इस संसार का यही दस्तूर है कि छीन कर खाने वालों का पेट कभी नहीं भरता उनकी भूख और-और करके सुरसा के मुँह की तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहती है। उसमें सब कुछ समाता जाता है। इसके विपरीत जो मिल-बाँटकर खाते हैं वे ईश्वर की कृपा से कभी भूखे नहीं सोते। उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर नित्य प्रति चलने वाले बहुत से निस्वार्थ लोग मिल जाते हैं।
छीना-झपटी करने वाले अपने इस जीवनकाल में सदा अतृप्त रहते हैं। इसका कारण है उनकी लालची मनोवृत्ति। स्वयं कुछ करना नहीं पर दूसरों के पास जो कुछ भी अच्छा लगे उसे छीन लो। ऐसी ही मनोवृत्ति वाले लोग भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूट-खसौट जैसे कार्यों को अंजाम देते हैं। इन लोगों को समाज का शत्रु कहा जाता है जो दूसरे के खून-पसीने से कमाए हुए धन पर ऐश करना चाहते हैं। ये लोग कितना भी धन एकत्र कर लें अथवा सुख-सुविधाएँ बटोर लें पर इनका मन अमीर नहीं होता। मन से ये गरीब ही रहते हैं क्योंकि इनका भटकाव समाप्त नहीं होता।
इनकी ऊपरी चमक-दमक देखकर भले ही लोग इनसे प्रभावित हो जाएँ परन्तु जब उनकी वास्तविकता सामने आती है तो उनसे किनारा करने में भी वे लोग समय नहीं लगते और उस समय अपनी गलती का सुधार कर लेते हैं।
इन लोगों के बच्चों में भी जीवन में संघर्ष करके कुछ पाने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। वे उस नाजायज आए धन का दुरूपयोग करते हैं और उसे उड़ाते हैं। सयाने कहते हैं- पैसा बोलता है। उनके इसी व्यवहार से यह उक्ति सिद्ध हो जाती है। तभी उनके पैसे में बरकत नहीं होती। इधर आता है उधर जाता है। पता ही नहीं चलता कहाँ आया और कहाँ गया?
वे यदि किसी की सहायता करते हैं या दान देते हैं तो उसमें प्रशंसा पाने का उनका स्वार्थ हावी होता है। केवल अपना प्रचार करना ही उनका उद्देश्य होता है।
इसके विपरीत मिल-जुलकर और बाँटकर खाने वालों को किसी नाम अथवा यश की कामना नहीं होती। वे इन सब तुच्छ भौतिक उपाधियों के पीछे नहीं भागते बल्कि वे दास की तरह उनके पीछे-पीछे चलती हैं। दोनों प्रकार के लोगों में बस यही अन्तर होता है।
सदा दूसरों के कष्ट को दूर करने वाले कोई साधारण जीव नहीं हो सकते। वे लोग अपने आप में विशेष होते हैं। उन्हें अपनी चिन्ता नहीं होती, वे यथासम्भव परहित की कामना में जुटे रहते हैं। ईश्वर उनके खजानों में कभी कोई कमी नहीं रखता जो मिल-बाँटकर खाते हैं।
उनके पास यदि कभी किसी वस्तु की कमी हो भी जाए तो उन्हें पता भी नहीं चलता और वह वस्तु किसी अन्य बहाने से उनके पास आ स्वयं आ जाती है जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होती है। इसके पीछे उन महापुरुषों की इच्छाशक्ति और निस्वार्थ भावना ही कारण होती है जिसके परिणाम स्वरूप ईश्वर उनको सदा बरकत देता है।
ऐसे लोगों का कभी कोई कार्य नहीं अटकता। उनके सत्कार्यों में साथ देने वाले बहुत से लोग उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार वे सैंकड़ों व हजारों हाथों वाले बन जाते हैं।
जहाँ तक हो सके छीनकर खाने वाले बनकर अकेले हो जाने की बनिस्बत दूसरों के साथ मिल-बाँटकर खाने वाला बनने का यत्न करना चाहिए। हम सभी अपने बच्चों को सदा दोस्तों के साथ शेयरिंग करके ही खाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। इसका अर्थ यही है कि ऐसा करना अच्छा होता है। अत: हमें स्वय भी इस आदत का अनुसरण करना चहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015
छीनकर खाने वाले
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