मेरा यह मन एक स्वच्छ दर्पण है
उसमें तुम्हारी ही छवि निहारती हूँ
जब तुम निशि-दिन मेरे साथ रहो
मैं दुनिया की परवाह क्योंकर करूँ।
देखती हूँ पीछे मुड़कर जब तुम्हें
वहाँ तुम्हारा अक्स ही दिखता है
वैसा ही चमकता औ दैदीप्यमान
नजर नहीं ठहरती मेरी तुम पर।
मेरा हाथ थामकर जब चलते हो
उस पल जाने कहाँ खो जाती हूँ
किसी ओर ही नई सी दुनिया में
अपने से कर लेती हूँ साक्षात्कार।
बस ऐसे ही थाम करके ले चलो
अपने बनाए जहाँ से कहीं दूर
जहाँ मैं तुम्हें जी भरकर निहारूँ
पाकर तेरा साथ जन्म-जन्म तक।
मिट जाएँ सारे दुख और सन्ताप
बहुत थक चुकी हूँ दुनियादारी से
मिल जाए तेरी पावन गोद मुझे
चिरकाल तक आराम करने हेतु।
न कोई आस रहे न प्यास ही रहे
तेरे सान्निध्य से बढ़कर जीवन में
नहीं कोई बन्धन मुझे बाँध सके
तेरी कृपा औ बस तेरा सहारा रहे।
चन्द्र प्रभा सूद
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