मंगलवार, 31 मार्च 2015

देवयज्ञ

देवयज्ञ पञ्च महायज्ञों में दूसरे स्थान पर है। देव शब्द का उच्चारण करते ही हमें उन देवताओं का स्मरण होने लगता है जिनकी हम उपासना करते हैं। इन देवों की पूजा-अर्चना हम नियमपूर्वक करते हैं। उस आराधना को हम ब्रह्मयज्ञ का नाम देते हैं।
       दिव्य गुणों से युक्त व्यक्तियों को हम देव कहते हैं। इसका यही अर्थ है सज्जनों की संगति करना। जो दयालु, परोपकारी, सहृदय व विनीत लोग होते हैं वे सज्जन कहलाते हैं। ये मनसा, वाचा और कर्मणा एक होते हैं। ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए। इनके संसर्ग से हमारा चतुर्मुखी विकास होता है, चारों दिशाओं में हमारा यश फैलता है और हम सफलता के सोपान चढ़ते जाते हैं। चाहे स्वार्थवश कहें अथवा स्वभाववश दिव्य जनों का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
      देवयज्ञ का अर्थ हम कर सकते हैं कि सभी देवों को उनका यथायोग्य भाग (हिस्सा या अंश) दिया जाए। प्रकृति के कहे जाने वाले ये सभी देव हम पर उपकार करते हैं। इनसे हम प्रतिदिन कुछ-न-कुछ ग्रहण करते रहते हैं। यदि ये हमारी तरह स्वार्थी हो जाएँ तो यह ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। हम सभी जीवों का जीवन पल में ही समाप्त हो जाएगा।
       इसी बात को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि मनुष्य को जिससे भय लगता है अथवा जिससे उसका स्वार्थ सिद्ध होता है वह उसकी ही पूजा करता है। इसी कारण ही शायद देवपूजा का विधान किया गया होगा।
        सूर्य हमें प्रकाश व ताप देता है, इन्द्र यानि बादल जिनके बरसने से हमें खाने के लिए अनाज व पीने के लिए जल मिलता है। वायु जीवनदायिनी शक्ति है। उसके बिना एक पल भी जी नहीं सकते। वृक्ष हमें फल व छाया देते हैं। इसी प्रकार प्रकृति के सभी अवयव हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं। इसीलिए हम इन सभी को देव कहते हैं।
        भौतिक जीवन में भी यदि कोई हम पर उपकार करता है या हमारी सहायता करता है तो हम उसे धन्यवाद देते है। यदि उसका हम पर अधिक उपकार हो तो हम धन्यवाद के साथ-साथ उसे उपहार भी देते हैं। इसी प्रकार हमें इन देवों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए।
       हमारा अपना एक परिवेश है जिसमें हम बदबू व गंदगी फैलाते हैं। इन सबको उनका भाग यज्ञ-हवन करके दे सकते हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत से यज्ञों का विधान है। हम सोशल मीडिया पर देखते हैँ और समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि आजकल हवन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। लोग कभी मैच में टीम इंडिया के जीतने, कभी किसी के स्वास्थ्य लाभ के लिए और भी किसी-न-किसी बहाने हवन करते रहते हैं।
       यज्ञ की में जिस सामग्री का उपयोग किया जाता है उसकी सुगन्ध व यज्ञ का धुआँ बहुत दूर तक पर्यावरण में फैलते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है कि इससे वातावरण शुद्ध होता है व कई प्रकार के रोगाणु नष्ट होते हैं। इसी प्रकार धूप व अगरबत्ती जलाकर घर व बाहर का शुद्धिकरण किया जा सकता है।
          यह देवयज्ञ केवल हमारे अपने लिए व अपने घर लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए आवश्यक है। अतः पर्यावरण  को शुद्ध करने और अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बनाने के लिए हम सबको देवयज्ञ करना चाहिए।

सोमवार, 30 मार्च 2015

ब्रह्मयज्ञ

ब्रह्मयज्ञ का स्थान हमारे पञ्च महायज्ञों में सबसे पहले आता है। जिस प्रकार नए दिन का उदय ब्रह्ममुहूर्त से होता है उसी प्रकार मनुष्य के दिन का आरंभ ब्रह्म की पूजा-अर्चना से करने का विधान है।
       प्रातःकाल जागने के पश्चात अपने नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निपटकर ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। इससे मन में उत्साह व स्फूर्ति बने रहते हैं। मनुष्य को आत्मिक बल मिलता है।
        ईश्वर को स्मरण करना उसे धन्यवाद देना हमारा दायित्व है। अपने बच्चों को जिन्हें हमने जन्म दिया है उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वे हमारे प्रति समर्पित रहें, कहीं भी रहें हमारा ध्यान रखें। इसी तरह इस संसार का जनक वह भी हमसे अपेक्षा करता है कि नित्य प्रातः जागने के बाद हम उसका ध्यान करें।
       ईश्वर की आराधना किस विधि से की जाए यह हर मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। विश्व में अनेक धर्म हैं और उन सबके अनुयायी भी बहुत हैं। वे सभी हमें उस ईश्वर तक जाने का मार्ग बताते हैं। यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किस धर्म के सिद्धान्तों को मानता है। वह निराकार की उपासना करता है या साकार की। वह सगुण ब्रह्म की नवधा भक्ति करता है या निराकार ब्रह्म के निमित्त संध्या-वंदन करता है। इन सब विधियों को न करके वह केवल नाम जाप करता है।
       किसी भी पद्धति से उस मालिक की उपासना करिए वह प्रसन्न हो जाता है। बहुधा लोग कहते हैं पूजा-प्रार्थना में मन नहीं लगता। मन लगे या न लगे केवल श्रद्धापूर्वक अपने नियम का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है उसे निभाते रहिए शेष सब उस पर छोड़ दीजिए। धीरे-धीरे हमारा आराधना में मन रमने लगेगा।
        ईश्वर अपने प्रति मनुष्य की बस सच्ची श्रद्धा व विश्वास चाहता है और कुछ नहीं। सच्ची लगन लगनी चाहिए बस।
         वह अपनी उपासना का प्रदर्शन कदापि नहीं चाहता। यदि सच्चे मन से उसे पुकारा जाए तो वह हमारी सभी मनोकामनाओं को हमारे कर्मानुसार यथासमय अवश्य पूरा करता है। वह हम लोगों की तरह स्वार्थी नही है। वह मुक्त हाथों से भर-भरकर नेमते हमें बाँटता है और कभी जताता नहीं। हमें मात्र अपनी पात्रता सिद्ध करनी है
      वैसे तो सोते-जागते, उठते-बैठते, अपने कर्त्तव्यों का पालन करते समय यदि उस मालिक को स्मरण करते रहें तो मन में सात्विक वृत्तियों का उदय होता है। कुमार्ग पर भटकने से मनुष्य का  बचाव हो जाता है। मैं अपनी बहनों महिलाओं से कहना चाहती हूँ कि यदि हो सके तो भोजन बनाते समय प्रभु के नाम का स्मरण करती रहें। आप स्वयं अनुभव करेंगी कि उस भोजन का स्वाद कई गुणा बढ़ गया है।
      अपने सद् ग्रन्थों(धार्मिक ग्रन्थों) का अध्ययन भी करना चाहिए। उनका मनन करके अपने जीवन की दिशा निर्धारित करनी चाहिए। इससे जीवन को चलाने का सही मार्गदर्शन मिलता है।
        ईश्वर का प्रातः नियमपूर्वक स्मरण ब्रह्म यज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ को हम सभी करते हैं पर शायद इस विशेष नाम से नहीं। हम चौबीसों घंटे आपाधापी का जीवन जीते हैं। वह समय हमारा नहीं होता बल्कि वह घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों व रोटी कमाने के चक्करों का होता है। हमारा अपना समय वही होता है जब हम अपने कुछ पल उस मालिक को याद करने में व्यतीत करते हैं। उस समय का सुकून हमारे पूरे दिन का शक्ति स्त्रोत बनता है।
       इसलिए यदि हम अपने इस नश्वर मानव जीवन को सफल बनाकर अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ाना  चाहते हैं तो श्रद्धापूर्वक सच्चे मन से उसकी शरण में जाना होगा तभी ब्रह्मयज्ञ करना सार्थक होगा।

रविवार, 29 मार्च 2015

पंचमहायज्ञ

हमारे शास्त्र हमें प्रतिदिन पञ्च महायज्ञ करने का निर्देश देते हैं। वे हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ या भूतयज्ञ और बलिवैश्व देव। प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन पाँचों महायज्ञों का अनुपालन करना आवश्यक माना जाता है।
        इन यज्ञों के नाम पढ़कर कदाचित आप सोच रहे हैं कि शास्त्र क्या करने के लिए कह रहे हैं। निश्चिंत रहिए इन सभी यज्ञों को हम नित्य करते हैं परन्तु शायद अनजाने में और बिना नियम के। इनके विषय में आप जानिए।
         सबसे पहला यज्ञ कहा गया है- ब्रह्मयज्ञ। इसका अर्थ है प्रातः उठकर नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निपटकर ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। उसके बाद दुनिया के झमेले निपटाने चाहिएँ। जिसने इस संसार में जन्म दिया है उसकी स्तुति करते हुए उसका धन्यवाद करना चाहिए। वैसे इस भौतिक संसार में रहते हुए यदि कोई हमारी सहायता करता है या हमें लाभ पहुँचाता है तो हम शिष्टाचारवश उस मनुष्य को कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए धन्यवाद देते हैं। जिस परमपिता परमात्मा ने इस धरती पर जन्म देकर हम पर महान उपकार किया है उसका आभार तो हमें प्रकट करना ही चाहिए। यह हमारा नैतिक दायित्व है जिसकी अपेक्षा शायद वह प्रभु भी हमसे करता होगा।
         दूसरा यज्ञ ऋषियों ने बताया है- देवयज्ञ। इसका अर्थ है सज्जनों की संगति करना। दूसरा अर्थ है सभी देवों को उनका भाग दिया जाए। सभी देवों से तात्पर्य है प्रकृति के कहे जाने वाले वे सभी देव जिनसे हम प्रतिदिन ग्रहण करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में सूर्य जो हमें प्रकाश व ताप देता है, इन्द्र यानि बादल जिनके बरसने से हमें खाने के लिए अनाज व पीने के लिए जल मिलता है, वृक्ष जो हमें फल व छाया देते हैं। ये कुछ नाम गिनाए हैं इसी प्रकार अन्य सभी देव हैं।
         हमारा अपना परिवेश भी है जिसमें हम बदबू व गंदगी फैलाते हैं। इन सबको उनका भाग यज्ञ-हवन करके दे सकते हैं। यज्ञ की सामग्री, धूप व अगरबत्ती जलाकर इस यज्ञ को किया जाता है।
        तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ कहा गया है। जो अपने माता-पिता की सेवा करने के लिए कहता है। इसका अर्थ है उनकी सारी आवश्यकताओं को उनके बिना कहे पूरा करना व उन्हें यथोचित सम्मान देना जो उनको मिलना चाहिए। माता-पिता हमें इस संसार में लाकर हम पर महान उपकार करते हैं। उनके इस ऋण को हम आजन्म उनकी सेवा करके भी नहीं चुका सकते। यह हमें हमेशा याद रखनी चाहिए।
        चौथा यज्ञ है अतिथियज्ञ। हमारे घर में आने वाले साधु-संतो, मित्रों-संबंधियों आदि का यथोचित आदर-सत्कार करना अतिथियज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ को करने का एक विशेष प्रयोजन है। वह यह है कि मनुष्य सामाजिक प्राणि है और अकेला नहीं रह सकता। इसलिए वह समाज से बहुत कुछ लेता रहता है। अत: मनुष्य का कर्त्तव्य बनता है कि वह समाज के हित के कार्य करे। अतिथि का सत्कार करना उसी का ही एक रूप है।
        पाँचवाँ है बलिवैश्वदेव यज्ञ जिसमें प्रतिदिन जो भी भोजन घर में बनाया जाए उसमें नमकीन, खट्टे और खार अन्न को छोड़कर घी और मीठे से युक्त अन्न को चूल्हे से अग्नि लेकर आहुति देते हैं। आजकल चूल्हे हैं नहीं तो वह अन्न चींटियों को भी डाल सकते हैं।
       इस प्रकार नियमपूर्वक इन यज्ञों को करने से हम अपने दायित्वों की पूर्ति कर सकते हैं जिससे हमें आत्मिक सुख मिलता है।

शनिवार, 28 मार्च 2015

सफलता के मंत्र

जीवन में सफलता प्राप्ति के ये 20  मँत्र कहीं पढ़े थे। इन जीवनोपयोगी सूत्रों को अपने शब्दों में ढालकर आप सुधीजनों के समक्ष रख रही हूँ। इन्हें अपने जीवन में अपनाकर उसे सफल बनाने का यथासंभव यत्न कीजिए।
1. अपनी आय से खर्च कम हो जीवन में
     हमेशा ऐसा यत्न करना चाहिए।
2. बिना किसी पूर्वाग्रह के दिन मेँ कम-से-
     कम 3 लोगो की प्रशंसा करिए।
3. खुद की भूल स्वीकारने मेँ कभी भी
     संकोच मत करिए।
4. किसी  के सपनों का मजाक बनाकर  
     कभी हँसना नहीं चाहिए।
5. आपने पीछे खड़े व्यक्ति को भी कभी    
     आगे जाने का मौका दो।
6. हो सके तो हररोज सूरज को उगता हुए
     देखिए अर्थात प्रातः जल्दी उठिए।
7. बहुत जरुरी हो तभी कोई चीज उधार
     लो अन्यथा नहीं।
8. किसी से कुछ जानना चाहते हो तो
    अपने विवेक से दो बार पूछो।
9. कर्ज और शत्रु को कभी अपने ऊपर
     हावी मत होने दो।
10. ईश्वर पर पूरा भरोसा रखो।
11. ईश्वर से प्रार्थना करना कभी मत भूलो
      क्योंकि प्रार्थना में अपार शक्ति होती है।
12. हमेशा अपने काम से मतलब रखना
      चाहिए दूसरों के काम में दखल नहीं
       देना चाहिए।
13. समय बहुत अधिक मूल्यवान है, जहाँ
       तक संभव हो  इसे व्यर्थ के कामों मेँ
       नही गंवाना चाहिए।
14. जो आपके पास है, उसी मेँ खुश रहना
       सीखिए।
15. किसी की बुराई कभी भी मत करो,
      क्योंकि बुराई नाव मेँ हुए छेद के समान
      होती है। छेद छोटा हो या बडा नाव
       को तो डुबो ही देता  है।
16. हमेशा सकारात्मक सोच रखने से
       सफलता मिलती है।
17. हर व्यक्ति कोई न कोई हुनर लेकर
       इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। बस उस
       हुनर को तराश व संवारकर दुनिया के
      सामक्ष लाने का प्रयास करिए।
18. कोई भी काम छोटा नही होता हर काम
       बड़ा होता है। सदा यह सोचिए कि जो
       काम आप कर रहे हैं अगर वह काम
       आप नही करते हो तो दुनिया पर क्या
       उसका क्या प्रभाव होता?
19. सफलता उन्हीं को मिलती  है जो कुछ
       कर गुजरने की हिम्मत रखते  हैं।
20. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नहीं
       पड़ता बल्कि कुछ करके दिखाना
        होता है।

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

भेड़चाल

हम सभी भेड़चाल चलते हैं। सभी जानते हैं कि एक भेड़ जिधर चलती है उसके पीछे शेष भेड़े चल पड़ती हैं बिना जाने कि वह कहाँ जा रही है। वही हाल हम सभी का भी है। कारण बहुत स्पष्ट है कि अपने आस-पास के माहौल से हम बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं। इसलिए परेशानियों का सामना करते रहते हैं।
       आज हमारे पड़ौसी ने महंगी वाली नयी गाड़ी खरीदी है पर हमारे वाली कार उसकी गाड़ी के सामने पुरानी लगेगी। यह तो कोई बात नहीं हुई। उसकी सामर्थ्य थी उसने गाड़ी खरीद ली। इसमें तो कोई बड़ी बात नहीं। सभी लोग आपने साधनों के अनुसार उपयोगी वस्तुएँ खरीदते हैं। खुश होते हैं और उसका उपभोग करते हैं। पर हमारा क्या हम तो परेशान हो गए। हम उसके सुख में खुश नहीं हो सकते।
        बस शुरु हो गया हमारे घर में कलह-क्लेश। घर के सभी सदस्य उठते-बैठते ठंडी आहें भरेंगे और अपने भाग्य को कोसते हुए व्यंग्य बाण छोड़ेंगे। फिर शुरु होगा जोड़-तोड़ का सिलसिला। चाहे हमें उसकी जरुरत हो या न हो, हमारे पास उसे खरीदने के साधन है अथवा नहीं। पर हम तो ऐसे हैं जो खरीद कर ही दम लेंगे। न हम अपनी होने वाली कटौतियों के बारे में सोचेंगे और न ही असुविधाओं के बारे में। बस दिनरात एक ही रट व आहें जो जीवन दूभर कर देती हैं। जरूरत होगी तो कर्ज लेकर ही हम अपने पड़ौसी को दिखा देंगे कि तू क्या चीज है हम भी कम नहीं।
        हमारी यह एक नाक बेचारी है जो हर दूसरे दिन कट जाती है। अब हमारे घर भी पड़ौसी जितनी या उससे महंगी गाड़ी आ गई। अब तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं और हमारी छोटी-सी चढ़ने वाली नाक कटी नहीं बच गई बल्कि अब ऊँची हो गई। अपने इलाके में वाहवाही हो गई।
       हम दूसरों के खुशी में खुश नहीं होते और न ही उनकी सुख को खुले दिल से स्वीकार करते हैं बल्कि ईर्ष्या में जलते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता पर हाँ, अपना खून अवश्य जलता है।
         मैंने यह एक छोटा-सा उदाहरण प्रस्तुत किया है संकीर्ण मानसिकता का और हमारे द्वारा की जा रही भेड़चाल का। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहाँ इन भौतिक वस्तुओं की पाने की ललक में न जाने कितने मासूमों के खून से होली खेली गई।
      इन तृष्णाओं का कोई अंत नहीं है। एक के बाद एक ये तृष्णाएँ हमारा सुख-चैन छीनकर हमें मानसिक रूप से बीमार बना देती हैं। हम भी सांसारिक प्रलोभनों में फंसकर दिन-रात मृगतृष्णा के पीछे भागते हुए थककर चूर हो जाते हैं और दुनिया में हंसी का पात्र बनते हैं।
        इन वस्तुओं की होड़ हम करते हैं जो दुख का कारण हैं परन्तु सकारात्मक होड़ नहीं करते जो सुख-शांति का कारण हैं। हम यह होड़ नहीं करते कि हमारा पड़ोसी, मित्र या संबंधी परोपकार के कार्य करता है, दान देता है, भगवत भजन में व्यस्त रहता है, उसके बच्चे आज्ञाकारी हैं, वह सादा जीवन उच्च विचार का पोषक है, उसके घर में सुख-शांति है। जो इन सब उपलब्धियों से मालामाल हैं हम उन्हें मूर्ख समझकर उनका मजाक उड़ाते हैं। जबकि कुछ समय बीतने पर यही लोग दूसरों की ईर्ष्या का कारण बनते हैं। यदि समय रहते इन सबकी होड़ में जुट जाएँ तो अपने को धन्य कर सकते हैं और अपने जीवन को भेड़चाल के कारण भटकने से बचा सकते हैं।

गुरुवार, 26 मार्च 2015

घर मनुष्य की पहचान

घर मनुष्य की पहचान होता है। जिस घर में वह रहता है उसको देखकर ही उसके बारे में अपनी राय बनाई जा सकती है। उस घर की कलात्मक साज-सज्जा को देखकर यह जान सकते हैं कि वहाँ रहने वाले किस रुचि के हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उस घर विशेष के लोग प्राचीन वस्तुओं के प्रेमी हैं या कलाकार हैं अथवा वहाँ समृद्धि के अनुसार मूल्यवान वस्तुओं से सजावट की गई है।
      कुछ लोग समृद्ध होते हैं परंतु अपने घर में फरनीचर आदि वस्तुओं की सार संहाल नहीं करते बल्कि उन्हें कबाड़ की तरह रखते हैं। वहाँ जाने पर मन को अच्छा नहीं लगता। कुछ लोगों के घर शीशे की तरह चमकते रहते हैं वहाँ जाने पर मन प्रसन्न होता है। इसके विपरीत वे घर हैं जहाँ चारों ओर गंदगी का साम्राज्य होता है। घर का सामान इधर-उधर बिखरा रहता है। वहाँ घुसते ही ऐसा लगता है कि कहाँ आ गए? वहाँ के परिवेश में दम घुटने लगता है और नाक-भौंह सिकुड़ने लगती हैं।
          केवल ईंट पत्थरों से बना मकान घर नहीं कहलाता। कंक्रीट का बना वह बेजान घर तब तक ईंट-पत्थर का घर कहलाता है जब तक वहाँ आपसी सौहार्द व मेलजोल न हो। मकान घर तभी बनता है जब परिवार के सभी लोग एक मुट्ठी की तरह आपस में मिलजुल कर रहें। छिटपुट बातें हो भी जाएँ तो उन्हें नजरअंदाज करके प्यार से रहें।  अपने माता-पिता की सभी आवश्यकताओं को बेटा हमेशा पूरा करता हो , कभी दुख-तकलीफ हो तो उनका ध्यान रखता हो। बहु सास-ससुर को यथोचित सम्मान देने वाली हो और वह समयानुसार कहने से पहले ही उनकी सारी सुविधाओं को जुटाए।
        घर में बड़े-बजुर्ग अपने अहम को छोड़कर मनमानी न करके सदा अपने बच्चों से सामंजस्य बनाकर चलने वाले हों। उनकी हर समय आलोचना करने के बजाय उनके सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रखने वाले हों।
       इन घरों में रहने वाले सभी सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं व उनकी बात का मान रखते हैं। ऐसे घरों के लोगों के विषय में गुरु नानक जी की यह उक्ति सटीक है-
'एक ने कही दूजे ने मानी नानक कहे दोनों ज्ञानी।'
इस प्रकार का माहौल यदि घर में हो तो वह घर धरती पर स्वर्ग के समान होता है। हो सकता है घर में भौतिक समृद्धि शायद कम हो पर सुख-शांति बनी रहती है।
       इसके विपरीत यदि उस घर में जितने सदस्य हैं वे सब एक-दूसरे की जड़ें काटने में लगे रहते हों। एक का मुँह पूर्व में हो और दूसरे का पश्चिम में। हर रोज, हर समय उस घर में चीखना-चिल्लाना चलता रहता हो। कोई किसी की शक्ल देखना पसंद न करता हो। ऐसा घर नरक से भी बदतर होता है जहाँ आपस में सदा कलह-क्लेश व अशांति रहती है। ऐसे घर में कितनी भी भौतिक समृद्धि हो सुकून नहीं दे सकती।
     यदि हम चाहते हैं कि हमारी संतान आज्ञाकारी हो तो हमें अपने बड़ों के प्रति वैसा ही व्यवहार रखना होगा। कितनी भी सुख समृद्धि घर का सुख-चैन नहीं खरीद सकती उसके लिए स्वयं की भावनाओं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। तभी घर के बच्चे भी देखा-देखी उसी की ही अनुपालना करेंगे उन्हें सिखाना नहीं पड़ेगा। अब यह हमारे हाथ में है कि हम अपने घर को स्वर्ग के समान सुन्दर बनाना चाहते हैं अथवा नरक के समान कष्ट भोगते हुए जिन्दगी के दिन गिनना चाहते हैं।

बुधवार, 25 मार्च 2015

ईश्वर की चेतावनी

हम सोते रहते हैं और ईश्वर हमें जगाने के लिए बारबार चेतावनी देता रहता है। सुख-दुख के रूप में वह हमें अहसास कराता है कि इस संसार में मेरी भी सत्ता है उसे चुनौती मत देना। परन्तु हम सब तो ऐसे अवज्ञाकारी बच्चे हैं जो पुनः पुनः उसकी महानता से मुख मोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं उसकी ओर से ध्यान हटा लेने या विमुख हो जाने से जैसे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
        सुख, शांति व ऐश्वर्य मिलने पर हम उसे पूरी तरह नकारते हुए कहते हैं- मैंने मेहनत की और सुख के सभी साधन जुटा लिए। उस समय मनुष्य अपने अहम में यह भूल जाता है कि सब उस मालिक के अधीन है। उसकी इच्छा के बिना वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता और न ही एक श्वास ले सकता है।
      इसके विपरीत दुख की स्थिति में वह मालिक को गिला-शिकवा करने से नहीं चूकता। उसे अपने दुखों का दाता मानकर उसे कोसता है और गाली तक दे देता है। उस न्यायकारी पर पक्षपात करने का आरोप तक लगा बैठता है। इसलिए इस दोहे को आत्मसात करना आवश्यक है-
दुख में सिमरन सब करें सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करे तो दुख काहे को होय॥
        अब विचारणीय है कि वह ईश्वर हमें आगाह कैसे करता है? किसी भी अच्छे या गलत कार्य करने पर वह हमें अंतस् की आवाज के रूप में चेतावनी देता है। वह हमें उस कार्य को उत्साहपूर्वक करने या न करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार हमारा मार्गदर्शन कराता है। हम ऐसे नासमझ हैं कि उस चेतावनी को अनसुना कर कष्ट भोगते हैं।
        उसने इस संसार में हमें इसलिए भेजा है कि हम उसको याद करते हुए, डरते हुए सत्कर्म करें। जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करें। हम सारा जीवन स्वयं को बहलाते रहते हैं। उसकी पूजा-अर्चना न करने के हास्यास्पद बहाने खोजते हैं।
         कभी कम वय का, कभी किसी कार्य विशेष के पूरा होने की प्रतीक्षा को हथियार बनाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सबसे अच्छा दिल हम यह कहकर बहलाते हैं कि अभी समय नहीं है ईश्वर का भजन करने का। बुढ़ापे में नाम जप लेंगे।
        इस प्रकार की बातें करते हुए मनुष्य भूल जाता है कि बुढ़ापे में भी नाम तभी ले सकेंगे जब हम जवानी या बचपन में उसे स्मरण करेंगे। यदि बुढ़ापे को हम सीमा बनाएँगे तो उसका स्मरण संभव नहीं हो पाएगा। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने लगता है और इंसान अपनी बिमारियों में ही उलझा रहता है।
       ईश्वर समय-समय पर चेतावनी देता रहता है और कहता है, जागो बहुत हो गया है अब मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह हमारे कर्मानुसार कष्टों की भट्टी में हमें झौंकता है। फिर भी हम उसको क्षणिक ही याद करते हैँ और फिर भूल जाते हैं।
        बालों में सफेदी आना उस तरफ से चेतावनी होती है कि अब होश में आ जाओ पर हम बालों को रंगकर उस मालिक को बहकाते हैं। तत्पश्चात आँखें कमजोर होना भी एक प्रकार से चेतावनी होती है पर हम चश्मा लगाकर उसे झूठा सिद्ध करने का असफल प्रयास करना चाहते हैं। दाँतों का गिरना भी उसका चेताने का रूप होता है। हम बहुत समझदार हैं जो दाँतो का डेंचर (नकली दाँत) लगाकर उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत करते है। अंतिम चेतावनी श्रवण शक्ति कमजोर होना होती है परंतु हम यहाँ भी कानों में मशीन लगाकर झुठलाने का यत्न भर ही करते हैं।
         इस प्रकार स्वयं को छलावे में रखकर सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ कर देते हैं पर उसको मन से स्मरण नहीं करते। हम बहुत ही सधे हुए कलाकार हैं जो उसकी भक्ति का करने का प्रदर्शन करने का कोई मौका नहीं गंवाते।
         अंत में यही कहना चाहती हूँ कि ईश्वर की उपासना व्यक्तिगत आस्था का विषय है। परन्तु फिर भी सच्ची श्रद्धा से और भावना से उसे स्मरण करना चाहिए क्योंकि वह दिखावे का नहीं हमारे भाव का भूखा है। उसको सच्चे हृदय से याद करने से ही सच्चा सुख व शांति मिलती है। ईश्वर का निरंतर निष्काम ध्यान जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त करता है।