इक्कीसवीं सदी में महान वैज्ञानिकों ने जहाँ आश्चर्यजनक चमत्कार किए हैं वहीं दूसरी ओर हम मनुष्य आवश्यकता से अधिक असहिष्णु बनते जा रहे हैं। यह समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा क्यों हो रहा है?
आजकल समाज में जनमानस की बढ़ती हुई असहिष्णुता के समाचार नित्य प्रति टी.वी. पर, समाचार पत्रों में और सोशल मीडिया पर देखे एवं पढ़े जा सकते हैं।
पति या पत्नी के आपसी झगड़े में अथवा विवाहेत्तर सम्बन्ध के चलते पति ने पत्नी की हत्या की या करवा दी। इसी तरह पत्नी ने पति की हत्या की या करवा दी। पति अथवा पत्नी से मनमुटाव हो जाने पर दोनों में से किसी ने अपने बेटों या बेटियों को मार दिया और स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया या फाँसी लगा ली अथवा आत्महत्या कर ली।
पुश्तैनी झगड़ों में किसी की हत्या करना आम बात है। व्यापार में अपने ही पार्टनर की हत्या का षडयन्त्र करके उसे मरवा दिया जाता है। कुछ रुपयों के कारण किसी को मार दिया जाता है। सड़क पर चलती गाड़ी में टक्कर लग जाने पर सामने वाले को पीट-पीटकर मार दिया जाता है। जरा-सी कहासुनी हो जाने पर सामने वाले की हत्या कर दी जाती है।
मौज-मस्ती करते हुए कब तकरार बढ़कर साथी की हत्या करा देती है, पता ही नहीं चलता। राजनैतिक शत्रुता भी इस खेल में पीछे नहीं है। आज विश्व के लिए नासूर बना आतंकवाद धार्मिक कट्टरता का ही विध्वंसक रूप है। इसके अतिरिक्त सयम-समय पर इस धार्मिक असहिष्णुता के कई अन्य रूप भी हमारे समक्ष प्रकट होते रहते हैं।
बच्चे भी आजकल के माहौल में कम असहिष्णु नहीं है। देश और विदेश से ऐसे समाचार मिलते रहते हैं जहाँ बच्चों ने अपने ही साथियों पर स्कूल में गोलियाँ चलाईं अथवा उन पर चाकुओं से वार किया। इससे भी बढ़कर अपने ही अध्यापकों पर चाकुओं से प्रहार करना अथवा उन्हें जान से मार देना भी बच्चों की नृशंसता का ही द्योतक है।
समाज में बढ़ते हुए नित्य प्रति के बलात्कार और अपहरण इसी असहिष्णुता के ही परिणाम हैं। दहेज के कारण अपनी बहुओं को जला देना भी कम नृशंसता नहीं है। एक शक्तिशाली देश दूसरे निर्बल देशों को अपने अधीन करने की फिराक में रहते है।
जल, थल और आकाश भी मानव की इस असहिष्णुता के शिकार बन रहे हैं। हर तरफ जहाँ देखो मारामारी हो रही है। गोले ही बरसते हुए बस दिखाई पड़ते हैं।
इस तरह मनुष्य की असहिष्णुता का परिणाम दो देशों के बीच होने वाले युद्ध भी हैं जिनमें अगणित निर्दोषों के जान और माल की हानि होती है। इसकी भरपाई किसी भी तरह नहीं हो सकती।
अपने दोषों को दूसरों के सिर पर मढ़ने से इसका कोई भी हल निकलने वाला नहीं है। सबसे पहले अपने अंतस में झाँकने की आवश्यकता है। यह विचार भी सबको करना चाहिए कि क्या हममें सहिष्णुता की कमी होती जा रही है? यदि हाँ तो इसका कारण क्या है?
अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का त्याग करना ही इस असहिष्णुता का सबसे बड़ा कारण है। इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवारों का होता जा रहा विघटन भी कम दोषी नहीं है। संयुक्त परिवार में रहते हुए लोगों को मिलजुल कर रहना, एक-दूसरे को बर्दाश्त करना, अपनी प्रिय वस्तुओं को बाँटना, दूसरों की परवाह करना आदि स्वभाविक गुण आ जाते हैं।
आज एकल परिवारों के चलते बच्चे जिद्दी, नकचढ़े, अहंकारी बनते जा रहे हैं। इनमें सहिष्णुता का अभाव है। वे अपनी कोई भी वस्तु किसी से साझा नहीं करना चाहते। हर किसी को देख लेने वाली प्रवृत्ति बहुत घातक है। इसके अतिरिक्त खानपान का भी बहुत प्रभाव पड़ रहा है। मनीषी कहते हैं-
'जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन।'
प्रत्येक मनुष्य को सहनशीलता रूपी गुण अपनाना चाहिए। हम सभी लोगों को आत्मचिन्तन करना चाहिए और अपने मन को शान्त रखने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार करने से इन्सान को मानसिक सुख तो मिलता ही है और साथ ही समाज को भी असहिष्णुता नामक इस घातक बिमारी से मुक्ति मिल सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 20 नवंबर 2016
असहिष्णु बनते हम
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