मंगलवार, 26 सितंबर 2017

सब कार्य सहजता से

प्रत्येक कार्य को योग्यतापूर्वक करना चाहिए। उसके सभी पक्षों पर मनन करके ही उसे सम्पन्न करना चाहिए। आवश्यक नहीं है कि हड़बड़ाहट में अपने कार्य को बिगाड़ दिया जाए। हर कार्य को करने का एक उचित समय होता है। एक उदाहरण लेते हैं। बच्चा नौ मास माता के गर्भ में रहकर इस संसार मे जन्म लेता है। धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ युवा बनता है। फिर वृद्ध होता हुआ इस दुनिया से विदा ले लेता है।
         एक बच्चा तीन-चार वर्ष की अवस्था में विद्यालय जाता है। ऐसा तो नहीं होता कि प्रवेश लेते ही उसकी विद्यालयीन शिक्षा पूर्ण हो जाती है। चौदह वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ही बच्चा अपने स्कूल की पढ़ाई पूर्ण करता है। तत्पश्चात अपनी उच्च शिक्षा के लिए आगे कदम बढ़ाता है। अन्ततः योग्य बनकर नौकरी अथवा व्यवसाय करके अपना जीवन यापन करता है।
          इसी प्रकार माली जब बीज बोता है तो उसी दिन वह पेड़ बनकर फल नहीं देने लगता। वह वृक्ष बनकर अपने समयानुसार फल देता है। माली चाहे कितने भी पानी से उसे सींच ले पर फल अपने समय पर ही मिल सकता है, उससे पहले नहीं। मनुष्य भी एवंविध तिनका-तिनका जोड़कर अपना आशियाना बनाकर जीवन यापन करता है।
          निम्न श्लोक यह विवेचना कर रहा है कि किन कार्यों में मनुष्य को शीघ्रता नहीं करनी चाहिए -
         शनैर्विद्या   शनैरर्थाः   शनैः   पर्वतमारुहेत्।
         शनैः कामं च धर्मं च पञ्चैतानि शनैः शनैः।।भावार्थ- विद्या और धन का धीरे-धीरे संचय करना चाहिये। धीरे-धीरे ही पर्वत पर चढ़ना चाहिए। धर्म और काम इन दोनों का सेवन भी धीरे-धीरे करना चाहिए। अर्थात इन पाँचों कार्यों में शीघ्रता अपेक्षित नहीं है।   
           कवि सबसे पहले विद्या और धन का संचय करने के बारे में कह रहा है। मनुष्य यदि आजन्म विद्याध्य्यन करता रहे तो भी ज्ञान अधूरा रह जाता है। थोड़ा-सा ज्ञानार्जन करके वह उसी तरह इतराता फिरता है यानी ज्ञानी होने का दावा करता है जैसे हल्दी की गाँठ पाकर चूहा पंसारी बन गया था। ब्रह्माण्ड में अपार ज्ञान है, जिसे प्राप्त करना किसी के भी वश की बात नहीं।
           धन कमाने के लिए भी मनुष्य को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।  जल्दी का काम शैतान का होता है। रातोंरात प्रभूत धन कमाने के चक्कर में मनुष्य कुमार्गगामी हो जाता है। उसे उस समय अच्छे और बुरे का भान ही नहीं रहता। वह हर प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन के पीछे पागल हो जाता है। मनुष्य भूल जाता है कि अनैतिक तरीकों से कमाया धन अपने साथ बहुत सी बुराइयों को लेकर आता है। मनुष्य अहंकारी हो जाता है, अपने सामने किसी को कुछ समझता ही नहीं है। उसकी सन्तान भी अंकुश न होने के कारण कई कुटेवों का शिकार हो जाती है।
           पर्वत पर चढ़ने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। वहाँ हर कदम सोच-समझकर और जमाकर रखना चाहिए। वहाँ से फिसलकर नीचे गिरने का डर सदा बना रहता है। तब नीचे गिरने पर चोट लगने की सम्भावना बनी रहती है। अकेले पर्वत पर चढ़ना ही कठिन होता है, इस पर समान लेकर चलना और भी कठिन होता है। पर्वतारोहण धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए करना चाहिए।
           धर्म का पालन करना हर मनुष्य को करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ईश्वर भक्त समझने लगे। धर्म से अधिक उसका प्रदर्शन करने लगे। सारी आयु धर्म के नियमों का पालन करता रहे, तब भी वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन सकेगा या नहीं, कह नहीं सकते। यह भी समझना आवश्यक है कि धर्म को जानना और उसे समझने के लिए वर्षों बीत जाते हैं।
         धर्म और अर्थ के विषय में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। उसी प्रकार काम के विषय में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। काम केवल संसार को आगे बढ़ाने यानी सन्तान की उत्पत्ति के लिए होता है। उसके अतिरिक्त मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। काम के पीछे भागने वाले कुकर्मी होकर बलात्कार जैसे दुष्कर्मों को अन्जाम देते हैं।  ऐसे लोग समाज के शत्रु कहलाते हैं।    
        सार रूप में कह सकते हैं कि जल्दबाजी कभी भी अच्छी नहीं होती। जितना सहज होकर मनुष्य कार्य करता है, उतना ही उसके लिए श्रेयस्कर होता है अन्यथा उसे परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को साधकर ही मनुष्य चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।                                           
चन्द्र प्रभा सूद
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