शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

गुरु की आवश्यकता क्यों?

आधुनिक काल मे आज हर प्रकार के जीवन मूल्यों में परिवर्तन हो रहा है। इसी कड़ी में गुरु धारण करने के विषय मे चर्चा करते हैं कि आखिर गुरु धारण करने की आवश्यकता क्या है?
       न तो आज प्राचीनकाल की तरह के गुरु के संस्कार रह गए हैं और न ही अध्ययन करने वाले शिष्य के। यह पूर्ववर्ती और आधुनिक शिक्षा पद्धति में हुए परिवर्तन का परिणाम है। इसलिए इस पुरातन रूढ़ि कि गुरु धारण करना मनुष्य के लिए आवश्यक है, का अन्य रूढ़ियों की भाँति परित्याग कर देना चाहिए।
       ज्ञान देने वाले को हम गुरु कहते हैं। ज्ञान अगाध होता है उसकी कोई सीमा नहीं होती। उस असीम ज्ञान रूपी अमृत को हम किसी से भी प्राप्त कर सकते हैं यानि कि शिक्षा देने वाला कोई भी जीव हो सकता है। वह कोई मनुष्य भी हो सकता है और अन्य कोई जीव यानि पेड़-पौधे या पशु-पक्षी भी हो सकता है।
       हम चींटी जैसे छोटे से जीव से भी ज्ञान ले सकते हैं और शेर जैसे शक्तिशाली जीव से भी। आप कहेंगे क्या मूर्खतापूर्ण बात कही है। मेरी बात को सहजता से स्वीकार बेशक मत कीजिए, पहले उसे अपनी तर्क की कसौटी पर परखें।
        रामायण में आपने पढ़ा होगा कि भगवान राम पेड़-पौधों से सीता जी के विषय में पूछते हैं पर जटायु ने उन्हें दिशानिर्देश दिया। हनुमान जी को वानर मानते हुए भी उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं। रामचरितमानस में काक भुशुण्डी ने ईश्वर भक्ति का उपदेश दिया। भगवान विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में मनुष्य रूप के अतिरिक्त मत्स्य, वराह आदि अन्य जीव भी हैं।
        भगवान बुद्ध के विषय में लिखी गई जातकमाला में उनके पशु-पक्षियों के रूप में अवतरित होकर ज्ञान देने का चित्रण है। इससे प्रेरणा लेकर हम महात्मा बुद्ध के उपदेशों का जीवन में पालन करके आत्मिक उन्नति कर सकते हैं।
       यह आवश्यक नहीं हैं कि हम किसी मनुष्य को ही गुरु मानकर उसे अपनाने के साथ-साथ उसके दुष्कर्मों पर परदा डालें। हमें अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए बहुत ही सूझबूझ से काम लेना चाहिए नहीं तो व्यर्थ ही भटकना पड़ता है जिसका कोई अन्त नहीं होता।
         गुरु सहिष्णु, ईमानदार, सत्यवादी, संयमी,  सदाचारी, अपरिग्रही होने के साथ-साथ मन, वचन व कर्म से भी एक होना चाहिए। तभी वह सही मायने में गुरु कहलाता है। हम उसे ईश्वर तुल्य मानकर उसकी पूजा करते हैं।
      उसकी कही गई हर बात का प्रभाव दूसरों पर होता है। जो वस्तुतः गुरु होता है उसे किसी प्रकार की सुरक्षा, हथियारों या सेना की आवश्यकता नहीं होती। यदि वह इस कसौटी पर खरा न उतरे तो गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं है।
        हमारे ग्रन्थों में गुरु का बखान अनेकशः मिलता है। कसौटी पर कसने के पश्चात ही किसी को गुरु बनाना चाहिए। आँख मूँद करके भेड़चाल नहीं करनी चाहिए। न ही अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए अवांछित गुरु का साथ ही करना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए भी हमें तैयार रहना पड़ेगा।
        अपने ग्रन्थों को यदि गुरु बनाकर उनका पारायण किया जाए तो मनुष्य को कोई भटका नहीं सकता। इनसे अच्छा गुरु और कोई नहीं हो सकता।
      सिख पंथ 'गुरु ग्रन्थ साहब' को ही अपना गुरु मानते हैं। कहने मात्र से ही पता चलता है कि गुरु कोई मनुष्य विशेष नहीं बल्कि ग्रन्थ है। इसी तरह अपने सद् ग्रन्थों को गुरु मानकर उनका पारायण करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
        आज गुरुडम फैलाने वाले, राजनीति करने वाले, अपने लिए सम्पत्तियाँ बटोरने वाले, नृशंस, बलात्कारी, अन्यायी, धूर्त, ठग, ढोंगी लोगों को किस नियम से गुरु बनाकर पूजा जा रहा है, मेरी समझ से परे है। इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि इनका साथ देने या पीछे चलने वालों को भी उसी श्रेणी में रख दिया जाए। जानते-बूझते भी इनके चक्कर मे पड़ने वाले लोगों को क्या मूर्ख कहा जा सकता है?
         गुरुपद बहुत ही महान होता है इस पद का अपमान करने वालों को अपनी दूरदृष्टि से पहचान कर उनसे किनारा करना चाहिए। अपना खून-पसीना एक करके कमाए धन व अपने बहुमूल्य समय को नष्ट होने से यथासंभव बचाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद
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