स्त्री को हमेशा से ही दोयम दर्जा दिया जाता है। पुरुषवादी सोच उस पर हमेशा हावी रही। कहने को तो वह लक्ष्मी है, सरस्वती है, दुर्गा-काली है पर क्या जीवन में उसे वाकई वह मुकाम मिल पाता है? शायद नहीं। जब तक पुरुष के हाथ की कठपुतली बनकर रहे तो वह सती-सावित्री व पूज्या कहलाती है परंतु यदि वह अपनी इच्छा से कोई भी कार्य करना चाहे तो न जाने किन-किन विशेषणों से उसे नवाजा जाता है।
हमारे ग्रंथ उसे चाहे देवता का ओहदा दे दें पर दूसरी तरफ उसे यह कहकर भी उसे कम अपमानित नहीं किया जाता है-
स्त्रिय: चरितं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य:।
अर्थात् स्त्री का चरित्र देवता नहीं जान सकते तो मनुष्य कैसे समझें?
रामायण काल को ही देखें जिन्हें हम भगवान कहते हैं उनका अपनी पत्नी के प्रति कैसा रवैया था। जो पत्नी सीता ने चौदह वर्ष उनके साथ वनों में भटकी, उनसे बदला लेते रावण की कैद की जिल्लत भोगी पर जब राज्य भोगने का समय आया तो उस निर्दोष को गर्भावस्था में बिना दोष बताए जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया गया। राम ने सीता के परित्याग के बाद कैसा जीवन जिया इस विषय की चर्चा करना मैं आवश्यक नहीं समझती। उधर दूसरी ओर लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला और भरत की पत्नी माण्डवी को बिना किसी अपराध के दण्ड भुगतना पड़ा।
इसी तरह महाभारत के समय भी उसे पुरुष ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते बलि का बकरा बनाया गया और जुए तक में दाँव पर लगाया गया। चाहे सत्यवादी हरिश्चन्द्र की पत्नी तारामती हो जिसे बेच दिया गया या गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या हो उसे जड़वत जीवन बिताना पड़ा। कितनी ही पत्नियों को उनके पतियों ने अकारण बिना बताए सोते हुए ही छोड़ दिया सारा जीवन पीड़ा भोगने के लिए।
इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से जहाँ उसके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया गया। उसके जज्बातों से खिलवाड़ किया गया। कहने भर को वह आज आजाद है, उसकी मर्जी से सब कुछ होता है पर यह वास्तविकता नहीं है। वह आज भी पुरूष की गुलामी भोगने को विवश है। उसका अपना अस्तित्व टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने को विवश है।
पता नहीं पुरुषवादी सोच बदलेगी या नहीं। नारी की उसके हिस्से की खुशियाँ बरकरार रहेंगी या नहीं।
मैं बहुत आशावादी हूँ। मेरी सोच भी बहुत सकारात्मक है परंतु जमीनी हकीकत से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। अपने ईर्दगिर्द जब यह सब घटता है तो मन में चुभन महसूस होती है। ये उदगार उसी मानसिक व्यथा का कुछ अहसास भर हैं। इसीलिए आपके साथ इन विचारों को साँझा कर रही हूँ। जानती हूँ कि भाषा थोड़ी कटु हो गई है पर मन की व्यथा का यथार्थ चित्रण है। आशा है आप सब उसी भाव से इसे पढ़कर कुछ सोचने को विवश होंगे।
यह भी आवश्यक नहीं कि आप मेरे विचारों पर अपनी मोहर लगाएँ। पर इस लाइन पर सोचिए अवश्य।
बुधवार, 29 अक्टूबर 2014
स्त्री को दोयम दर्जा
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