सभी एकमत से इस विषय पर सहमत होंगे कि इंसान इस संसार में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही यहाँ से विदा ले लेता है। जो धन-सम्पत्ति दिन-रात एक करके कमाता है और जिसको पाने के लिए छल-फरेब अथवा सारे प्रपंच करता है वह भी परलोक साथ नहीं जाती। आँख मूँदते ही सब बेगानी हो जाती है जैसे वह हमारी कभी थी नहीं।
आयुपर्यन्त मनुष्य दूसरों को देखकर बिसूरता रहता है कि उसे अपने सारे जीवन में यह नहीं और वह नहीं मिला। चाहे उसने मनचाही वस्तु को पाने के लिए ईमानदार कोशिश की हो चाहे न की हो। मुद्दे की बात यह है कि उसके पास इस धरती के सारे ऐश्वर्य, सुख के साधन और धन-सम्पत्ति होनी चाहिए। उसके लिए कोई तर्क नहीं और कोई बहस नहीं।
इन सबके अभाव की शिकायत वह उस मालिक से लगतार करता ही रहता है। उन भौतिक वस्तुओं को न जुटा पाने के गम का दोषी मनुष्य परमपिता को मानते हुए उसे लानत भेजता रहता है और पानी पी-पीकर जीभर करके कोसता रहता है। उसे लगता है कि मालिक उसे प्रसन्न होते हुए नहीं देखना चाहता। पता नहीं कौन से जन्म का बदला उससे ले रहा है।
मनुष्य जिस समय कुकर्म करता है उस समय वह बहुत आनन्दित होता है। अपनी उन हरकतों पर वह शर्मिंदा होने के स्थान पर दूसरों को कष्ट देकर फूला नहीं समाता। परन्तु जब फल भोगने का समय आता है तब अपने कुकृत्यों को भूल जाता है और सारा उस न्यायकारी परमेश्वर को देता है। जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म मनुष्य करता है उनका फल तो उसे भोगना ही पड़ता है चाहे इस जन्म में अथवा चाहे आने वाले कई जन्मों में। उनको भोगे बिना उसकी मुक्ति नहीं होती।
जब सुकर्म अथवा कुकर्म खुद अपनी इच्छा से किए तब उनका फल भोगने में हायतौबा नहीं करनी चाहिए। प्रसन्नता से ही उनको भोग चहिए जो होता नहीं हो पाता।
उस समय हमें स्वयं को ही दोषी मानना चाहिए पर हम दूसरों को दोषी करार करके अपने उल्टे-सीधे फैसले सुनाने से बाज नहीं आते। उसी तरह उस परम न्यायकारी परमात्मा पर भी पक्षपात करने का आरोप लगकर उसे कटघरे में खड़ा करने का असफल प्रयास कर बैठते हैं। वह भी बैठा हुआ हमारी इन फिजूल-सी हरकतों पर मुस्कुराता होगा।
सारी जिन्दगी इंसान पापड़ बेलता रहता है और सौभाग्यशाली लोगों से ईर्ष्या करके घुटता रहता है। इसीलिए असन्तुष्ट रहता है। वह भूल जाता है कि दूसरों के सुन्दर महलों को देखकर अपनी टूटी-फूटी झौंपड़ी को आग के हवाले कदापि नहीं किया जाता। ईश्वर ने हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार जो कुछ भी हमें दिया है उसी में संतोष करके हंसी-खुशी अपना जीवन बिताना चाहिए।
अकारण रोने-धोने से कुछ नहीं बदल सकता बल्कि जीवन जीना और दुष्वार हो जाता है। यदि मनुष्य कुछ बदलना चाहता है तो पहले उसे अपना रवैये में परिवर्तन लाना चाहिए। अपने आपको गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिए यानि जीवन में यथासंभव आत्मसंयम का पालन करना चाहिए।
धर्म, समाज और परिवार के बनाए हुए उन नियमों का मन, वचन और कर्म से अनुसरण करते हुए वह अपने इहलोक और परलोक दोनों को ही सुधार सकता है। तब उसे किसी से भी कोई शिकायत करने की आवश्यकता नहीं रहेगी क्योंकि तब वह स्वयं ही सौभाग्यशाली लोगों की कतार में आ जाएगा जिनसे अब तक वह स्वयं ईर्ष्या करता रहा है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 10 अक्तूबर 2015
मनुष्य खाली हाथ आता और जाता है
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