मनुष्य कितना कुशाग्र बुद्धि है, यह उसकी ज्ञान प्राप्ति की शक्ति पर निर्भर करता है। वर्षों विद्यालय में पढ़ने के उपरान्त भी आवश्यक नहीं कि वह योग्य बन ही गया हो। विद्यालय की शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी यह उस बच्चे का दुर्भाग्य होता है कि वह किसी भी कम्पीटिशम में सफल नहीं हो पाता। इसके विपरीत कुछ बच्चे परिश्रम करके हर कम्पीटिशन में सफल होकर मनचाहे क्षेत्र में चले जाते हैं।
कुछ माता-पिता अपने पैसे के दम पर कैपिटेशन देकर अपने नालायक बच्चों को मनचाहे क्षेत्र में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेज देते हैं। परन्तु उनमें योग्यता तो नहीं आ पाती। इसके लिए 'थ्री इडियट' फ़िल्म का उदाहरण लिया जा सकता है। इसी तरह पैसे के बल पर जबरदस्ती डॉक्टर बने 'मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.' फिल्म का उदाहरण भी ले सकते हैं। हम कह सकते हैं कि योग्यता पैसे से खरीदी नहीं जा सकती, उसके लिए दिन-रात एक करके ज्ञानार्जन किया जाता है।
निम्न श्लोक में कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में इस सत्य को उजागर किया है-
अधीत्य चतुरो वेदांसर्वशास्त्राण्यनेकश:।
ब्रह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ।।
अर्थात् चारों वेदों और समस्त शास्त्रों का अनेक बार अध्ययन करने के उपरान्त भी ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान मनुष्य को हो जाए, यह उसी प्रकार आवश्यक नहीं है जिस प्रकार बर्तन (पतीले) से किसी व्यञ्जन को परोसने के लिए प्रयुक्त पात्र (कड़छी या चम्मच) उस व्यञ्जन का स्वाद नहीं जान पाता।
इस श्लोक के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि पतीले या डोंगे में रखी दाल या सब्जी का स्वाद उसे परोसने वाले चम्मच या कड़छी को नहीं होता। उसी प्रकार शास्त्रों में क्या लिखा है, मूर्ख व्यक्ति नहीं समझ सकता। उसे समझने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है। तभी मनुष्य विद्वान बनकर उनका सार तत्त्व जान सकता है।
वर्षों गुरुकुल में वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरान्त भी जब बोपदेव को लगा कि उन्हें कुछ भी नहीं आता, तो उन्होंने घर वापिस लौटने का निश्चय किया। अपने गुरु से आज्ञा लेकर वे घर की ओर चल ही पड़े। रास्ते में एक कुँए के पास विश्राम करने के लिए रुके। उन्होंने देखा कि कुँए के जिस भाग पर रस्सी पानी लाते समय बारबार घर्षण कर रही है, वहाँ एक निशान बन रहा है।
उस निशान को देखकर उन्हें ज्ञान हो गया कि बारबार अभ्यास करने से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके बाद वे अपने गुरुकुल वापिस गए। कठोर अभ्यास करके ही उन्होंने संस्कृत व्याकरण लिखी। इसी अभ्यास की बात को एक दोहे के माध्यम से कविवर वृन्द ने कहा है-
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात से सिल पर पड़त निसान।।
सारांश यह है कि निरन्तर अभ्यास करने से एक अज्ञ व्यक्ति और एक कुशल व्यक्ति दोनों ही योग्य बन सकते हैं। अभ्यास की आवश्यकता शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के कार्यों में समान रूप से होती है। लुहार, बढ़ई, सुनार, दर्जी, धोबी आदि का कार्य भी परिश्रम साध्य है। ये कलाएँ भी बार-बार अभ्यास करने से ही सीखी जा सकती हैं ।
सयाने कहते है 'जितना गुड़ डालो, उतना मीठा होता है।' यह उक्ति सत्य ही है। ज्ञानार्जन के लिए जितना अभ्यास और परिश्रम किया जाए, उतना ही मनुष्य ज्ञानी बनता है। ज्ञान प्राप्ति की कोई आयु नहीं होती। ब्रह्माण्ड में इतना ज्ञान है, सारी आयु मनुष्य लगा रहे उसे प्राप्त नहीं कर सकता। पर जितना भी ज्ञान वह अर्जित कर, उसमें उसे पूर्ण योग्यता होनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 2 अक्तूबर 2019
ज्ञान प्राप्ति की सामर्थ्य
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