बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

गुरु-शिष्य की कसौटी

गुरु की प्रशस्ति में साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। 'गुरुगीता' नामक एक अलग से भी एक पुस्तक है, जिसके श्लोकों में गुरु का यशोगान किया गया है। यह भी सत्य है कि अपने शिष्यों के जीवन निर्माण में उसकी भूमिका सक्रिय होती है, जिसे हम प्रशंसनीय कह सकते हैं। वह कुम्हार के पात्रों की भाँति अपने शिष्यों के जीवन को गढ़ता है।
       गुरु और शिष्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। दोनों अन्योन्य आश्रित होते हैं। गुरु शब्द का उच्चारण करने मात्र से ही उसके शिष्यों की परिकल्पना भी कर ली जाती है। शिष्य के बिना गुरु को पूछता ही कौन है? इसीलिए वह तब तक अधूरा रह जाता है, जब तब उसके पास शिष्यों की प्रभूत संख्या न हो। उस समय तक समाज में उसके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
          गुरु का गुरुत्व उसके शिष्यों की योग्यता की कसौटी पर परखा जाता है। यदि शिष्य विद्वान होते हैं तो गुरु का कद यानी गौरव कई गुणा बढ़ जाता है। इसके विपरीत अयोग्य शिष्यों का गुरु परम विद्वान होते हुए भी समाज में उतना मान-सम्मान नहीं प्राप्त कर पाता, जिसका वह अधिकारी होता है। अतः शिष्यों के गुण, कर्म और स्वभाव से ही गुरु की पहचान बनती है।
          वैसे तो माना यही जाता है कि गुरु हर प्रकार से परखकर अपने लिए शिष्य का चयन करता है। इसी प्रकार शिष्य को भी समझबूझकर यानी ठोक-बजाकर ही अपने लिए गुरु का चुनाव करना चाहिए। अन्यथा भेड़चाल के कारण बाद में उसे पछताना पड़ सकता है। उस समय मर्माहत होने से पहले सावधानी बरतना सर्वथा उचित होता है।
        निम्न पंक्ति में गुरु के लिए चेतावनी दी गई है -
         वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो।
अर्थात एक मूर्ख का गुरु होने से श्रेष्ठ है कि वह बिना शिष्य वाला रहे।
         यह पंक्ति स्पष्ट कर रही है कि यदि शिष्य अयोग्य सिद्ध होता है तो वह गुरु की हार होती है। उससे जिसका भी सम्पर्क होता है वह सबसे पहले यही पूछता है - 'किसने तुम्हें पढ़ाया है? कहाँ से शिक्षा ग्रहण की है? तुम्हें वहाँ ऐसे ही पढ़ाया जाता है?'
         इन प्रश्न को पूछने का सीधा-सा यही तात्पर्य होता है गुरु पर आक्षेप लगाना। इन प्रश्नों का यह अर्थ भी कर सकते हैं कि उसका गुरु ही मानो उस व्यक्ति की सम्पूर्ण मूर्खताओं का उत्तरदायी है। समाज में उस गुरु पर भी एक प्रश्नचिह्न अवश्य लग जाता है। इसी कड़ी में गुरु को समझाते हुए कवि ने कहा है -
         कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।
अर्थात एक कुशिष्य को शिक्षा देकर कीर्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?
         इस उक्ति को पढ़कर यही कहा जा सकता है कि गुरु की सफलता उसके अपने शिष्य पर ही निर्भर करती है। यदि शिष्य जीवन में सफल हो जाता है और योग्य बन जाता है तो उसके साथ-साथ उसके गुरु को भी उसका श्रेय मिलता है। इसी तरह यदि वह शिष्य योग्य नहीं बन पाता और जीवन में असफल हो जाता है तो उसका दोष स्वभावत: गुरु के माथे ही मढ़ दिया जाता है।
         इसीलिए कवि ने गुरु को सचेत करने का प्रयास किया है कि कुशिष्य को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं होता। उससे गुरु को समाज में यश के स्थान पर सदा ही अपयश मिलता है। अपनी सोसाइटी में भी उसकी और उसके शिष्यों की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। वहाँ पर भी उसकी असफलता ही प्रमुख विषय बना रहता है।
         इस प्रकार की मन्दबुद्धि वाले शिष्य प्राचीनकाल में गुरुकुल में गौवें चराया करते थे। उनका सारा समय ऐसे ही व्यर्थ चला जाता था।अब जब कोई कुमति ज्ञानार्जन करना ही न चाहे तो गुरु लाख अपना सिर पटक ले, कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। इसलिए उपयुक्त यही है कि उसकी ओर से अपना ध्यान हटाकर योग्य को ज्ञान का लाभ दिया जाए। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मन्दमति के लिए प्रयास करना छोड़ दिया जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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