विजयदशमी का पर्व हम सभी ने कल बड़े पारंपरिक तौर-तरीके व उत्साह से मनाया व मिठाई भी खाई। विचार इस प्रश्न पर करना है कि किस हद तक हम इसे मनाने में सफल हुए?
रावण दहन करके हम आंतरिक प्रसन्नता का अनुभव करते है। पर जो रावण का प्रतीक बुराइयाँ हमारे अंदर डेरा जमाए बैठी हैं उनके बारे में हम सजग हैं या नहीं- यह चिन्तन का विषय है।
अभी-अभी नवरात्रों के व्रत संपन्न हुए। यदि हम यह व्रत ले पाएँ कि अपनी एक बुराई को दूर करने का ईमानदारीपूर्वक यत्न करेंगे तभी इन नौ दिनों के व्रतों की सार्थकता है अन्यथा ये मात्र ढकोसला बनकर रह जाएंगे। इसी तरह यदि हम वर्ष अपने अंदर पलने वाली बुराइयों में से केवल एक बुराई का भी अंत कर सकें तो धीरे-धीरे अपने अंत:करण को शुद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे।
मन के शुद्ध होने पर हमें यह दुनिया और भी खूबसूरत लगने लगेगी। ऐसा महसूस होगा कि चारों ओर का वातावरण स्वच्छ व उत्साहवर्धक हो गया है। हम और अधिक स्फूर्ति से जीवन में आगे बढ़ेंगे। इस तरह अपनी सोच में यदि बदलाव हम ला पाएँ तो इस धरा पर हमारा जन्म लेना सार्थक हो जाएगा।
शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014
पर्व की सार्थकता
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