महापुरुष जो भी समाज सुधार के कार्य करते हैं, उन्हें उस समय समझ पाना शायद कठिन कार्य होता है। तत्कालीन समाज उन्हें विद्रोही की संज्ञा से अभिहित करता है। आने वाले युगों में उन कार्यों का मूल्यांकन जब किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि उनके जीवन का सार क्या था? अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने इन कार्यों के लिए कितना विरोध झेला होगा? फिर भी वे चट्टान की भाँति बिना डरे अडिग रहते रहे हैं। समाज की कठोर आलोचना से निर्लिप्त रहकर अपने उद्देश्य से वे कभी नहीं भटके।
कबीरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का मैं यहाँ जिक्र करना चाहती हूँ। यह घटना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक बार गुरु रामानन्द जी ने कबीरदास से कहा, "कबीर, आज श्राद्ध का दिन है और पितरो के लिए खीर बनानी है। जाओ खीर के लिये दूध ले आओ?"
कबीर उस समय केवल नौ वर्ष के थे। वे दूध का बरतन लेकर चल पडे। चलते-चलते उन्हें एक मरी हुई गाय दिखाई दी। कबीर ने आसपास से घास उखाड कर, गाय के खाने के लिए डाल दी और वहीं पर बैठ गए। दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।
काफी देर हो गयी कबीर लौटे नहीं तो गुरु रामानन्द ने सोचा पितरों को खिलाने का समय हो गया है। रामानन्द जी दूध लेने खुद ही चल पड़े। उन्होंने देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखकर बैठे हुए हैं।
गुरु रामानन्द जी बोले, "अरे कबीर तू दूध लेने नही गया?"
कबीर बोले, "स्वामी जी, ये गाय पहले घास खाएगी तभी तो दूध देगी।"
रामानन्द ने कहा, "अरे मूर्ख, ये गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी?"
कबीर ने उत्तर दिया, "स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है। जब आज मरी हुई गाय घास नही खा सकती तो आपके सालों पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे?"
यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये। उन्हें अपनी भूल का अहसास हो गया। कबीरदास जी का मानना है कि घर पर जो भी जीवित बुजुर्ग हैं, सदा उनकी सेवा करनी चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध करना कहलाता है। उनके परलोक सिधार जाने के पश्चात कितना भी प्रदर्शन क्यों न कर लिए जाएँ, वे सब व्यर्थ होते हैं। जीवित पितरों को जो श्रद्धापूर्वक समर्पित किया जाता है, उसी का जीवन में महत्त्व होता है, समाज में अपनी नाक ऊँची करने वाले शेष सब कार्य आडम्बर कहलाते हैं।
सन्त कबीर जी ने इस विषय पर बहुत ही बेबाकी से, बिना किसी के प्रभाव में आए अपने विचार प्रस्तुत किए हैं-
माटी का एक नाग बना के पूजे लोग लुगाया।
जिन्दा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।।
जिन्दा बाप कोई न पूजे मरे बाद पुजवाया।
मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।।
यह दुनिया कितनी बावरी हैं जो पत्थर पूजे जाय।
घर की चकिया कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।।
अर्थात् मिट्टी का नाग बनाकर नागपंचमी के दिन स्त्री, पुरुष सब उसकी पूजा करते हैं। परन्तु यदि जिन्दा साँप घर में निकल आए तो लाठी लेकर उसे धमकाते हैं, घर से बाहर निकलकर चैन लेते हैं। जीवित माता-पिता को लोग पूछते नहीं हैं। उनके मरने के बाद, उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ करवाते हैं, ब्राह्मणों को भोजन खिलाते हैं। मुट्ठीभर यानी थोड़े से चावल लेकर कौवे को अपना बाप बनाते हैं। इस दुनिया के लोग इतने बाँवरे हैं जो पत्थर की पूजा करने जाते हैं। घर में पड़ी हुई उस चकिया को वे नहीं पूछते जिसका पीसा हुआ अन्न खाकर उस घर के सभी सदस्य पुष्ट होते हैं।
आशा है कि सभी सुधीजन कबीरदास जी के इन विचारों को सम्मान देंगे। इन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेंगे। अनावश्यक आडम्बरों का पालन करने के स्थान पर इन रूढ़ियों को त्यागने में ही समाज का हित निहित है। आखिर कब तक हम इन थोथी रूढ़ियों के मकड़जाल में उलझे रहकर अपने वास्तविक दायित्वों से मुख मोड़कर अनजान बने रहेंगे।
अपनी आने वाली पीढ़ी को यह संस्कार देने चाहिए कि घर में बैठे जीवित माता-पिता सबसे बड़े देवता हैं। उनकी सभी सुख-सुविधाओं के ध्यान रखना चाहिए। उनके लिए जो भी करने है, उनके जीते जी कर लो। उनके दुनिया से विदा हो जाने के पश्चात जो भी किया जाता है, वह उनके किसी काम नहीं आता। मन का कोई कोना अवश्य रीता रह जाता है कि काश उनके जीते जी कुछ कर लिया होता। समय रहते अपने दायित्वों को समझने में ही भला है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 10 मार्च 2019
पितरों के लिए खीर
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