऐसे मनुष्य को यदा कदा उसे अपमान का कड़वा घूँट पीना ही पड़ता है।
         जिसे वह अपना सब कुछ मान लेता है, जिसका मुँह ताकता है, जिसके निर्देश के बिना वह एक कदम भी नहीं चलता, वही समय आने पर उसे उसकी औकात बता देता है। उस समय वह स्वयं को बहुत ही असहाय और बौना महसूस करता है। अपनी कल्पना के विपरीत मिले आघात को सहन नहीं कर पाता।
           ऐसी दुखद स्थितियों से बचने के लिए मनुष्य में आत्मविश्वास का होना बहुत आवश्यक है। मनुष्य को यथासम्भव अपने विवेक पर भरोसा ही करना चाहिए उसे यत्नपूर्वक अपना मानसिक और आत्मिक बल बढ़ाना चाहिए। तभी वह इन दुखदायी स्थितियों से बचने में सफल हो सकता है।
         जब तक मनुष्य अपने में साहस नहीं जुटा पाता और दूसरों की ओर देखना नहीं छोड़ता, तब तक उसका हृदय चकनाचूर होता ही रहता है। उसका स्वाभिमान आहत होता रहता है। हर कोई उसे दो बात सुनाकर चल देता है। वह बेचारा बना हुआ असहाय-सा देखता रह जाता है।
          किसी का सहारा लेने वाले व्यक्ति को सहारा देने वाला धीरे-धीरे अपना गुलाम ही समझने लगता है। वह चाहता है कि उसका सहारा लेने वाला उसे खुदा समझे। उसकी हर सही-गलत बात पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाए। उसके हर कथन को ब्रह्मवाक्य माने। उसकी इच्छा से सोए, जागे और अपने सारे कार्य करे। यानी बिना मोल के अपनी गुलामी उसके नाम लिख दे।
          यदि वह उसकी इच्छा के अनुसार न चलना चाहे तो उससे सम्बन्ध विच्छेद करने की धमकी देता है। ऐसे में वह बेचारा घबराकर उसका साथ पाने के लिए उपाय करता रहता है।
         उचित यही है कि मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए। अपने अंतस की शक्ति को पहचानकर किसी का सहारा लेने से बचना चाहिए ताकि उसे जीवन में असफलता का मुँह न देखना पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 25 सितंबर 2016

बाहुबल पर भरोसा आवश्यक

मनुष्य को अपने बाहूबल पर पूरा भरोसा होना चाहिए। यदि उसे स्वयं पर विश्वास होगा तो वह किसी भी तूफान का सामना बिना डरे या बिना घबराए कर सकता है। वैसे तो ईश्वर मनुष्य को वही देता है जो उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसके भाग्य में लिखा होता है। परन्तु फिर भी जो व्यक्ति स्वयं ही अपनी शक्ति पर भरोसा करता है, ईश्वर देर-सवेर उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके मालामाल कर देता है।
          मनुष्य यदि थक-हारकर बैठ जाए अथवा रोता रहे तो न उसका भाग्य बदल सकता है और न ही उसका जीवन सफल हो सकता है। उद्यम तो उसे करना ही होता है। जिस प्रकार ताश के पत्तों से कभी घर नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार से ही अनावश्यक प्रलाप करने या शेखचिल्ली की तरह मात्र दिवास्वप्न देखने से जीवन में उन्नति नहीं की जा सकती।
          दुनिया को जीतने का हौंसला रखने वाले अपने जीवन में कभी हार नहीं मानते। वे साहसी अपने विवेक का सहारा लेते हुए शेर की तरह अकेले ही दुनिया में आगे कदम बढ़ाते रहते हैं। यद्यपि एक बार असफल हो जाने पर यह दुनिया समाप्त नहीं हो जाती और न ही कोई मनुष्य हमेशा के लिए हार जाता है। इसी प्रकार एक बार अपने जीवन में सफल हो जाने वाले को सदा के लिए ही विजयी नहीं माना जाता।
          मानव जीवन में हार-जीत अथवा सफलता-असफलता का चक्र हमेशा चलता रहता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता कि असफल हो जाने पर मनुष्य सदा के लिए जीवन की बाजी हार गया है। अथवा एक बार उसे सफलता मिल गई तो उसने जीवन में सभी ऊँचाइयों को सदा के लिए छू लिया है।
         युद्ध यदि मात्र दिखावे के लिए भी हो अथवा सफलता निश्चित हो तो कायर-से-कायर व्यक्ति भी उसे लड़कर जीत जाता है। फिर वह विजयी होने का झूठा दम्भ भर सकता है और असत्य ही सही, सिर ऊँचा उठाकर चलने का साहस कर सकता है।
          साहसी व्यक्ति वही होता है जो असफलता निश्चित होने पर भी युद्ध के मैदान में डटा रहता है, अपनी पीठ दिखाकर नहीं भागता और किसी भी परिस्थिति में वह अपने धैर्य का दामन नहीं छोड़ता।
         कहने का तात्पर्य यही है कि हारने के डर से आगे बढ़ा हुआ कदम पीछे खींच लेने वाला मनुष्य तो मानो बिना लड़े ही युद्ध हार जाता है। ऐसा कापुरुष समाज में हमेशा तिरस्कार का पात्र बनता है। कितनी भी विशेषताएँ उसमेँ विद्यमान हों फिर भी कायरता के कारण उसे सम्माननीय स्थान नहीं मिलता। हर कोई उसे हिकारत की नजर से देखता है।
        शारीरिक शक्ति के न होने पर भी जो मानसिक बल से सशक्त होते हैं वे किसी से भी भिड़ जाते हैं और सफल हो जाते हैं। शरीरिक बल हो पर व्यक्ति मन से सामना करने के लिए तैयार न हो तो सफलता सन्दिग्ध होती है। इसलिए ऋषि-मुनि ईश्वर से सदा मानसिक बल प्रदान करने के लिए प्रार्थना करते हैं।
          मन के मजबूत होने पर इन्सान हर प्रकार की चुनौतियों को ललकार सकता है। ऐसा मनुष्य किसी भी व्यक्ति के समक्ष अथवा कैसी भी परिस्थिति हो अडिग रहता है। ऐसे उच्च मनस्थिति वाले साहसी ही चमत्कार करते हैं। यही लोग दुनिया में अग्रणी रहते हैं। समाज को दिशा-निर्देश देते हैं। लोग इनका अनुकरण करके गौरव का अनुभव करते हैं।
          मनुष्य को सदा साहसिक कदम उठाना चाहिए। उसे अपना आत्मविश्वास किसी भी मूल्य पर नहीं खोना चाहिए। जहाँ तक हो सके माँ को बचपन से ही बच्चे को स्वावलम्बी बनाना चाहिए। उसके मन में किसी प्रकार का डर हावी नहीं होने देना चाहिए। यदि बचपन से ही मन में डर घर कर जाए तो इन्सान आयु पर्यन्त साहसिक कार्य नहीं कर सकता।
        मनुष्य को जीवन की चुनौतियों के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए बल्कि उससे टक्कर लेकर उसे मात देनी चाहिए। अपने मनोबल को बढ़ाने के लिए वीरों की गाथाएँ पढ़नी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 24 सितंबर 2016

इंसानियत से उठता विश्वास

इन्सानियत से दिन-प्रतिदिन मनुष्य का विश्वास उठता जा रहा है। संसार में प्रायः लोग अपना हित साधने में ही व्यस्त रहते हैं। इसलिए आज वे सवेदना शून्य होते जा रहे हैं। उनकी यह प्रवृत्ति निस्सन्देह चिन्ता का विषय बनती जा रही है। माना जाता है कि जिस व्यक्ति में संवेदना नहीं है वह तो मृतप्राय होता है। शायद कंक्रीट के जंगल में रहते हुए लोग वैसे ही बनते जा रहे हैं।
          ऐसे मनुष्य को लोग पत्थर दिल इन्सान कहते हैं यानी समाज वे क्रूर कहे जाते हैं क्योंकि उनके सीने में दिल नाम की चीज नहीं होती। वे पत्थर की तरह कठोर माने जाते हैं। उनके हृदय में दया, ममता, करुणा और सहृदयता आदि गुण बिल्कुल नहीं होते।
         इस श्रेणी में आतंकवादी, चोर, डाकू, समाज विरोधी गतिविधियाँ करने वाले नृशंस लोग आते हैं। इसलिए कोई भी इनके सामने नहीं आना चाहता। लोग उनसे भयभीत रहते हैं और उनके साथ सम्बन्ध बनाने में रुचि नहीं रखते।
         आज लोग ईश्वर की भक्ति भी अपने स्वार्थवश करते हैं। जो दाता सबके लिए अपने भण्डार खोले बैठा रहता है, उससे अपना काम करवाने के लिए, उसे रिश्वत देने का असफल प्रयास करते हैं। मनुष्य को जब कुछ चाहिए होता है अथवा कष्ट-परेशानी में होता है तो वह मालिक से प्रार्थना करता है परन्तु फिर बाद में उसे भूल जाता है।
        कहा जाता है कि पत्थर की मूर्तियों को लोग इसीलिए पूजने लगे हैं क्योंकि आज विश्वास करने लायक इन्सान बहुत कम मिलते है। यह सत्य है कि पत्थर से यदि प्रहार किया जाए तो वह सामने आने वाले सबको समान रूप से चोट पहुँचाता है अर्थात घायल कर देता है।
        इस पत्थर की यही तारीफ है कि कुछ भी उपाय कर लो वह पिघलता नहीं है लेकिन उसकी अन्य विशेषता यह भी है कि वह स्वयं कभी नहीं बदलता। उसे आकार विशेष देने के लिए प्रयास करना पड़ता है।
          पत्थर को जिस प्रकार सधे हुए हाथ तराशते हैं तो वे उसमें मानो प्राण डाल देते हैं। उसे मनचाहा आकार देने में मूर्तिकार समर्थ होते हैं। उसी प्रकार सज्जनों की संगति और सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से मनुष्य को भी मनचाहा आकार दिया जा सकता है।
         सुप्रसिद्ध रामचरित के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि (रत्नाकर डाकू ) और बौद्धधर्म के सन्यासी (अंगुलिमाल डाकू) इसके प्रत्यक्ष उदाहरण कहे जा सकते हैं। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास की खोज करने पर मिल जाएँगे।
         मनुष्य में जब तक मानवोचित गुणों का समावेश नहीं होता तब तक उसका कद ऊँचा नहीं होता। इन्सानियत से ही इन्सान का कद बढ़ता है केवल चौखटों की ऊँचाई बढ़ा लेने से कुछ नहीं होता। मनुष्य की महानता का बखान तभी होता है जब वह मानवता की भलाई के लिए कार्य करता है। अन्यथा उसे भूल जाने में इस जमाने को बिल्कुल भी समय नहीं लगता।
         इस संसार में इन्सान सब कुछ बन सकता है, दुनिया के सारे कार्य-व्यवहार कर सकता है किन्तु एक सच्चा इन्सान बनना वास्तव में उसके लिए सबसे कठिन कार्य होता है।
         मनुष्य अपने इस जीवन में यदि सफलता की बुलन्दियों को छू लेता है तो उसे सबके साथ विनम्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए। तभी वह लम्बे समय तक उस स्थान पर बना रह सकता है। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि समाज में इस पद को पाने के लिए उसे कितना संघर्ष करना पड़ा है।
        परन्तु इसके विपरीत यदि वह उस मुकाम पर पहुँचने के बाद इन्सानियत को भूलकर अहंकारी अथवा स्वार्थी हो जाता है तो शीघ्र ही सबकी आँखों की किरकिरी बन जाता है। तब उसे पटकनी देने के लिए बहुत लोग तैयार हो जाते हैं। प्रयास यही रहना चाहिए कि इन्सान अपनी इन्सानियत को न छोड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

श्राद्ध किसके लिए

आजकल एक बार फिर पितृपक्ष चल रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर श्राद्ध किसका करना चाहिए? मरे हुए परिवारी जनों का अथवा जीवित माता-पिता का? यह एक गम्भीर चिन्तन का विषय है।
       मुझे श्राद्ध का अर्थ यही समीचीन लगता है कि अपने जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, गुरु-आचार्य और अन्य वृद्धजनों तथा तत्ववेत्ता विद्वानों की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए।
          जीवित व्यक्ति ही अपनी सन्तान को उपदेश दे सकता है और अपने जीवन के अनुभव से संसार के व्यवहारों का ज्ञान करा सकता है। हर प्रकार से रक्षा कर सकता है। मरने के पश्चात कोई पितर नहीं होता क्योंकि पितर न तो आत्मा है और न ही शरीर है। शरीर नश्वर है और आत्मा अविनाशी है। मृत्यु आत्मा और शरीर दोनों का सम्बन्ध छुड़ा देती है तब पितर नहीं रह जाते हैं? यदि ऐसा नहीं  माना जाता तब पितर शब्द का सम्बन्ध आत्मा से नहीं जुड़ सकता फिर श्राद्ध किया किसका किया जाएगा?
         वास्तव में जीव से माता-पिता आदि का सम्बन्ध नहीं होता, जीव और शरीर का संयोग विशेष से सम्बन्ध है। सारे भौतिक नाते-रिश्ते इस संसार में ही सम्बन्ध रखते हैं। मरने के पश्चात न कोई किसी का पितर रहता है और न कोई किसी की सन्तान। सब जीव अपना-अपना कर्म-फल भोगने के लिए इस संसार में आते है।
          कहते हैं पितर सूक्ष्म शरीर धारण करके श्राद्ध के दिनों में आते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन करते हैं। यदि ऐसा हो कि वे कभी पितृलोक से न आ सकें तो क्या ब्राह्मणों को खिलाया हुआ भोजन उन्हें मिल सकेगा? दूसरी बात क्या बिना स्थूल शरीर के वे भोजन कर सकते हैं?    
        यहाँ एक और प्रश्न मन में आता है कि ब्राह्मणों के साथ जब पितर भोजन करते हैं तो पहले कौन खाता है यदि वे एक-दूसरे के बाद खाते हैं तो वे झूठा खाते हैं जो शास्त्र व सिद्धान्त के अनुसार गलत है।
         मनुष्य किन लोगों का श्राद्ध करना चाहता है जिनका जन्म चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में हो चुका है। यह भी पता नहीं कि उसका पितर पुनः मनुष्य बना है या कोई खूँखार जंगली जानवर या फिर कोई कीट-पतंगा।
        मनुष्य को यह भी तो नहीं पता होता कि उसका पितर इस समय किस अवस्था में है? वह रोगी है या स्वस्थ। यदि वह रोगी है तो ब्राह्मणों को हलवा, पूरी खीर आदि गरिष्ठ भोजन क्यों खिलाया जाए? उन्हें तो कड़वी दवा पिलानी चाहिए और मूँग की दाल खिलानी चाहिए।
        क्या यह सम्भव है कि पितर के नाम पर खिलाया जाने वाला भोजन उसे ही मिल रहा है? यदि भोजन पितर के पास पहुँच रहा है तो फिर ब्राह्मण का पेट नहीं भरना चाहिए, उसे तो भूखा ही रह जाना चाहिए।
         यह तो वही बात हो गई कि किसी आदमी के पास पत्र भेजने के लिए लैटरबाक्स में डाल दिया परन्तु उसका पता नहीं लिखा। अब बताइए क्या वह पत्र उस आदमी के पास पहुँचेगा? इसी तरह पितरों के पते के बिना ब्राह्मणों को खिलाने से भोजन पितरों के पास कैसे पहुँच जाएगा? यह तो कोरा अन्धविश्वास है।
        घर पर ब्राह्मणों को खिला देने से परदेश या परलोक जाने वाले का पेट नहीं भरता फिर तथाकथित मृत पितरों का पेट भरना भी असम्भव है। अत: मृतक व्यक्ति के नाम पर का श्राद्ध करना व्यर्थ है। इस तरह करके मनुष्य स्वयं को धोखा देता है।
        यदि श्राद्ध दान देने की भावना से किया जाए तो सुपात्र को दान देना चाहिए। इन तथाकथित समाज के ठेकेदारों को नहीं जो नौकरी या व्यापार करके अपनी आजीविका चलाते हैं। भोजन खिलाना ही है तो किसी अनाथालय में या किसी भूखे-लाचार को खिलाइए। उनका पेट भरेगा तो दुआएँ देंगे।
        यदि अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सारी आवश्यकताओं को यथासमय पूरा किया जाए और उनकी यथाशक्ति सेवा की जाए तो ऐसे व्यक्ति को इन सब ढकोसलों को करने की कोई जरूरत नहीं होती। समय रहते सच्चे मन से जीवित पितरों का श्राद्ध करें अर्थात श्रद्धापूर्वक अपने हाथों से उनकी सुख-सुविधा की सारी व्यवस्थाएँ करनी चाहिए। जीते जी उनकी खोज-खबर न लेकर मरे पीछे आडम्बर करने का न कोई लाभ होता है और न ही उसे कोई पुण्य मिलता है।
            फ़ेसबुक पर श्रवण कुमार उर्मिलिया के विचार इस विषय पर अच्छे लगे। आप सबके साथ साझा कर रही हूँ।
         और कितना ढोंग-धतूरा फैलाया जायेगा पितरों को तारने और श्राद्ध/तर्पण के नाम पर। इन आडम्बरी पंडितों को बस उन्हीं की चिंता क्यों होती है जो मृत हो चुके हैं? ये कभी अपने जजमानों को यह सीख क्यों नहीं देते कि वे उनकी सेवा भी करें जो ज़िंदा हैं !
         कैसी सभ्यता है यह? जिसे सामने बिठाकर खिलाया जा सकता है उसे नज़रअंदाज़ करो। और पूर्वजों के नाम पर दूसरों को खिलाने का दिखावा करो? कबीर दास जी ने तभी लिखा था-
                जियत हाड़ में दंगम-दंगा
                 मरे हाड़ पहुंचाए गंगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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