शनिवार, 30 जून 2018

मन की शक्तियाँ

मनुष्य यदि अपने अंतस में झाँककर देख सके और अपनी असीम शक्तियों को पहचानकर उनका भरपूर लाभ उठा सके तो अपने किसी भी सपने को पूरा करने से उसे कोई नहीं रोक सकता।
         इसका कारण है कि मानव मन को ईश्वर ने असीम ऊर्जाकोष का उपहार दिया है। प्रत्येक मनुष्य में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह जो भी चाहे हाथ बढ़ाकर पा सकता है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है, उसे बस प्रयत्न करना होता है। परन्तु दुःख इस बात का है कि उसे अपनी इन विशिष्ट शक्तियों पर विश्वास ही नहीं होता।
      अपनी स्वयं की शक्तियों को ढूँढने के लिए मनुष्य को पर्वतों, गुफाओं, जंगलों, तीर्थ स्थानों में जाकर भटकने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उसे तथाकथित गुरुओं और तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास जाकर माथा रगड़ने की भी जरूरत नहीं होती। फिर भी वह कस्तूरी मृग की तरह स्थान-स्थान पर भटकता हुआ वह इन शक्तियों को ढूँढता फिरता है।
        ये सारी शक्तियाँ उसे आपने भीतर ही मिल सकती हैं। एकान्त में बैठकर, मनन करते हुए उसे अपने अन्तस में ही तलाश करनी चाहिए। तभी वह अपनी शक्तियों को पहचान सकता है और उन्हें और अधिक निखार सकता है।  
         एक बोधकथा कहीं पढ़ी थी कि किसी समय देवताओं में परस्पर विवाद हुआ कि मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली गुप्त चमत्कारी शक्तियों को कहाँ छुपाया जाए। सभी देवता इस पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे थे। एक देवता ने सुझाव दिया कि इन शक्तियों को जंगल की किसी एक गुफा में छिपाकर रख देते हैं।
        दूसरे देवता ने उसका विरोध करते हुए कहा कि इन्हें पर्वत की चोटी पर छिपा देते हैं। उस देवता की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि अन्य तीसरे देवता ने कहा कि इन्हें समुद्र की गहराइयों में छिपाकर रख देते हैं। यह स्थान इसके लिए सबसे उपयुक्त रहेगा और मानव की पहुँच से दूर भी रहेगा।
          इस प्रकार सबने अपना-अपना मत रखा। अन्त में एक बुद्धिमान देवता ने बड़ा अच्छा उपाय बताते हुए कहा कि मानव की चमत्कारिक शक्तियों को मानव-मन की गहराइयों में ही छिपा देते हैं। बचपन से ही मनुष्य का मन इधर-उधर दौड़ता रहता है। उसे कभी कल्पना भी नहीं होगी कि इतनी अदभुत और विलक्षण शक्तियाँ उसके अपने अंतस में छिपी हो सकती हैं।
        मानव बाह्य जगत में इन शक्तियों को ढूँढता रहेगा, भटकता रहेगा पर अपने मन में झाँककर इन्हें नहीं देखेगा। इन बहुमूल्य शक्तियों को यदि उसके मन की निचली सतह में छिपा दिया जाए तो केवल वही उन्हें पा सकेगा जो वास्तव में अपने मन को साधेगा।
         सभी देवताओं को यह विचार बहुत पसन्द आया और फिर मनुष्य के मन में ही इन चमत्कारी शक्तियों का भण्डार छिपा दिया गया। इसीलिए मानव के अपने मन में ही अद्भुत असीम शक्तियाँ निहित हैं जिन्हें उसे स्वयं ही खोजना होता है।
        बिल्ली की तरह हथेलियों से आँखें बन्द कर लेने से केवल अंधकार ही दिखाई देता है। इसे दूर करने के लिए मनुष्य को अपने मन को साधना होता है जो असाध्य नहीं है।
        जब तक मनुष्य अपने ही मन में विद्यमान अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, क्रोध आदि दुर्गुणों को दूर नहीं करता, तब तक उसका मन शुद्ध और पवित्र नहीं हो सकता। इस कारण उसका मन मन्दिर नहीं बन सकता। उसे न तो सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं और न ही वह ईश्वर की स्थापना वहाँ कर सकता है।
        जितना वह अपनी शक्तियों को पहचानता जाता है, उतनी ही सरलता से अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है। उस परमपिता परमात्मा के और अधिक करीब आ जाता है।
        इस संसार में रहते हुए जीवन रूपी रथ को चलाने के लिए इस मन को साधकर, अपनी इन शक्तियों का सदुपयोग करते हुए मनुष्य इहलोक और परलोक सुधार सकता है। जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मालिक का प्रिय बन सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 29 जून 2018

वैवाहिक जीवन की सफलता

वैवाहिक जीवन की सफलता पति-पत्नी के परस्पर आपसी सामञ्जस्य पर निर्भर करती है। वह किसी प्रकार के व्रतों पर निर्भर नहीं करती। यदि दोनों मिल-जुलकर प्रेम और सद्भावना से रहते हैं तो घर-परिवार में सब शुभ होता है। माता-पिता प्रसन्न रहते हैं, बच्चे संस्कारी व आज्ञाकारी बनते हैं और आने वाले अतिथि उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते।
        इसके विपरीत यदि घर में कलह-क्लेश हो तो धन-समृद्धि सब भागने लगती है। घर का सुख-चैन तिरोहित होने लगता है। पति और पत्नी दोनों स्वयं को सुपर सिद्ध करने के लिए झगड़ा करने के बहाने ढूँढते रहते हैं।
         प्रतिदिन के झगड़ों से बच्चों पर बुरा असर होने लगता है, उनकी पढ़ाई पर प्रभाव पड़ता है। उनका विकास प्रभावित होता है। वे उच्छृँखल और उद्दण्ड बन जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों के कारण वे अवसरवादी बन जाते हैं। उन्हें दूसरों के सामने अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
         पति और पत्नी के आपसी सौहार्द के कारण ही कोई घर स्वर्ग के समान बन सकता है। अभावों के होते हुए भी वे अपनी इस जीवन नैय्या को आसानी से पार ले जा सकते हैं। उनका सर्वत्र सम्मान होता है। ऐसे घरों की सुगन्ध दूर-दूर तक फैलती है। लोग ऐसे आदर्श परिवार के उदाहरण देते नहीं थकते।
         जिन परिवारों में सभी सदस्य एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते, उनमें आपसी नोकझौंक चलती रहती है, हर कोई किसी दूसरे को नीचा दिखाने का यत्न करता है, वहाँ दुखों और कष्टों की भरमार रहती है। घर में हर प्रकार की सुख-समृद्धि होने पर भी वहाँ शान्ति नहीं होती। मनोमालिन्य बढ़ जाने से घर की एकता तार-तार होने लगती है।
         बिखराव की कगार पर खड़े ऐसे घरों के बच्चों का व्यक्तित्व खण्डित होकर टुकड़ों में बट जाता है। वे बच्चे या तो अन्तर्मुखी हो जाते हैं या फिर विद्रोही बन जाते हैं। उन्हें रिश्तों को अपना कहने में शर्म महसूस होती है। उनके लिए अपने माता-पिता का सम्मान केवल दिखावा होता है, वे ऐसा स्वार्थवश करते हैं।
         ऐसे घर लम्बे समय तक जीवन्त नहीं रह पाते, उनमें श्मशान की सी चुप्पी घर कर जाती है। वहाँ रहने वालों को भी अपनापन कहीं नहीं दिखाई देता। सभी घर से दूर रहने और एक-दूसरे को तिरस्कृत करने के अवसर तलाशते रहते हैं। घर में एकजुटता न होने के कारण वहाँ सब बिखर जाता है। किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो पाता।
         घर में रहते हुए यदि पति या पत्नी में से कोई भी स्वच्छन्द हो जाए अथवा विवाहेत्तर सम्बन्धों में संलिप्त हो जाए तो ऐसा सम्बन्ध किसी को भी स्वीकार्य नहीं होता। ऐसे सम्बन्ध दूसरे साथी को किसी भी शर्त पर मंजूर नहीं होते।
         जीवन साथी को तो क्या समाज में भी मान्य नहीं होते। इनके चलते परिवार टूटन की कगार पर आ जाता है। यह बहुत दुखद स्थिति होती है जिसका भुगतान उन मासूम बच्चों को जीवन भर भुगतना पड़ता है जिनके पालन-पोषण का दायित्व माता और पिता दोनों का होता है।
        जो पुरुष या स्त्री अपने दायित्वों से मुँह मोड़कर किसी भी कारण से घर से बाहर रहते हैं, वहाँ पर नित्य तू तू मैं मैं होने से स्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ घर का पुरुष कुमार्गगामी हो या समाज विरोधी कार्यों में संलिप्त हो जाए तो उस घर से दुर्भाग्य कभी भी पीछा नहीं छोड़ता।
        हर युवक और युवती सुनहले सपने लेकर वैवाहिक जीवन में प्रवेश करता है। कोई नहीं चाहता कि उसका जीवन कभी कड़वाहट भर जाए या उनमें कभी अलगाव की स्थितियाँ बनें। अपने जीवन को वे सफलतापूर्वक, एक उदाहरण बनाकर व्यतीत करना चाहते हैं।
        वैवाहिक जीवन की सफलता तभी सम्भव हो सकती है जब घर के सभी सदस्य एक मुट्ठी की तरह रहते हों। वहाँ तेरे और मेरे के स्थान पर हम और हमारे का राग होना चाहिए। छोटे हों या बड़े सभी एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करने वाले हों। मन से भी वे किसी का अहित करने वाले न बनें। अपने पूर्वाग्रहों और मिथ्या अभिमान का सर्वथा त्याग करना चाहिए यानी उनको होम कर देना चाहिए।
         यदि इन छोटी-छोटी बातों को आत्मसात कर लिया जाए तो कोई कारण नहीं कि गृहस्थी की गाड़ी सफलतापूर्वक न चल सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 जून 2018

जिम्मेदारियों का बोझ

मनुष्य अपना जीवन तभी निश्चिन्त होकर व्यतीत कर सकता है जब वह अपने सिर पर लादी हुई दुश्वारियों की गठरी उतारकर फैंक देता है। अपने मनोमस्तिष्क पर उन्हें हावी नहीं होने देना चाहिए। इस सत्य से कोई मुँह नहीं मोड़ सकता कि जीवनकाल में दुख-परेशानियाँ भी आएँगी और सुख-समृद्धि भी आएगी। इन सबके चलते जीवन को हारना नहीं है अपितु जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए।
      मनुष्य को आयुपर्यन्त जिम्मेवारियों का बोझ उठाना पड़ता है। यदि वह उन्हें भार समझ लेता है तो हर समय परेशान होता रहता है, अपनों और अपनी स्वयं की जिन्दगी से शिकायत करता रहता हैँ। वह सदा ईश्वर को भी उलाहने देता रहता है। उसके इस प्रकार करने से उसके साथ-साथ उसके बन्धु-बान्धव भी मायूस होने लगते हैं।
        इसके विपरीत सकारात्मक रुख अपनाते हुए यदि मनुष्य अपने दायित्वों का निर्वहण करता है तो वह इन्हें प्रसन्न होकर निभाता है। तब वह न तो निराश होता है और न ही किसी को लानत-मलानत करता है। उसके ऐसे आचरण से घर-परिवार में सर्वत्र उत्साह का वातावरण बना रहता है। वह स्वयं भी आनन्दित रहता है और उसके बन्धु-बान्धव भी मस्त रहते हैं।
       मनुष्य भार समझकर जो भी कार्य करता है, उसे उल्टा-सीधा करके बाद में दुखी होता है। वे मानो उसके गले में हड्डी बनकर फँस जाते हैं। वह उस बोझ को शीघ्र उतारकर फैंकना चाहता है। इसी भाव को मन में सोचते हुए किन्हीं महात्मा जी ने अपने पास आए लोगों से ऐसा एक प्रश्न पूछा - 'सबसे ज्यादा बोझ कौन-सा जीव उठाकर घूमता है?'
       इस प्रश्न के उत्तर में किसी ने कहा गधा, किसी ने बैल और किसी ने ऊँट का नाम लिया। यानी सब लोगों ने अलग-अलग प्राणियों के नाम बताए। महात्मा जी किसी के भी उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए।
        उनके असन्तुष्ट होने का कारण है। क्योंकि गधे, बैल और ऊँट आदि पशुओं के ऊपर बोझ कुछ समय तक लादते हैँ और ले जाते हैं। उसके बाद उस बोझ को उतारकर रख दिया जाता है लेकिन मनुष्य अपने मन के ऊपर जबरदस्ती लादे हुए विचारों के बोझ को मरते दम तक भी नहीं उतार पाता। जिस दिन मनुष्य इस बोझ को उतारकर फैंक देगा, उसी दिन वह सही मायने में जीवन जीने की कला को सीख जाएगा। तब निराशा उसके जीवन से सदा के लिए छूमन्तर हो जाएगी।
        मनुष्य अपने सीने पर न जाने कितने बोझ उठाकर रखता है। यदि किसी व्यक्ति ने उसके साथ अन्याय किया अथवा दुर्व्यवहार किया तो उसे भी याद रखने का बोझ उठाए फिरता है। भविष्य में क्या घटने वाला है, इसकी चिन्ता के कारण वह अनावश्यक बोझ से दबा रहता है। अपने किए गए पापों की गठरी का बोझ सिर पर उठाकर जन्म-जन्मान्तरों तक चलता है।
         इस प्रकार बच्चों के लालन-पालन, योग्य बनाने और सैटल करने की चिन्ता में ही वह घुला जाता है। घर-परिवार, कार्यक्षेत्र, स्वास्थ्य आदि की चिन्ताओं के अनावश्यक बोझ को पीठ पर गठरी की तरह लादकर चलता है। इस प्रकार भाँति-भाँति के ये बोझ मनुष्य की पीठ झुका देते हैं। असहाय मनुष्य मूक द्रष्टा बना बस उन्हें निहारता रहता है।
        वास्तव में इन सब परिस्थितियों का वह स्वयं जिम्मेदार है। यदि वह इन सबको बोझ न समझकर अपना दायित्व मान सके तो पीड़ा कम होती है अन्यथा बिमारियों को न्योता देना होता है। फिर सारा जीवन दवाइयाँ खाते हुए गुजार देता है। इस तरह अपना धन और समय नष्ट करता हुआ वह अनजाने ही अपने परिजनों के कष्ट का माध्यम बन जाता है।
          सुधी मनीषी जन इसीलिए मनुष्य को बारम्बार समझाते हैँ कि अपने जीवन को जल की तरह शान्त बनाना चाहिए। उसमें अनावश्यक कंकर फैंककर उद्वेलित नहीं करना चाहिए। अपनी जिम्मेवारियों को बोझ न समझते हुए उन्हें सहर्ष निभाना चाहिए। इसी में मानव जीवन की सार्थकता कहलाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 जून 2018

कोई भी पूर्ण नहीं

संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे हम पूर्ण कह सकें क्योंकि उसमेँ अच्छाई और बुराई दोनों का ही समावेश होता है। इसीलिए कभी वह गलतियाँ या अपराध कर बैठता है तो कभी महान कार्य करके अमर हो जाता है। यानी कि उसमें हमेशा स्थायित्व की कमी रहती है। यदि वह पूर्ण हो जाए तो भगवान ही बन जाएगा तथा ईश्वर कहलाने लगेगा।
         केवल और केवल वह परमपिता परमात्मा ही इस जगत में पूर्ण है। इसीलिए उसकी यह सृष्टि भी पूर्ण है। उसमें से कोई कमी नहीं निकाली जा सकती। वह मालिक सभी भौतिक गुण-दोषों से परे है, उसमें किसी प्रकार की कोई कलुषता नहीं हो ही सकती। इसीलिए हम सब उसे पूर्णब्रह्म कहकर सम्बोधित करते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करके सदा ही उससे कुछ-न-कुछ माँगते रहते हैं। उसके विषय में निम्न मन्त्र कहता है-
ऊँ पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदुच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात- वह जो दिखाई नहीं देता है पर वह पूर्ण है। वह दृश्यमान जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण है। क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण को निकाल भी दिया जाए तब भी पूर्ण ही शेष बचता है।
        यह पूर्णता कहलाती है जहाँ अपूर्ण होने का कोई भाव ही नहीं है। सब तरह से हमें उसकी पूर्णता का साक्षात्कार होता है। उसमें से कुछ ले भी लिया जाए तब भी सागर के जल की तरह वह सदा पूर्ण ही रहता है।
        यह सत्य है कि इन्सान पूर्ण नहीं हो सकता पर पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास अवश्य कर सकता है। इस बात से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर मनुष्य की अपनी एक शक्ति होती है और उसी प्रकार उसकी कोई-न-कोई कमजोरी होती है। उसी के आधार पर समाज में उसकी एक निश्चित पहचान बन जाती है।
         इस असार संसार के किसी मनुष्य के पास धनबल होता है। किसी अन्य व्यक्ति के पास विद्याबल होता है। दूसरे किसी के पास सत्ता का बल होता है। कुछेक के पास शारीरिक बल होता है। कुछ ऐसे सन्त प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके पास आत्मिक शक्ति होती है। इनके अतिरिक्त वे लोग होते हैं जो अपने घमण्ड में सदा ही चूर रहते हैं। वे उसे ही अपनी शक्ति मानकर इतराते रहते हैं।
        बल या शक्ति की ही भाँति हर मनुष्य की अपनी-अपनी कमजोरी भी होती है। शारीरिक बल या आत्मिक बल अथवा मानसिक बल किसी की भी कमी मनुष्य मे हो सकती है। इनके अतिरिक्त धन, विद्या, अनुभव जन्य ज्ञान, अनुशासन में से किसी एक की भी कमी उसकी कमजोरी बन जाती है। और भी मनुष्य की कमजोरियाँ हो सकती हैं यथा पानी को देखकर डरना, ऊँचाई से घबराहट, अग्नि से भय, किसी पशु विशेष से डर जाना, कहीं भी भीड़ को देखकर परेशान हो जाना आदि।   
         समझदार मनुष्य वही है जो अपनी ताकत या शक्तियों का अनावश्यक प्रदर्शन न करे। जिससे लोग उसकी ताकत का दुरूपयोग करने के लिए उसे उकसाने न लग जाएँ। यदि मनुष्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों के झाँसे में आ गया तो उसका विनाश निश्चित समझ लीजिए। इसका कारण है कि अपनी चाटुकारिता होती देखकर वह जीवन की वास्तविकता से विमुख होने लगता है। वह उसे ही सच्चाई मान लेता है।
        अपनी कमजोरियों को भी दूसरों के सामने प्रकट न होने दे जिससे किसी को उसका उपहास उड़ाने का अवसर न मिल सके। इससे उसका मनोबल कमजोर नहीं पड़ेगा।
     जिस प्रकार मछली पेड़ पर नहीं चढ़ सकती और पशु, पक्षी या इन्सान पानी में अपना घरौंदा नहीं बना सकते। सबके लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हैं। उसी प्रकार मनुष्य की शक्ति अथवा कमजोरी उसके गले की हड्डी नहीं बनने चाहिए। उसे अपनी शक्ति का उपयोग देश, धर्म, परिवार, समाज की भलाई के लिए करना चाहिए। इसी तरह अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करके चमत्कार करने उसे निरन्तर आगे बढंना चाहिए।
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मंगलवार, 26 जून 2018

सुविचार

कहीं ये सुविचार पड़े थे,उनसे प्रेरित होकर लेख लिखने का मन बनाया। किसी भी वस्तु का मूल्य कभी मायने नहीं रखता बल्कि उसकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। उस वस्तु विशेष का उपयोग किस प्रकार और कहाँ हो रहा है? स्त्रियाँ पैरों में जो पायल और पैर की अँगुलियों में बिछुए पहनती हैं वे माथे पर लगाई जाने वाली बिन्दी से कहीं अधिक मँहगे होते हैं। परन्तु बिन्दी माथे पर ही सजती है और पायल व बिछुए पैरों में। यहाँ मूल्य का कोई महत्त्व नहीं। पायल व बिछुए माथे पर नहीं सजाए जा सकते और बिन्दी पैरों की शोभा कदापि नहीं बन सकती। यदि कोई स्त्री ऐसा करेगी तो मूर्ख कहलाएगी।
          सन्मार्ग पर प्रायः लोग नहीं जाना चाहते क्योंकि यह मार्ग कठिन और लम्बा होता है। पर कुमार्ग पर चलना सबको भाता है क्योंकि यह मार्ग सदैव आकर्षक और सरल दिखाई देता है। इसलिए लोग इस मार्ग का चयन कर लेते हैं, चाहे बाद में इसके लिए पछताना ही क्यों न पड़े। यह इन्सानी कमजोरी ही तो है जो उसे सुविधपूर्वक जीने के लिए विवश करती रहती है। शायद इसीलिये दारू बेचने वाले को कहीं जाना नहीं पड़ता पर दूध बेचने वाले को घर-घर जाना पड़ता है। दूघ वाले से सभी पूछते हैं कि दूध में पानी तो नहीं डाला? परन्तु शराब पीने वाले अपने हाथों से से उसमें पानी को मिलाकर पीते है।
           पुस्तकालय में कितनी ही धार्मिक पुस्तकें पड़ी रहती हैं। उनका आपस में कभी झगड़ा नहीं होता परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जो लोग उन ग्रन्थों का नाम लेकर विवाद खड़ा करते हैं उन्होंने शायद ही उन ग्रन्थों को पढ़ा हो। इसीलिए कहते हैं-
        'अधजल गगरी छलकत जाए।'
यानी अल्पज्ञान बहुत खतरनाक होता है। इसी प्रकार ही मन्दिर-मस्जिद आदि सभी धर्मस्थल भी बहुत विचित्र स्थान होते हैं, यहाँ गरीब लोग फटे-पुराने कपड़े पहने बाहर खड़े होकर भिक्षा माँगते हैं और लोग उन्हें हिकारत से देखते हुए दुत्कार देते हैं। अमीर आदमी बढ़िया-सूट और सुन्दर अलंकरण पहने अपने धन का प्रदर्शन करते हुए मन्दिर के अन्दर भीख माँगते हैं। जिस मालिक ने इस सृष्टि को भरपूर दिया है, उसी परमात्मा को रिश्वत देने का दुस्साहस भी वे लोग करते हैं।
           अब मित्र की बात भी करते हैं। कड़वा ज्ञान देने वाला ही सच्चा मित्र होता है, मीठी बात करने वाले तो चापलूस होते है। जो मित्र अपने मित्र को गलत रास्ते पर जाने से रोकेगा तो वह कड़वा बोलने वाला ही होगा। वही मनुष्य का सच्चा हितैषी होता है। जो मित्र की हाँ-में-हाँ मिलते हुए उसे कुमार्ग पर जाने से न रोके, वह मित्र नहीं शत्रु होता है। यहाँ उदाहरण लेते हैं। सब्जी में अधिक नमक डाल दिया जाए तो वह कड़वी हो जाती और खाने योग्य नहीं रहती। अधिक मिठाई खाने पर बहुत स्वाद आता है पर वह स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती है। इसीलिए शायद नामक में कभी कीड़े नहीं पड़ते परन्तु मिठाई बहुत जल्दी खराब हो जाती है। एक मीठा सत्य यह भी है कि जिन्दगी बहुत ही अच्छी है। यदि बुरी होती तो जीवन के समाप्त होने पर अपने परिजनों को रुलाकर कभी नहीं जाती।
           मानव का स्वभाव बहुत विचित्र है, उसे समझना कठिन है। एक तरफ वह लाश को छूता है तो स्नान करता है, दूसरी और बेजुबान जीवों को मारकर खा जाता है। ऐसा करते हुए उसे घिन्न नहीं आती। बहुत खुश होकर उन्हें खाता है और अपनी शेखी बघारता है।
           मनुष्य के भाग्य में जो होता है, वह किसी भी प्रकार उसे प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो उसके भाग्य का नहीं होता, वह उसके पास आकर भी चला जाता है। मनुष्य को यह जीवन बहुत जन्मों के पुण्यकर्मों के पश्चात मिलता है इसे व्यर्थ में नहीं गँवाना चाहिए। जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए ईश्वर की अर्चना करते रहना चाहिए। अन्यथा इन्सान इस दुनिया में रोते-रोते हुए खाली हाथ आता है और उसी प्रकार चला जाता है। अपने आने को सार्थक बनाने का प्रयास करना चाहिए जिससे दुनिया हमारे शुभकर्मों के कारण रोए पर हम हँसते हुए उससे से विदा ले सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 जून 2018

शव को देखना

जीवन का सत्य है कि एक दिन जीव को इस असार संसार से विदा लेनी होती है। शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो उस समय जीव मृत कहलाता है और उसका यह भौतिक शरीर प्राण न रहने के कारण शव कहलाता है। भरतीय संस्कृति में जीव के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के पश्चात तक सोलह संस्कारों का विधान है। मृतक देह का दाहकर्म संस्कार इन्हीं संस्कारों का एक भाग है। यह दायित्व बन्धु-बान्धवों को बिना किसी पूर्वाग्रह या हील-हुज्जत के निभाना चाहिए।
           इस लेख में हम किसी कर्मकाण्ड की चर्चा न करके विषय से सम्बन्धित मान्यताओं पर प्रकाश डालेंगे। भारतीय संस्कृति के अनुसार शवयात्रा को देखकर उसे प्रणाम करना चाहिए। प्रायः देखा होगा कि मार्ग में आने वाली शवयात्रा को देखकर लोग अपना सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं और ईश्वर का स्मरण करते हुए उसकी सद्गति के लिए प्रार्थना करते हैं।
           जब भी कोई शवयात्रा निकलती है तो लोग 'राम नाम सत्य है' का उच्चारण करते हुए चलते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि केवल ईश्वर का नाम ही सत्य है, वही परम शाश्वत है। इसके अतिरिक्त शेष सब नश्वर है, असत्य है। इसलिए मनुष्य को सदा ईश्वर का स्मरण करते रहना चाहिए। इस नश्वर संसार में भौतिक वस्तुओं के पीछे भागने के स्थान पर परम सत्य प्रभु की शरण में जाना चाहिए।
           मान्यता यह भी है कि जिस मृतात्मा ने शरीर छोड़ा है, वह प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सभी कष्टों, दुखों और अशुभ लक्षणों को अपने साथ ले जाती है। मान्यता यह भी है कि शव यात्रा को देखने वाले व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण होती है। उसके रुके काम पूर्ण होने की सम्भावना बन जाती है। उसके जीवन से दुख भी दूर होते हैं।
        धार्मिक दृष्टिकोण के अलावा ज्योतिष की भाषा में स्वप्न में शव या शवयात्रा को देखना शुभ माना जाता है। कोई व्यक्ति सपने में किसी शव को देखता है तो इसका अर्थ शुभ होता हैं। यह स्वप्न धन लाभ की ओर संकेत करता हैं। ऐसे में स्वप्न में शव देखने वाले व्यक्ति को कहीं से भी धनलाभ होता हैं, उसे ढेर सारा पैसा शीघ्र मिलता हैं। स्वप्न में मनुष्य स्वयं की शवयात्रा के साथ चल रहा हो तो उसकी भाग्यवृद्धि होगी ऐसा माना जाता है। इसी तरह स्वयं अर्थी को ले जाते हुए देखने पर बिना मेहनत के फल मिलने का संकेत होता हैं। एवंविध सपने में अर्थी को देखने व शव को देखने का मतलब दोनों ही अवस्थाओं में शुभ होता है। एक स्वप्न धन देता है और दूसरा स्वास्थ्य प्रदान करता हैं।
         यदि स्वप्न में किसी शव से बात की जाए तो ज्योतिषीय गणना के अनुसार वह अशुभ होता है। इसका अर्थ होता है कि कहीं कोई दुर्घटना घटने वाली है या कुछ अनिष्ट होने की सम्भावना है।
           किसी शव को नहलाना और अर्थी को कन्धा देना पुण्य का कार्य माना जाता है। जिस व्यक्ति को नहीं जानते, कोई लावारिस लाश है अथवा कोई ऐसा मित्र या पड़ौसी हो जो निपट अकेला रहता हो, उसे देखने वाला कोई नहीं हो तो उसके शव को नहलाकर उसका अन्तिम संस्कार करने से बड़ा और कोई पुण्य नहीं होता। इसीलिए हमारे भारत देश में युद्ध के समय होने वाले शत्रुओं के शवों का संस्कार धर्मिक रीति से करने की प्रथा चली आ रही है। आज भी इस परम्परा का पूर्ववत पालन किया जा रहा है।
        सारी कटुताएँ अथवा शत्रुता जीवित व्यक्ति के साथ निभाई जातीं हैं। मरने के पश्चात वे सब समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए मरने वाले व्यक्ति की बुराई करने के लिए बड़े बुजुर्ग मना करते हैं। वे कहते हैं मृत व्यक्ति की जो भी अच्छाइयाँ थी, सदा उन्हें स्मरण करना चाहिए। व्यक्ति के अन्तिम समय में सारी नाराजगी को तक पर रख देना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि इस पुण्यकार्य में अपना योगदान दिया जाए। व्यक्ति की अन्तिम यात्रा में भाग लेना सामाजिक दायित्व कहलाता है, इसलिए इससे मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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