श्राद्ध के लिए कौवों को आमन्त्रित किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य पहलू भी है, जो मुझे अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। भारत की सबसे त्रासदी यह है कि महाभरत के युद्ध के समय अनेक विद्वान मारे गए। इसलिए विद्वानों के न रहने पर, तथाकथित विद्वानों ने शास्त्रों के अर्थ मनमाने ढंग से किए। उस समय स्वार्थ हावी हो चुका था, अतः उनका लाभ किसमें है, इसके अनुसार ही शास्त्रों का आदिभौतिक अर्थ किए गए। उनके आदिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों की समीक्षा वे पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण करने में सक्षम नहों हो सके।
कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वेदों में गो और अश्व आदि शब्द आए हैं। साथ ही कहा गया कि गाय और अश्व की बलि देनी चाहिए। इस अर्थ को लेकर उन तथाकथित विद्वानों ने गाय और घोड़े की यज्ञ में बलि देनी आरम्भ कर दी। जबकि निहितार्थ कि गाय और घोड़े हमारी इन्द्रियों के प्रतीक हैं, उनको नियन्त्रित करो। उन लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया। उस पर अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने के लिए जोड़ दिया-
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
अर्थात् वैदिक कर के लिए हिंसा हिंसा नहीं कहलाती। जबकि वेदादि सभी शास्र किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करते हैं।
जैन धर्म और बौद्ध धर्म का जब प्रादुर्भाव हुआ, तो उन्होंने इस हिंसा का विरोध किया। उस समय उनका तिरस्कार यह कहकर किया-
नास्तिकों हि वेदनिन्दक:।
अर्थात् वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक है। महात्मा बुद्ध के इस बौद्ध धर्म को कितने ही देशों ने अपनाया।
इस प्रकार हमारे देश में कुरीतियों का जन्म हुआ। कुछ कुरीतियों का हमारे महापुरुषों के अथक प्रयासों से अन्त हो सका, पर कुछ आज भी हमारे गले की फाँस बनी हुई हैं। उनमें से श्राद्ध भी एक कुरीति है।
कुछ दिन पूर्व वाट्सअप पर बिना किसी के नाम के निम्न लेख पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। आप सुधीजनों के साथ इसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। उस लेख के सार को अपने विचारों के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
हमारे ऋषि मुनि मूर्ख नहीं थे, बल्कि अद्वितीय प्रज्ञा के धनी थे। वे कौवौ के लिए खीर बनाने के लिए हमें क्योंकर कहते। वे हमें कभी नहीं कहते कि कौवौ को खिलाने से, वह खीर हमारे पूर्वजों को मिल जाएगी। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व इस असार संसार से विदा ले चुका है और पता नहीं कितने जन्म ले चुका है, वह किसकी खीर या भोजन को पाने के लिए बैठा हुआ होगा।
हमारे ऋषि-मुनि बहुत क्रांतिकारी विचारों के थे। वे इस प्रकार अनर्गल प्रलाप नहीं कर सकते थे और न ही समाज को दिग्भ्रमित कर सकते थे। यदि हम लोगों ने अपने विवेक का सहारा लिया होता, तो इस पर विचार अवश्य कर लेते।
कौवों को श्राद्ध के लिए बुलाने का वास्तविक अर्थ कुछ और ही है। परन्तु तथकथित विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने अर्थ का अनर्थ करके समाज को भी भ्रमित कर दिया।
पीपल और बड़ के पौधे किसी ने नहीं लगाए और न ही किसी को लगाते हुए देखा है। क्या पीपल या बड़ के बीज मिलते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
बड़ या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश कर लीजिए परन्तु नहीं लगेगी। कारण, प्रकृति ने इन दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था की हुई है। इन दोनों वृक्षों के टेटे कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं। उसके पश्चात कौवे जहाँ-जहाँ बीट करते हैं, वहाँ-वहाँ पर ये दोनों वृक्ष उगते हैं।
पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घण्टे ऑक्सीजन छोड़ता है और बड़ के औषधीय गुण भी अपरम्पार कहे जाते है।
इन दोनों वृक्षों को उगाना बिना कौवे की मदद के सम्भव नहीं है, इसलिए कौवों को बचाना हमारा कर्त्तव्य है। यह सम्भव कैसे होगा? इस प्रश्न पर विचार करना ही होगा।
मादा कौवा भाद्रपद महीने में अण्डा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है।
इस नई पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना बहुत आवश्यक होता है, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौओं के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राद्ध के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने के लिए हम मनुष्यों को कहा था, जिससे कौओं की नई पीढ़ी का पालन-पोषण हो सके।
ऐसा श्राद्ध करना प्रकृति के रक्षण के लिए है। जब भी बड़ और पीपल के पेड़ को देखेंगे तो अपने मनीषी पूर्वज ही याद आएँगे, क्योंकि उन्होंने श्राद्ध करने का उपदेश दिया था। इसीलिए ये दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं।
अन्त में मैँ यही कहना चाहती हूँ कि श्राद्ध के वास्तविक अर्थ को जान-समझकर तदनुसार व्यवहार करना आवश्यक है। व्यर्थ ही अन्धविश्वासों की इन बेड़ियों में जकड़ने के स्थान पर स्वयं को इनसे मुक्त करने का समय अब आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 16 अक्टूबर 2019
श्राद्ध किसलिए करना?
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