अन्न को ब्रह्म कहते हैं। 'अन्नं वै ब्रह्म' ऐसा कहकर इसके महत्त्व को प्रतिपादित किया है। वैसे भी हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते थे- 'अन्न भगवान होता है। इसे झूठा नहीं छोड़ते। यदि झूठा छोड़ो तो भगवान जी नाराज होते हैं।'
उपनिषद कहती है- अन्न प्राण हैं। इसका अपमान न करो। अन्न से अन्न को बढ़ाओ।
यदि अन्न नष्ट करेंगे तो प्राणों का संकट हो जाएगा। प्राण नहीं रहेंगे तो फिर जीवन समाप्त हो जाएगा। यदि हम स्वार्थी बन जाएँ तो शायद अन्न को बरबाद होने से बचा सकते हैं। जो अन्न को नष्ट करता है ईश्वर उसे क्षमा नहीं करता अपितु नष्ट कर देता है। वर्षा न होने पर अकाल पड़ना इसी अन्न की बरबादी का कारण होता है। ईश्वर हमें समझाना चाहता है पर हम इतने नासमझ हैं जो अनजान बन जाते हैं। अतः कष्ट सहन करते हैं।
मुट्ठी भर अन्न के दानों से न जाने कितने क्विंटल अनाज पैदा होता है। जिस अन्न की हम बरबादी करते हैं वही दूसरों को खाने के लिए नहीं मिलता।
यह सत्य है कि इस भोजन को पाने के लिए मनुष्य सारे कर्म-कुकर्म करता है, सच-झूठ करता है। वह दिन-रात अथक परिश्रम करके दो जून का खाना जुटाता है। हमारे देश में क्या विश्व में भी बहुत से लोग ऐसे भाग्यहीन लोग हैं जो जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी अपने परिवार के लिए दो समय का भोजन नहीं जुटा पाते। इनसे भी अधिक दुर्भाग्यशाली वे लोग हैं जिन्हें कई-कई दिन तक भोजन नसीब नहीं होता। वे और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार होकर अनेक बिमारियों की चपेट में आ जाते हैं और अपने प्राणों तक से हाथ धो बैठते हैं। शायद हम में से बहुत से लोगों ने बच्चों को कचरे में से खाने के पदार्थ ढूँढकर या बाहर फैंके हुए अन्न को खाते हुए देखा होगा जो बड़े शर्म की बात है। यदि इन लोगों के बारे में हम एक बार भी सोच लें तो अन्न की बरबादी नहीं कर सकेंगे।
शादियों, पार्टियों एवं होटलों में जहाँ जाते हैं और वहाँ भोजन की थाली में झूठा छोड़ने को हम अपनी शान समझते हैं। कैसी सोच है हमारी कि घर में खाने का नुकसान नहीं करना क्योंकि वह अपने पैसे से खरीदा हुआ होता है। पर घर के बाहर जाते ही वही अन्न हमारी तथाकथित उच्च सोसाइटी के लिए प्रदर्न का कारण बन जाता है। हम उस समय इस बात को भूल जाते हैं कि वहाँ भी किसी के गाढ़े पसीने की कमाई खर्च की गई है।
यदि ईश्वर ने दौलत दी है तो कभी-कभार अनाथालयों में जाकर उन यतीम बच्चों को पेटभर भोजन खिलाइए। जिन लोगों को कई-कई दिन तक अन्न का एक भी दाना नसीब नहीं होता उनके लिए लंगर लगवा दीजिए। उनके पेट भरेंगे तो उनके मन से निकली दुआएँ आपको मिलेंगी। इससे लोक व परलोक दोनों सुधरेंगे। दान देने या सामाजिक दायित्व निभा पाने का सुख व संतोष भी मिलेगा जिसको कभी भी दुनियावी सिक्कों से नहीं तौल सकते।
आजकल कुछ समाजसेवी ऐसा कर रहे हैं कि शादी-पार्टी आदि में बचे भोजन को खरीद कर जरूरतमंदों को बाँट देते हैं।
अपने घर में हम सब कर सकते हैं कि घर में पार्टी आदि होने पर बचे हुए भोजन को किसी अनाथालय में जाकर दे आएँ या उन्हें बुलाकर दे दें। इसके अतिरिक्त अपने आसपास रहने वाले श्रमिकों या गरीबों को वह भोजन दे दें। इससे अन्न को बरबाद होने से हम बचा सकते हैं और उन लोगों को भी स्वादिष्ट भोजन खाने को मिल सकेगा।
रविवार, 14 जून 2015
अन्न ब्रह्म
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