ब्रह्माण्ड में मानव आदि जीवों के अतिरिक्त भूत-प्रेतादि के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। इनका भी अपना एक संसार होता है। इनके प्रति लोगों के मन में डर का भाव रहता है। इसीलिए तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में लिखा-
भूत-पिशाच निकट नहीं आवै, महावीर जब नाम सुनावै।
अर्थात हनुमान जी का स्मरण करने वालों के पास भूत-प्रेत नहीं आते।
बारबार ये भूत-प्रेत चर्चा का विषय बनते रहते हैं। हर व्यक्ति के मन में इनके बारे जिज्ञासा उठती रहती है। मानव मन की इसी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए ही कितने प्रोड्यूसरो ने इस विषय को लेकर फिल्में बनाईं हैं। प्राय: सभी प्रमुख टी.वी. चैनल भी इस विषय को लेकर सीरियल बनाते रहते हैं।
इसमें कितनी सच्चाई है हम नहीं जानते। इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि इसके बारे चर्चाएँ होती रहती हैं और लोग नमक-मिर्च लगाकर बताते रहते हैं। यह तक कहने से नहीं चूकते कि हमने उसे देखा है। इस विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ लोग करते हैं।
पूरे विश्व में एतद्दविषयक घटनाओं की चर्चा होती रहती है। जिन घरों के विषय में इनके होने की अफवाह होती है, उस घर में डर के कारण कोई भी रहना पसन्द नहीं करता। ऐसी इमारतों को लोग भूत बंगला कहकर लावारिस छोड़ देते हैं। धीरे-धीरे वे भवन बिना रख-रखाव के खाली पड़े हुए खण्डर बन जाते हैं।
पीपल के पेड़ के विषय में यह आम धारणा बन चुकी है कि रात के समय वहाँ भूतों का वास होता है। अत: शाम के ढलते ही लोग पीपल के पेड़ के पास जाने से डरते हैं। इस मिथ के पीछे शायद पीपल की सुरक्षा कारण हो सकता है। यही एकमात्र पेड़ है जो हमेशा हमें आक्सीजन देता है। यज्ञ और अन्य धार्मिक कार्यों में इसे शुभ माना जाता है तथा पीपल के पेड़ का प्रयोग किया जाता है।
ऐसी मान्यता आम है कि जिन लोगों पर इनका साया होता है, वे बाला जी दर्शन के लिए जाते है और स्वस्थ हो जाते हैं। बहुत से लोग ज्योतिषियों और तान्त्रिकों के चक्कर में भी पड़कर धन व समय बरबाद करते हैं। इनसे अपनी सुरक्षा के लिए गाँवों में आज भी झाँड़-फूँक का ही सहारा लिया जाता है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी से दुश्मनी निकालने के लिए वहाँ उसे भूत या चुड़ैल कहकर जान से भी मार दिया जाता है। जिसके विषय में सोशल मीडिया, टी. वी. अथवा समाचार पत्र हमें बताते रहते हैं। प्राय: पत्र-पत्रिकाएँ भी इस विषय में कहानियाँ और लेख प्रकाशित करके सबका मनोरंजन करती रहती हैं।
विद्वानों का कथन है कि जिन लोगों की अकाल मृत्यु होती है या जो आत्महत्या करते हैं, उनका जीवात्मा शून्य में भटकता रहता है। जितनी आयु अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मनुष्य के लिए ईश्वर ने निश्चित की होती है, उस आयु के शेष बचे हुए समय तक उसे जन्म नहीं मिलता। वही भूतादि कहलाते हैं।
शून्य में विचरण करने वालों में कुछ पुण्यात्मा होते हैं जो उस अवस्था में भी दूसरों का भला करने की सोचते हैं। कुछ पापात्मा होते हैं जो तोड़-फोड़ करते हैं और दूसरों को कष्ट देते हैं। इन्हें वश में करने के लिए तरह-तरह के उपाय किए जाते हैं। इनकी खोज करने के लिए जिज्ञासु, लोगों द्वारा निर्दिष्ट स्थानों पर जाते हैं। टी. वी. वाले यदाकदा ये सब दिखाते रहते हैं।
माँ बगुलामुखी की सिद्धि करके एवं आराधना करके इनसे मुक्ति पाई जा सकती है। जो भी हो, इनका अस्तित्व भी है और ये ब्रह्माण्ड में हमारे साथ ही विचरण करते हैं। वैज्ञानिक कुछ भी कहते रहें पर लोगों के मन में गहरे पैठे हुए इस संस्कार से छुटकारा पाना सरल नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 30 सितंबर 2017
बहुत-प्रेतादि सृष्टि का अंश
शुक्रवार, 29 सितंबर 2017
विजयदशमी की सार्थकता
अच्छाई पर बुराई के प्रतीक विजयदशमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ -
विजयदशमी का त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। हम सभी यह पर्व बड़े पारम्परिक तौर-तरीके व उत्साह से मनाते हैं और मिठाई भी खाते हैं। अब इस प्रश्न पर विचार करना है कि किस हद तक हम इस त्योहार को मनाने में सफल हो रहे हैं? क्या इस त्योहार को मनाने का वास्तव में हमें अधिकार है भी अथवा नहीं?
हर वर्ष दशहरे के दिन रावण का दहन करके हम आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। परन्तु जो रावण का प्रतीक बुराइयाँ या आसुरी शक्तियाँ हमारे अन्दर डेरा जमाए बैठी हैं उनके बारे में हम सजग भी हैं या नहीं- यह चिन्तन का विषय अवश्य है। हमारे अन्तस में विद्यमान दैवी शक्तियाँ उन आसुरी शक्तियों पर विजय पाने में समर्थ हो भी पाती हैं या नहीं, इस विषय पर भी मनन आवश्यक है।
रावण एक परम विद्वान व्यक्ति था। अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का प्रतिकार करने के लिए उसने भगवती सीता का अपहरण किया था। क्षणिक आवेश में उठाया गया उसका यह कदम उसके विनाश का कारण बन गया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अपने घर में न रखकर सीता माँ को उसने अशोक वाटिका में रखा। यह रावण की चरित्रगत विशेषता थी कि इतने समय तक अपनी कैद में रहने के पश्चात भी उसने माँ सीता का स्पर्श तक नहीं किया।
आज हम दिन-प्रतिदिन असहिष्णु बनते जा रहे हैं। सामाजिक मूल्यों और नैतिक जीवन मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। बलात्कारों की बढ़ती हुई संख्या इसी का ही परिणाम है। किसी को भी जान मार देना मानो शगल-सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आज इन्सानी जान का कोई मूल्य ही नहीं रह है। जरा सी कोई घटना घटी नहीं कि रेल, बस, कारों आदि को आग के हवाले कर देना मामूली-सी बात हो गई है। सरकारी कार्यालयों में तोड़फोड़ करना, उन्हें आग के सुपुर्द कर देने से पता नहीं कौन-सा आत्मिक सुख मिलता है, आज तक यह मेरी समझ में नहीं आया।
जब तक अपने हृदयों में विद्यमान कालुष्य को हम दूर नहीं करेंगे, तब तक ऐसी बुराइयों से मुक्त होना असम्भव होगा। ये बुराइयाँ सभ्य समाज के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। इनका दुष्परिणाम हम प्रतिदिन भुगत रहे हैं। समझने की बात यह भी है कि एक गलती करने वाले रावण को तो हम प्रतिवर्ष जलाते हैं। परन्तु उन रावणों का क्या होगा जो एक के बाद एक गलती करते जाते हैं और उसका प्रायश्चित भी नहीं करना चाहते।
हम मनुष्य अपने चेहरों पर मुखौटे लगाकर रखते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे अन्तस में पंख फैलाकर बैठी बुराइयों को कोई दूसरा देख सके अथवा हमें हिकारत से देखे। कितना भी प्रयास क्यों न किया जाए वे प्रकट हो ही जाती हैं। उस समय मनुष्य दूसरों के समक्ष नजरें चुराता फिरता है।
अभी-अभी नवरात्रों के व्रत सम्पन्न हुए हैं। यदि हम हर वर्ष यह व्रत ले पाएँ कि इस वर्ष अपने अन्तस में विद्यमान अपनी एक बुराई को दूर करने का ईमानदारी से यत्न करेंगे, तभी इन नौ दिनों के व्रतों की सार्थकता है अन्यथा ये मात्र ढकोसला बनकर रह जाएँगे। इसी तरह यदि हर वर्ष हम अपने अन्दर पनपने वाली बुराइयों में से केवल एक बुराई का भी अन्त कर सकें तो धीरे-धीरे अपने अन्त:करण को शुद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे।
मन के शुद्ध होने पर हमें यह दुनिया और भी खूबसूरत लगने लगेगी। ऐसा महसूस होगा कि हमारे चारों ओर का वातावरण स्वच्छ व उत्साहवर्धक हो गया है। यानी हमारे चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढेगा। हम और अधिक स्फूर्ति से जीवन में आगे बढ़ेंगे। इस तरह अपनी सोच में यदि हम बदलाव ला पाएँ तो इस धरा पर हमारा जन्म लेना सार्थक हो जाएगा और दशहरे के पर्व को मनाना भी समीचीन हो सकेगा।
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गुरुवार, 28 सितंबर 2017
माँ के रूप में ईश्वर की पूजा
ईश्वर के किसी रूप की उपासना यदि माँ के रूप में की जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। परमपिता परमात्मा की उपासना हर व्यक्ति अपनी तरह से करता है। मेरा यह मानना है कि माँ से बढ़कर और कौन है जो सन्तान के विषय उससे अधिक भली-भाँति समझता है।
इसलिए यदि मनुष्य परमेश्वर से अपनी निकटता और घनिष्ठता को बढ़ाना चाहता है तो स्वयं को बच्चे के समान मानकर माँ के रूप में ही उसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
माँ अपनी सन्तान से बहुत अधिक स्नेह रखती है जिसे मापने का कोई पैमाना आज तक बना ही नहीं है। यद्यपि पिता भी बच्चे से बहुत प्यार करता है परन्तु किसी बात पर असहमत हो जाने पर वह बच्चे के साथ कठोर व्यवहार कर सकता है परन्तु माता कभी ऐसा नहीं कर पाती।
माता की कोमल भावनाएँ और सन्तान के प्रति उसका मोह उसे ऐसा नहीं करने देता। उसका भावुक हृदय सन्तान के लिए सदा पसीज जाता है और वह उसकी बड़ी-से-बड़ी गलती को भी क्षमा करके उसे अपने गले से लगा लेती है।
घर-परिवार में सभी सदस्यों के होते हुए भी बच्चा माता के सबसे अधिक करीब होता है। वह चाहता है कि उसकी माँ हमेशा उसके आसपास रहनी चाहिए। वह स्वयं चाहे दोस्तों के साथ खेलने के लिए घर से बाहर जाए, कहीं घूमने जाए अथवा विद्यालय जाए पर जब घर वापिस लौटे तो सबसे पहले उसे अपनी माँ ही दिखाई देनी चाहिए। यदि वह उसे न दिखाई दे तो वह अनमना हो जाता है, खाना भी नहीं खाएगा और किसी काम में उसका मन नहीं लगेगा।
माँ और बच्चे का सम्बन्ध ही ऐसा होता है कि माँ की अनुपस्थिति उसे बहुत खलती है। वह उसे अपनी आँखों के सामने न पाकर रोने लगता है। एक माँ भी अधिक समय तक अपने बच्चे से दूर नहीं रह सकती। यदि मजबूरी में कभी ऐसा करना पड़े तो उसका मन अपने बच्चे में ही लगा रहता है। उसकी की चिन्ता में परेशान रहती है।
माता का अपनी सन्तान से रिश्ता ही ऐसा होता है। शायद यही कारण है कि इन्सान आयु में कितना भी बड़ा हो जाए किसी भी समस्या के आने पर 'हाय माँ' ही कहता है। उसकी माता चाहे परलोक भी सिधार जाए तब भी माँ को याद करना नहीं भूलता।
बच्चे नालायक हो सकते हैं पर माता नहीं। वह उनसे अपना रिश्ता समाप्त नहीं कर सकती और न ही उनसे मुँह नहीं मोड़ सकती। इसीलिए शायद कहा है -
"पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता
नहीं हो सकती।"
यह विश्लेषण हमने इस भौतिक संसार की माता और उसकी सन्तान के सम्बन्ध में किया है। इस सम्पूर्ण संसार की जननी वह है जिसे हम जगज्जननी कहते हैं। यदि भौतिक माता की तरह हमारा जुड़ाव उस जगज्जननी से हो जाए तो हमारे इस जीवन की रूपरेखा ही बदल जाए।
उससे मिलने की तड़प ही हमें उसके करीब ले जा सकती है। क्योंकि वह सारे संसार की माता है, इसलिए वह स्वयं ही अपने सारे बच्चों का ध्यान रखती है। चाहे वे जलचर, नभचर, भूचर या फिर मनुष्य किसी भी रूप में हों। उसके लिए सभी जीव समान हैं। उसे यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है। ये तो हम इन्सान ही हैं जो अपने दायित्वों को ठीक से नहीं निभा पाते, कोताही बरतते रहते हैं।
उस मालिक के बच्चे हम मनुष्य यदि उसका साथ सच्चे मन से चाहते हैं तो अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा। उस प्रभु के पास जाने के लिए अपने मानस को तैयार करना होगा। दुनिया के सारे व्यापार जब निस्पृह होकर, अपना दायित्व मानकर करेंगे, तब उनमें लिप्त नहीं होंगे और उसके प्रिय बन सकेंगे।
इस संसार में आने से पहले जब जीव माता के गर्भ में होता है तब वहाँ विद्यमान अंधकार से घबराता है और उस मालिक से प्रार्थना करता है कि अंधेरे से मुक्ति दे दो, दुनिया में जाकर तुम्हें नहीं भूलूँगा। पर होता इसके विपरीत है। संसार की चकाचौंध में जीव खो जाता है और उसे भूल जाता है। यदि हम इस दुनिया में आने के बाद उसे उसी तड़प से याद कर सकें तो इहलोक से विदा होने के बाद मुक्ति का मार्ग सुगम हो जाएगा। तब हमारे शरीर में विद्यमान आत्मा को उस परमात्मा में लीन होने से कोई नहीं रोक सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 27 सितंबर 2017
माँ दुर्गा की पूजा
नवरात्रपर विशेष-
नवरात्र के इस पावन पर्व में हम माँ दुर्गा के नौ रूपों - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कन्धमाता, कात्यायनी कालरात्री, महागौरी और सिद्धिदात्री की क्रमश: आराधना करते हैं।
हाँ, यहाँ तान्त्रिकों की तन्त्र साधना के विषय में चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है जो इन दिनों श्मशान में जाकर साधना करते हैं और फिर अपनी मनचाही सिद्धियाँ प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि अपने जीवन में इन रूपों को ढालने की हमने कभी कोशिश की है क्या? मात्र नौ दिन माँ की पूजा करके हम अपने सभी कर्त्तव्यों से मुक्त हो पाएँगे क्या? दुष्टों का दलन करने वाली माँ के इस बलिदान को क्या हम यूँ ही व्यर्थ में गंवा देंगे?
इन प्रश्नों का सीधा-सा उत्तर है नहीं। केवल कथन मात्र से समस्याओं का अन्त नहीं होगा। जब तक हम माँ के इन रूपों को अपने में आत्मसात नहीं करेंगे अथवा उस पर आचरण नहीं करेंगे तब तक सब अधूरा ही रहेगा।
माँ दुर्गा ने संसार की भलाई करने के लिए कठोर कदम उठाया था। अपना सुख-चैन सब छोड़कर उसने उन असुरों से युद्ध करने की ठानी थी। उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त करके माँ ने हम सबके समक्ष एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया था। माँ भगवती ने जनसाधारण की भलाई के लिए दुष्टों का संहार करके हमें चमत्कृत किया हैं।
उस सबके विषय में बस किस्से-कहानियों की तरह पढ़कर हम चटखारे नहीं ले सकते। उसकी शूरवीरता को हमें अपने अंतस में अनुभव करना होगा। उचित समय आने पर उसी तरह आचरण भी करना होगा।
आज मैं अपनी सभी बहनों से आग्रह करना चाहती हूँ एक माँ के करुणा, कोमलता, दयालुता आदि सभी गुणों के साथ-साथ माँ दुर्गा के वीरता और दुष्टदलन वाले गुणों को आगे बढ़कर अपनाएँ। इस प्रकार करके हर प्रकार के अत्याचार का मुँहतोड़ जवाब देने की सामर्थ्य माँ स्वयं ही हम सबको देगी।
माँ दुर्गा के त्रिशूल, शंख, तलवार, धनुष-बाण, चक्र, गदा आदि अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग करते समय साम, दाम, दण्ड और भेद का सहारा लेने में किञ्चित भी हिचकिचाना नहीं है।
हमें स्वयं ही अपने मनोबल को ऊपर उठाते हुए स्वेच्छा से यह प्रण लेना होगा कि माँ दुर्गा की तरह बुराई व अत्याचार के कारण को जड़ से उखाड़कर फैंकना है। तभी नवरात्र को मनाने की सार्थकता है अन्यथा अन्य रस्मों अथवा उत्सवों की तरह यह पूजन भी मात्र एक दिखावे की रस्म बनकर निरर्थक रह जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 सितंबर 2017
सब कार्य सहजता से
प्रत्येक कार्य को योग्यतापूर्वक करना चाहिए। उसके सभी पक्षों पर मनन करके ही उसे सम्पन्न करना चाहिए। आवश्यक नहीं है कि हड़बड़ाहट में अपने कार्य को बिगाड़ दिया जाए। हर कार्य को करने का एक उचित समय होता है। एक उदाहरण लेते हैं। बच्चा नौ मास माता के गर्भ में रहकर इस संसार मे जन्म लेता है। धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ युवा बनता है। फिर वृद्ध होता हुआ इस दुनिया से विदा ले लेता है।
एक बच्चा तीन-चार वर्ष की अवस्था में विद्यालय जाता है। ऐसा तो नहीं होता कि प्रवेश लेते ही उसकी विद्यालयीन शिक्षा पूर्ण हो जाती है। चौदह वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ही बच्चा अपने स्कूल की पढ़ाई पूर्ण करता है। तत्पश्चात अपनी उच्च शिक्षा के लिए आगे कदम बढ़ाता है। अन्ततः योग्य बनकर नौकरी अथवा व्यवसाय करके अपना जीवन यापन करता है।
इसी प्रकार माली जब बीज बोता है तो उसी दिन वह पेड़ बनकर फल नहीं देने लगता। वह वृक्ष बनकर अपने समयानुसार फल देता है। माली चाहे कितने भी पानी से उसे सींच ले पर फल अपने समय पर ही मिल सकता है, उससे पहले नहीं। मनुष्य भी एवंविध तिनका-तिनका जोड़कर अपना आशियाना बनाकर जीवन यापन करता है।
निम्न श्लोक यह विवेचना कर रहा है कि किन कार्यों में मनुष्य को शीघ्रता नहीं करनी चाहिए -
शनैर्विद्या शनैरर्थाः शनैः पर्वतमारुहेत्।
शनैः कामं च धर्मं च पञ्चैतानि शनैः शनैः।।भावार्थ- विद्या और धन का धीरे-धीरे संचय करना चाहिये। धीरे-धीरे ही पर्वत पर चढ़ना चाहिए। धर्म और काम इन दोनों का सेवन भी धीरे-धीरे करना चाहिए। अर्थात इन पाँचों कार्यों में शीघ्रता अपेक्षित नहीं है।
कवि सबसे पहले विद्या और धन का संचय करने के बारे में कह रहा है। मनुष्य यदि आजन्म विद्याध्य्यन करता रहे तो भी ज्ञान अधूरा रह जाता है। थोड़ा-सा ज्ञानार्जन करके वह उसी तरह इतराता फिरता है यानी ज्ञानी होने का दावा करता है जैसे हल्दी की गाँठ पाकर चूहा पंसारी बन गया था। ब्रह्माण्ड में अपार ज्ञान है, जिसे प्राप्त करना किसी के भी वश की बात नहीं।
धन कमाने के लिए भी मनुष्य को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। जल्दी का काम शैतान का होता है। रातोंरात प्रभूत धन कमाने के चक्कर में मनुष्य कुमार्गगामी हो जाता है। उसे उस समय अच्छे और बुरे का भान ही नहीं रहता। वह हर प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन के पीछे पागल हो जाता है। मनुष्य भूल जाता है कि अनैतिक तरीकों से कमाया धन अपने साथ बहुत सी बुराइयों को लेकर आता है। मनुष्य अहंकारी हो जाता है, अपने सामने किसी को कुछ समझता ही नहीं है। उसकी सन्तान भी अंकुश न होने के कारण कई कुटेवों का शिकार हो जाती है।
पर्वत पर चढ़ने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। वहाँ हर कदम सोच-समझकर और जमाकर रखना चाहिए। वहाँ से फिसलकर नीचे गिरने का डर सदा बना रहता है। तब नीचे गिरने पर चोट लगने की सम्भावना बनी रहती है। अकेले पर्वत पर चढ़ना ही कठिन होता है, इस पर समान लेकर चलना और भी कठिन होता है। पर्वतारोहण धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए करना चाहिए।
धर्म का पालन करना हर मनुष्य को करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ईश्वर भक्त समझने लगे। धर्म से अधिक उसका प्रदर्शन करने लगे। सारी आयु धर्म के नियमों का पालन करता रहे, तब भी वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन सकेगा या नहीं, कह नहीं सकते। यह भी समझना आवश्यक है कि धर्म को जानना और उसे समझने के लिए वर्षों बीत जाते हैं।
धर्म और अर्थ के विषय में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। उसी प्रकार काम के विषय में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। काम केवल संसार को आगे बढ़ाने यानी सन्तान की उत्पत्ति के लिए होता है। उसके अतिरिक्त मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। काम के पीछे भागने वाले कुकर्मी होकर बलात्कार जैसे दुष्कर्मों को अन्जाम देते हैं। ऐसे लोग समाज के शत्रु कहलाते हैं।
सार रूप में कह सकते हैं कि जल्दबाजी कभी भी अच्छी नहीं होती। जितना सहज होकर मनुष्य कार्य करता है, उतना ही उसके लिए श्रेयस्कर होता है अन्यथा उसे परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को साधकर ही मनुष्य चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 सितंबर 2017
माता-पिता बच्चों को न बिगाड़ें
दादा-दादी या नाना-नानी पर हमेशा से यह आरोप लगता रहता है कि वे बच्चों को वे बिगाड़ते हैं। परन्तु आज स्थितियाँ बदल गई हैं और उनके माता-पिता उन्हें बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
इक्कीसवीं सदी के माता-पिता दोनों ही आज उच्च शिक्षा ग्रहण करके नौकरी कर रहे हैं अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। दोनों ही अपने-अपने कार्यों में बहुत अधिक व्यस्त रहते हैं। वे अपने उन बच्चों के लिए समय ही नहीं निकल पाते जिनके लिए वे इतनी मेहनत कर रहे हैं। इसलिए वे उस कम समय में बच्चों को बहुत कुछ दे देना चाहते हैं।
इसके अतिरिक्त जीवन की ऊँचाइयों को छूने की महत्त्वाकाँक्षा रखने वाले वे या तो सन्तान चाहते ही नहीं हैं या फिर एक बच्चे से ही संतोष करना चाहते हैं चाहे वह लड़का हो या फिर लड़की। इसलिए भी वे बच्चों के प्रति बहुत ही संवेदनशील होते जा रहे हैं।
बच्चों को उनकी आवश्यकता से कहीं मंहगी वस्तुएँ खरीद कर देते हैं। इससे भी बढ़कर वे बच्चों को दुनिया की हर वो वस्तु खरीद कर देना चाहते हैं जिसे वे खरीद सकते हैं।
वे सोचते हैं हमारे पास भरपूर पैसा है तो बच्चों को हम ऐश क्यों न कराएँ? हमारे बच्चे किसी भी मंहगी अथवा सस्ती वस्तु के लिए किसी का मुँह क्यों देखें?
इसीलिए एक घर में यदि दो बच्चे हैं तो वे मिलकर उन खिलौनों से नहीं खेलना चाहते। दोनों के पास ही उनके अपने-अपने खिलौने, बिस्तर व सुन्दर सजे हुए कमरे होते हैं जो सभी आधुनिक उपकरणों से युक्त होते हैं।
पहले दादा-दादी अथवा नाना-नानी बच्चों से लाड़ लड़ाते थे और जो भी उनकी मनपसंद वस्तुएँ उन्हें खरीदकर देते थे। इसीलिए कहा जाता था कि वे उन्हें सदा बिगाड़ते रहते हैं।
परन्तु आज माता-पिता इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर रहे हैं। बच्चों को न तो वे डाँटते हैं या डपटते हैं और न ही मारते हैं। उनकी हर जायज-नाजायज माँग को पूरा करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। यही कारण है कि बच्चे आज जिद्दी और बददिमाग होते जा रहे हैं।
वे अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते, बस अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। उनकी बला से सारी दुनिया भाड़ में जाए, और-तो-और माता-पिता की भी उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती पर उनकी माँगे बस पूरी होती रहनी चाहिएँ। किसी के साथ समझौता करके चलना उनकी प्रवृत्ति में ही नहीं है बल्कि शान के विरूद्ध होता है।
पहले बच्चे अपने नाना-नानी, मौसी या बुआ आदि के घर छुट्टियों में कुछ दिन बिताने के लिए चले जाया करते थे। आज समय के साथ यह व्यवहार भी बदल गया है। माता-पिता को ही विश्वास नहीं आता कि उनके बच्चे वहाँ ठीक से रह सकेंगे तो फिर उन बच्चों के विषय में कहना ही क्या है? वे तो नखरे दिखाएँगे ही, उनके प्यार व सम्मान को भूलकर वहाँ की ढेरों कमियाँ निकालेंगे ही।
माता-पिता अपने समयाभाव के कारण बच्चों को इतना अधिक बिगाड़ते जा रहे हैं कि फिर स्वयं ही उनसे डरने लगे हैं। बच्चों की सारी गलतियाँ नजरअंदाज करते-करते उनके मोह में अन्धे होते जा रहे हैं और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्हें सभी मंहगी वस्तुएँ अवश्य दिलाएँ पर साथ ही उन्हें सुसंस्कार भी दें जिससे वे अहंकारी न बने। सभी को अपने बराबर समझने की प्रवृत्ति रख सकें। यदि माता-पिता बच्चों को सुसंस्कृत बना सकें तो देश व समाज के प्रति अपने दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वहण कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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