सोमवार, 21 अक्तूबर 2019
मायके और ससुलाल में सामञ्जस्य
रविवार, 20 अक्तूबर 2019
ताली एक हाथ से नहीं बजती
शनिवार, 19 अक्तूबर 2019
अच्छाई और बुराई
शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019
बूँद बूँद से घट भरता
गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019
सागर की तरह गम्भीर
बुधवार, 16 अक्तूबर 2019
श्राद्ध किसलिए करना?
श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय अनेक विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था, अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।
कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। उस पर अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने के लिए जोड़ दिया-
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
अर्थात् वैदिक कर के लिए हिंसा हिंसा नहीं कहलाती। जबकि वेदादि सभी शास्र किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करते हैं।
जैन धर्म और बौद्ध धर्म का जब प्रादुर्भाव हुआ, तो उन्होंने इस हिंसा का विरोध किया। उस समय उनका तिरस्कार यह कहकर किया-
नास्तिकों हि वेदनिन्दक:।
अर्थात् वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक है। महात्मा बुद्ध के इस बौद्ध धर्म को कितने ही देशों ने अपनाया।
इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हो सका, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से श्राद्ध भी एक कुरीति है।
कुछ दिन पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कभी नहीं कहते कि कौवौ को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।
हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि हम लोगों ने अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।
कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।
पीपल और बड़ के पौधे किसी ने नहीं लगाए और न ही किसी को लगाते हुए देखा है। क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश कर लीजिए परन्तु नहीं लगेगी। कारण, प्रकृति ने इन दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के टेटे कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर ये दोनों वृक्ष उगते हैं।
पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण भी अपरम्पार कहे जाते है।
इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना हमारा कर्त्तव्य है। यह सम्भव कैसे होगा? इस प्रश्न पर विचार करना ही होगा।
मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है।
इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत आवश्यक होता है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए हम मनुष्यों को कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।
ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखेंगे तो अपने मनीषी पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध करने का उपदेश दिया था। इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।
अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्धविश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019
बच्चा बूढ़ा एकसमान
सोमवार, 14 अक्तूबर 2019
आकर्षक पैकेजिंग
आकर्षक पैकिंग को देखकर हम बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं और यह मान लेते हैं कि इसके अन्दर रखी वस्तु भी उतनी ही अच्छी क्वालिटी की होगी जितनी यह दिखाई देती है। परन्तु हमेशा ही ऐसा नहीं होता है। बहुधा हम लोग धोखा खा जाते हैं और अपने धन एवं समय की हानि कर बैठते हैं।
उस समय हम स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। हमें इतना क्रोध आता है कि हमें ठगने वाला यदि हमारे सामने आ जाए तो उसका सिर फोड़ दें। परन्तु यह तो समस्या का हल नहीं है। आज किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष ने हमें धोखा दिया है तो इसकी क्या गारंटी है कि कोई और उसके झांसे में आकर भविष्य में ठगा नहीं जाएगा।
समाचार पत्रों में हमें अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई देते हैं जो किसी को भी बहुत प्रभावित कर लेते हैं। उनमें तरह-तरह के लालच परोसे जाते हैं।
आप लोगों को शायद याद होगा कि कुछ वर्ष पूर्व प्लांटेशन वालों ने सबको बहुत भरमाया था। समयावधि का तो मुझे ध्यान नहीं जिसके पश्चात इन्वेस्ट की गई राशि से कई गुणा राशि लौटाने का वादा किया गया था। उसके बाद सब कहाँ चले गए किसी को पता नहीं।
गली-मुहल्लों में भी बहुत बार ठगने की नियत से लोग आते हैं जो वादा करते हैं कि सोने को दुगना कर देंगे। सोने को दुगना तो क्या करेंगे परन्तु वे ठग कर चले जाते हैं।
इसी प्रकार बहुत-सी ऐसी कम्पनियाँ हैं जो उनके पास पैसा इन्वेस्ट करने वालों को बैंक की ब्याज दर से दुगना या तिगुना देने का वादा करती हैं। पर फिर थोड़े दिनों के पश्चात ही लोगों की मेहनत की कमाई बटोरकर रातोंरात गायब हो जाती हैं। अब ढूँढ लीजिए उन मक्कारों को।
ऐसे ही कई शेयर या डिविडेंड ऐसे भी हैं जिनमें यह पंक्ति लिखी रहती है कि मार्केट रिस्क इसमें रहेगा। तो इनमें पैसा इंनवेस्ट कर करने का तो मुझे कोई औचित्य समझ नहीं आता।
इसी प्रकार सस्ते व किश्तों पर प्लाट बेचने वाले विज्ञापन भी आकर्षित करते हैं क्योंकि सिर पर छत तो हर व्यक्ति चाहता है। वहाँ लोग पैसा फंसा देते है और जब कब्ज़ा लेने की बारी आती है तो पता चलता है कि वहाँ या तो ऐसी कोई जमीन नहीं जो उन्होंने खरीदी थी या उस जमीन को कई लोगों को बेचा गया है।
लोगों को विदेश भेजने का धन्धा भी जोरों पर चलता है। बिना पूरे कागजों के विदेश जाने वालों का क्या हाल होता है इसके उदाहरण हमें अपने आसपास ही मिल जाते हैं।
यह कुछ उदाहरण मैंने लिखे हैं जहाँ फंसकर मनुष्य न घर का रहता है न घाट का। एक व्यक्ति जब तअनजाने में इस तरह के प्रलोभनों में फंस जाता है तो उसका बाहर निकलना उसके ठगे जाने के बाद ही होता है। उस समय यदि कोई साथी या रिश्तेदार उन्हें चेतावनी देने का प्रयास करता है तो उसे वे अपना शत्रु समझते हैं। उन्हें उस समय लगता है कि सभी उसकी तरक्की से जलते हैं। कोई नहीं चाहता कि वह सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न हो जाए।
उस समय वे सोचते हैं कि यह सब प्राप्त करना उनके बूते की बात नहीं है इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। उनके लिए वे प्रायः इन मुहावरों का प्रयोग करके उनकी हंसी उड़ाते हैं- 'अंगूर खट्टे हैं। और हाथ न पहुँचे थे कौड़ी।'
तुच्छ लालच में आकर इन धोखेबाजों से बचना चाहिए। अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को यूँ ही बरबाद नहीं करना चाहिए।
बाद में पुलिस स्टेशन में जाकर कितनी ही शिकायतें कर लीजिए पर वे लुटेरे तो लूटकर कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। उन्हें पकड़ने में वर्षों लग जाते हैं। केवल सरकार या पुलिस के भरोसे न बैठकर स्वयं अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। अपने धन को व्यर्थ न गंवाकर उसे अपने पास या बैंक में सम्हाल कर रखना चाहिए ताकि वह हमारे सुख-दुख में काम आ सके। इन लोगों के विषय में हम यही कह सकते हैं-
ऊँची दुकान फीका पकवान।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 13 अक्तूबर 2019
मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा
इस कथन से कोई भी मनुष्य इन्कार नहीं कर सकता कि मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख मित्र अपनी मूर्खता के कारण कब वार कर दे यह कोई नहीं जान सकता। इसका कारण यही है कि ऐसा मित्र स्वयं ही नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है? वह जानबूझकर हमारा अहित नहीं करता अपितु अनजाने में उससे गलती हो जाती है। वह अपने ही प्रिय मित्र पर घात तक कर बैठता है।
अपने शत्रु के विषय में हम जानते हैं कि वह तो दुश्मनी निभाएगा ही। उससे हम सदा ही सतर्क रहते हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि शत्रु वार करे उससे पहले हम चौकस हो जाएँ। ऐसा करने से शत्रु के वार का हम पर प्रभाव कम पड़ता है। वैसे तो हमारा यत्न यही रहता है कि उसे ऐसा कोई मौका न दिया जाए कि वह हम पर हावी हो जाए।
एक कथा प्रचलित है कि किसी राजा ने एक बन्दर को पाला था। उसे वह मित्र की तरह मानता था। वह बन्दर राजा की बहुत सेवा करता था। एक बार राजा सो रहा था और बन्दर उसे पंखा कर रहा था। इतने में एक मक्खी उड़कर राजा के मुँह पर इधर-उधर बैठने लगी। बन्दर उसे उड़ाने का यत्न करने लगा पर वह मक्खी इतनी ढीठ थी कि वह मान ही नहीं रही थी। मक्खी की इस ढिठाई पर बन्दर को क्रोध आ गया और तलवार लेकर उसे मारने के लिए सोचने लगा। इसी बीच राजा की नींद खुल गयी। उसने बन्दर के हाथ में तलवार देखकर सोचा कि मूर्ख मित्र से तो शत्रु ही अच्छा है। यदि मैं समय पर न जागता तो यह बन्दर मुझे मार ही डालता।
यह कथा हमें समझाने के लिए है कि क्रोध में आकर मूर्ख मित्र कब हम पर वार कर दे पता नहीं चलता। शत्रु के वार करने का तो हमें हमेशा अंदेशा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि शत्रु को छुपकर वार करने की आवश्यकता नहीं होती। उसका तो खुला चैलेंज होता है।
अतः इस प्रकार मूर्ख मित्र के हाथों विनाश करवाने से अच्छा है कि शत्रु से ही हाथ मिला लिया जाए और उसे अपना बना लिया जाए।
मूर्ख को मित्र बनाना चाहें तो अवश्य बनाइए। पर उससे समझदारी की उम्मीद रखना मनुष्य की मूर्खता है। हाँ, अपनी जी हजूरी आप उससे करवा सकते हैं। उसे अपना चमचा बना सकते हैं। अपने बराबर बिठाकर परामर्श नहीं कर सकते। उससे दूरी बनाकर रखने में ही सदा अपनी भलाई समझनी चाहिए।
आज हम राजनीति में देखते हैं कि एक दल के सदस्य दूसरे दल वालों को अनाप-शनाप कोसते हैं, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है और आम जनों के सामने ऐसा प्रदर्शन करते हैं कि मानो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँगे। परन्तु जब किसी कारणवश अपना दल छोड़कर कर किसी अन्य दल में जाकर शामिल हो जाते हैं तो कुछ देर पहले वाले सब प्रसंगों को भुलाकर नए दल का गुणगान करते नहीं थकते। अपने पुराने दल के साथियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो पहले इस दल के सदस्यों के साथ करते थे।
इस प्रकार रातों-रात सभी समीकरण बदल जाते हैं। जब हमारे पथप्रदर्शक नेता लोग शत्रु को मित्र बनाने में संकोच नहीं करते तो आम जन को भी अपने शत्रु से हाथ मिलाने से बचना नहीं चाहिए।
यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम कैसे मित्रों का चुनाव करना चाहते हैं? जैसा रुचिकर हो वैसा मानकर अपने भविष्य के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 12 अक्तूबर 2019
आँखोँ देखी कानों सुनी
आँखों देखी और कानों सुनी हुई बात पर भी हमें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि हम अधूरी बातें सुनकर ही किसी के प्रति अपनी राय बना लेते हैं, जिसका दुष्परिणाम हमें समय आने पर भुगतना पड़ता है।
लोग सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी व्यक्ति के विषय में धारणा बना लेते हैं, जबकि वास्तविकता से उसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं होता। सच्चाई के सामने आते ही मनुष्य को शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है और फिर वह बगलें झाँकने लगता है। ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करना चाहिए।
आजकल टी.वी. पर अक्सर यह सब दिखाई देता है। वहाँ किसी वाक्य विशेष पर टीका-टिप्पणी अथवा चर्चाएँ नित्य होती रहती हैं। बाद में सम्बन्धित व्यक्ति यह कहकर अपनी सफाई देता है कि मैंने जो इस वाक्य से पहले कहा था या उसके बाद, सारे प्रसंग को मिलाकर देखिए फिर कथन का अर्थ कीजिए। इस प्रकार कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
सयाने हमें सोच-समझकर बात करने के लिए कहते हैं-
पहले तोलो फिर बोलो।
यानि कि एक-एक शब्द को इस प्रकार सोचकर बोलो जिससे कोई उन शब्दों को अपने अनुसार ढालकर आपको अपमानित न कर सके। इसी कड़ी में आगे चेतावनी देते हुए मनीषी कहते हैं-
दीवारों के भी कान होते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि दीवारों के कान लग गए हैं और उन्होंने ने सुनना शुरु कर दिया है। इसका अर्थ है कि कमरे के बाहर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति शायद बात सुन रहा होगा। चोरी-छिपे दूसरों की बातों को सुनने वाले अक्सर गच्चा खा जाते हैं। पूरी बात न सुन पाने के कारण वे अधूरे विचारों को ही ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं तथा शत्रुता तक कर बैठते हैं। पूर्वाग्रह पाले हुए वे आजन्म इसे निभाने का प्रयास करते हैं।
घर-परिवार में, बन्धु-बान्धवों में अथवा कार्यक्षेत्र में हर स्थान पर ही यह समस्या सामने आती है। लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में इस प्रकार के कुत्सित कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
दूसरों की बातों को तोड़-मरोड़कर अथवा नमक-मिर्च लगाकर किसी व्यक्ति विशेष की छवि घर-परिवार में या साथियों में धूमिल करना चाहते हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि उन्हीं की तरह कोई अन्य व्यक्ति उनके साथ भी ऐसा ही घृणित खेल खेल सकता है। इस सबसे बचने के लिए मनुष्य को हर कदम पर सदा सतर्क रहना चाहिए। उसे सदा अपनी आँखों और कानों को खुला रखना चाहिए।
मनुष्य को किसी के भी मुँह से कोई बात सुनकर तैश में नहीं आना चाहिए। उसे बात की तह तक जाना चाहिए। हो सकता है कि कहने वाले का वह तात्पर्य कदापि न हो जैसा उसने सुन-समझ लिया हो। यदि बात को गहराई से समझने का मन न हो तो उस व्यक्ति से सीधी बात करके तथ्य को जाना जा सकता है।
दूसरी बात यह कि दूसरे व्यक्ति को स्पष्टीकरण का मौका भी दिया जाना चाहिए। इससे अनावश्यक मन-मुटाव से बच सकते हैं। ऐसा यदि कर लिया जाए तो आपसी वैमन्स्य नहीं बढ़ता। न अपने मन को कष्ट होता है और न किसी दूसरे का दिल दुखता है। ऐसे समझदार व्यक्ति की संसार में सभी लोग सराहना करते हैं कि बड़ी सूझबूझ से समस्या को हल कर लिया।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019
खाली बैठना
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि खाली रहना अर्थात निठल्ला बैठना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है। परिश्रम करते-करते जब थक जाते हैं तब हम कहते हैं कि अब हमें ब्रेक चाहिए। थोड़ा-सा विश्राम करके या फिर घूम-फिर कर हम तरोताजा हो जाते हैं और फिर अपने काम में उसी ऊर्जा से वापिस जुट जाते हैं।
मैं कभी-कभी उन लोगों के विषय में सोचती हूँ जो सवेरे से शाम तक कोई कार्य नहीं करते। यानि निरुद्देश्य जीवन जीते हैँ। सारे दिन में बस खा लिया, गप लगा ली और सो गए। बहुत हुआ तो दोस्तों के साथ शापिंग कर ली या फिर क्लब की सैर कर ली। इस प्रकार का जीवन जीने में न कोई जिम्मेदारी होती है और न ही कोई आकर्षण होता है।
कुछ गृहिणियाँ जो ईश्वर की कृपा से समृद्ध हैं और घर पर रहती हैं। उनके घर में नौकर-चाकर काम करते हैँ। उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कि बच्चे स्कूल गए हैँ या छुट्टी कर गए। उन्होंने कुछ खाया भी है या नहीं। नौकरों ने जो कुछ उल्टा-सीधा बना दिया वह बच्चे को पसन्द आया या नहीं। उसने वह खाया था क्या? उनका पति अपने व्यापार के लिए जाने से पहले कुछ खाकर गया है या बिना खाए कब घर से चला गया?
इसी प्रकार जो पुरुष भी खाली बैठे रहते हैं वे भी अपने जीवन से निराश हो जाते हैं। कुछ लोग ताश खेलकर या व्यर्थ निन्दा-चुगली करने लगते हैं। नवयुवा जो इधर-उधर डोलते रहते हैं, उन्हें सब टोक देते हैं कि कोई काम-धन्धा करो, अवारा मत फिरो। स्पष्ट है कि खाली बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति सबकी आँखों में खटकता है। अपना कार्य करने में व्यस्त व्यक्ति को ही सब पसन्द करते हैं।
खाली बैठने के कारण मनुष्य धीरे-धीरे अनावश्यक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है। उसका एक काम और बढ़ जाता है। वह काम है रोज डाक्टरों के चक्कर काटना। जबकि उनकी बीमारी होती है, उनका खालीपन।
खाली बैठकर अनावश्यक सोचते रहने से मन और शरीर दोनों प्रभावित होते हैं। विचार प्रवाह प्रायः नकारात्मक होने लगता है सकारात्मक नहीं। सयाने कहते हैं कि-
खाली घर भूतों का डेरा।
अर्थात् खाली पड़ा हुआ घर हमेशा भूतों की निवास स्थली बन जाता है।
कहने का तात्पर्य है यह है कि वहाँ उस घर में नकारात्मक ऊर्जा आने लगती है। जब वहाँ चहल-पहल होने लगती है तब स्थितियाँ अलग हो जाती हैं। वही हाल मनुष्य के खाली दिमाग का भी होता है। इसीलिए सयाने कहते हैं-
खाली दिमाग शैतान का घर।
फालतू बैठे सोचते रहने से दिमाग में प्रायः सकारात्मक विचार नहीं आ पाते, बल्कि नकारात्मक विचार घर करने लग जाते हैं। उस समय ऐसा लगता है मानो मस्तिष्क की नसें फटने लगी हैं। सारा शरीर बेकार-सा हो रहा है।
ऐसी स्थिति में जो स्वयं को सम्हाल पाते हैं, वे बच जाते हैं और जिनका अपने ऊपर वश नहीं रहता, वे समय बीतते मनोरोगी बन जाते हैं। नित्य डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए धन व समय को व्यय करते हैं।
अपने आप को किसी सकारात्मक कार्य में लगाए रखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो किसी हाबी में स्वयं को व्यस्त रखना चाहिए। किसी सामाजिक कार्य को करते हुए भी व्यस्त रहा जा सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि इस दिमाग को खाली मत रहने दो। जहाँ इसे मौका मिला यह जिन्न की तरह तोड़फोड़ करना आरम्भ कर देगा। जितना अधिक यह व्यस्त रहेगा, उतना ही खालीपन का या अकेलेपन का अहसास नहीं करेगा। यह कहने का अवसर नहीं मिलेगा कि क्या करे बोर हो रहे हैं। इसे भी खुराक मिलती रहनी चाहिए अन्यथा यह बागी होकर कहर ढाने लगता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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