मंगलवार, 19 सितंबर 2017

मन का केनवास

अपने मन की
बदरंग स्लेट पर
विचारों का तानाबाना
उकेरने का असफल प्रयास करती हूँ।

जैसे जैसे रेखाएँ
खींचती हूँ वैसे ही वे
टेढी-मेढी हो जाती हैं
लगता है मानो मुझे मुँह चिढ़ा रही हों।

हठी और मुखर
ये रेखाएँ पूछती हैं
प्रश्न बारबार मुझसे
हम तुम्हारे इशारे पर भला क्यों चलें?

बताओ तो जरा
तुममे क्या है विशेष
जिसे दिखाना चाहती हो
सारे जग को नए-नवेले चित्र बनाकर।

हो सका है क्या
ईर्ष्या-द्वेष, कटुता,
वैमनस्य आदि से रहित
तुम्हारा मन कोरे कागज की तरह कभी।

तुम नहीं मिटा
सकती हो कालुष्य
अपने मन के कोनों से
फिर तुम्हारी रेखाएं क्योंकर बोल सकेंगी।

जब दूर करोगी
सारी ही कुटिलताएँ
अपने इस मन से तुम
तभी हो पाएगी उसमें नव प्राण प्रतिष्ठा।

प्रेम गंगा की
शुद्ध अविरल धारा
बहाकर कर लो पवित्र
अपना मलिन अन्तस पारदर्शी स्वच्छ।

अपने ऐसे मन के
इस कोरे केनवास पे
तभी बिखेर सकोगी ये
सभी मनभावन दमकते हुए इन्द्रधनुषी रंग।

पूर्ण हो जाएगी
तब तुम्हारी साधना
जो तुम करना चाहती हो
इन रंगों के सहारे संसार को जीत जाने की।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें