सम्बन्धों में कभी भी अबोलापन नहीं आना चाहिए। इस अबोलेपन के कारण उनमें दूरियाँ आने लगती हैं। इस प्रकार आपसी तानाकशी हो जाने पर मनमुटाव होने लगता है। धीरे-धीरे मनुष्य अपने आत्मीय रिश्तों को दाँव पर लगा देता है और फिर वह उन रिश्तों को हार जाता है। तब इन्सान को न चाहते हुए भी अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है।
इसलिए सम्बन्धों में वार्तालाप होते रहना चाहिए। हम सब जानते हैं कि यदि कोई घर बहुत समय तक खाली पड़ा रहे तो उसमें जाले लग जाते हैं। इसी तरह इन सम्बन्धों में भी जाले लग जाते हैं। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो सम्बन्धों में परायापन आने लगता है, बन्धु-बान्धवों के साथ रहने वाली गरमाहट शीतलता बदलने लगती है। तब सम्बन्ध बर्फ की तरह कोल्ड हो जाते हैं।
यदि मनुष्य कार्यक्षेत्र की व्यस्तता के कारण अपने धार्मिक, सामाजिक अथवा पारिवारिक दायित्वों का सुचारू रूप से निर्वहण नहीं कर पाता तो उसके मन में एक कसक-सी रह जाती है। उसे एक प्रकार से अपराध बोध होने लगता है। उसके समक्ष मजबूरी के कारण एक प्रकार का लाचारी का भाव रहता है। वह चाहकर भी समय नहीं निकाल पाता।
उसकी यह मजबूरी कोई समझना नहीं चाहता। सबको यही लगने लगता है कि अमुक व्यक्ति ने चार पैसे क्या कमा लिए अथवा मोटी तनख्वाह क्या पाने लगा है, स्वयं को बहुत ही बड़ा आदमी समझने लगा है। इसलिए किसी से मिलना-जुलना उसे भाता ही नहीं है। तभी वह सबसे कन्नी काटता है।
यद्यपि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे सबके साथ मिलना-जुलना, हँसी-मजाक करना अच्छा लगता है। परन्तु अपने कार्य की व्यस्तता के कारण वह अपना मन मसोस कर रह जाता है। कार्य का प्रेशर उस पर हावी रहता है। जिसके कारण वह परेशान रहता है।
न चाहते हुए भी मनुष्य आज मशीन की तरह बनता जा रहा है। महँगाई के कारण घर की व्यवस्थाओं को करने में कठिनाई होने लगी है। हर इन्सान संसार के सारे उपलब्ध सुख-साधन अपने स्वयं के लिए और अपने परिवार के लिए जुटाना चाहता है। वह बच्चों को मँहगे स्कूलों में पढ़ाना चाहता है। जीवन की हर रेस में वह जीतने का भरसक यत्न करता है।
इन सब परिस्थितियों में पति-पत्नी दोनों मिलकर यदि अपने जीवन की गाड़ी न चलाएँ तो बहुत-सी दिक्कतें आड़े आने लगती हैं। इसलिए दोनों को ही घर-परिवार और कार्यंक्षेत्र में होने वाली कठिनाइयों को पार करते हुए दिन-रात जुटे रहना पड़ता है। तभी वे अपने जीवन की इस गाड़ी को सुविधा पूर्वक चला सकने में समर्थ हो सकते हैँ।
इस सारी प्रक्रिया में न उन्हें अपने लिए समय मिल पाता है और न ही दूसरों को समय दे पाते हैं। इसलिए उन्हें घमण्डी, नकचढ़ा आदि कहना उचित नहीं होगा। दूसरे की परिस्थितियों को यदि कोई नहीं समझना चाहते तो कम-से-कम उन लोगों का तिरस्कार तो नहीं करना चाहिए। दूसरों के प्रति सदा सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
यह समस्याएँ तथाकथित उच्च वर्ग में अधिक हैं। परन्तु यहाँ एक बात जोड़ना चाहती हूँ कि आज जीवन की भागमभाग में आपने पड़ोसी तक के विषय में भी लोगों को जानकारी नहीं होती। ऐसी बनती जा रही स्थिति वाकई बहुत दुखदायी है। जिसके विषय में सबके लिए विचार करना अति आवश्यक है।
इन सब स्थितियों के बने रहने पर भी मनुष्य को एक बात अच्छी तरह गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि इन्सान अपने बन्धु-बान्धवों से ही सुशोभित होता है। ये सब उसके सुख और दुख के साथी होते हैं। उन लोगों की मात्र उपस्थिति ही मनुष्य के जीवन में चार चाँद लगाती है। अन्यथा उसके जीवन में एक बड़ा-सा शून्य आ जाता है। सम्बन्धयों का साथ मनुष्य की लोकप्रियता की कसौटी होता है। इसलिए यत्नपूर्वक अपने सम्बन्धियों से सम्पर्क बनाए रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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