गुरुवार, 7 सितंबर 2017

सेवा करना

मनुष्य ईश्वर द्वारा बनाई गई इस सृष्टि की एक अप्रतिम रचना है। एक वही जीव है जो कमाता है और शेष सभी जीवों का पालन करता है। उसे संसार में अपने इस महत्त्वपूर्ण अवतरण पर गर्व होना चाहिए। साथ ही उसे ईश्वर का धन्यवाद भी करना चाहिए कि उसने मनुष्य को इस योग्य बनाया है कि वह अन्य सभी जीवों के प्रति अपना योगदान देता है।
        मनीषी कहते हैं कि यह मानवयोनि कर्मयोनि है, जबकि शेष अन्य सभी योनियाँ भोगयोनियाँ है। यही कारण है कि मनुष्य को श्रेष्ठ कहा जाता है। मनुष्येतर योनियों में केवल अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों का भोग करके उन कर्मों से मुक्त होना होता है। उनमें मानवोचित गुणों का सर्वथा आभाव होता है। इसीलिए सेवा आदि सभी सत्कर्म करना उनके वश में हैं ही नहीं। इस कार्य को करने में मनुष्य सक्षम है। अतः ईश्वर की ओर से यह कार्यभार उसे ही सौंपा गया है।
         उसके शुभकर्मों के कारण ही ईश्वर ने उसे सेवा करने की शक्ति दी है। उसे इस दायित्व को प्रसन्नतापूर्वक निभाना चाहिए। अपने मन में कभी भी कर्तापन का व्यर्थ ही घमण्ड नहीं करना चाहिए। उसे सबकी सेवा करनी चाहिए। एक बात यहाँ कहना चाहती हूँ कि सेवा सभी की करनी चाहिए, परन्तु आशा किसी से नहीँ रखनी चाहिए। सेवा का वास्तविक मूल्य कोई मनुष्य नहीं दे सकता। केवल परमपिता परमात्मा ही मनुष्य को उसके सत्कर्मों का फल दे सकता है।
         मनुष्य यदि किसी बेसहारे का सहारा बन सके, किसी अन्धे की लाठी बन सके, बुजुर्गों का हमसाया बन सके, भूखे को खाना खिला सके, प्यासे को पानी पिला सके, भटके हुओं को सन्मार्ग दिखा सके तो इनसे बढ़कर कोई और महान सेवाकार्य हो नहीं सकते। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं-
              सेवा करने से मेवा मिलता है।
इस उक्ति का अर्थ यही है कि किसी की सेवा करने पर मनुष्य को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से फल मिलता है। सबसे पहले अच्छा कार्य करने पर मन को सन्तोष मिलता है, जिसका मूल्य रुपए-पैसे में नहीं आँका जा सकता। उस व्यक्ति द्वारा मन से जो आशीष दिए जाते हैं, वे भी फलीभूत होकर उसकी आत्मिक उन्नति में सहायक बनते हैं। उनके दिए गए आशीर्वाद मनुष्य को कहाँ हे कहाँ पहुँचा देते हैं। यदि मनुष्य निस्वार्थ सेवा करता है तब उसकी आयु बढ़ती है, उसका यश चहुँ ओर फैलता है, उसे सबसे सम्मान मिलता है। लोग उसे अपने सिर, आँखों पर बिठाते हैं।
         इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोग निस्वार्थ सेवा करने वालों को तिरस्कृत भी कर देते हैं। इससे निराश नहीं होना चाहिए। वास्तव में जिसके पास जो होता है, वह वही दूसरों को देता है। ऐसे मुट्ठी भर लोगों के व्यवहार के कारण अपने इस गुण का त्याग नहीं करना चाहिए। लोगों की बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए। उन्होने तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम तक को भी नहीं छोड़ा।
         सबसे बढ़कर जरा-सा कष्ट आने पर या हमारी मनोकामना पूरी न होने पर हम सभी लोग उस परमपिता परमात्मा को भी कोसने या ग़ाली देने से नहीं चूकते, जिसने हमें जीवन दिया है और हमारा पालन कर रहा है। हम मनुष्य तो ईश्वर से ऊपर नहीं हैं। इसलिए किसी के द्वारा आलोचना किए जाने पर हमें अपने मार्ग से हटना नहीं है बल्कि उस पर डटे रहना है।
         मनुष्य को सेवा जैसा पुण्य कार्य करने का अवसर कभी नहीं खोना चाहिए। जितनी अपनी सामर्थ्य हो उसे अपने तन, मन और धन से प्राणिमात्र की सेवा करनी चाहिए। यदि सभी लोग स्वार्थी बन जाएँ तो समाज के कार्य नहीं हो सकते। ईश्वर ने मनुष्य को जन्म दिया है। अपने सारे कर्मों का हिसाब उसे उस परमेश्वर को ही देना है। यही सत्य है, इसे जितनी जल्दी मनुष्य समझ लेगा उतना ही उसके लिए अच्छा होगा।
        इसलिए दूसरों की टीका-टिप्पणी या आलोचना से घबराना छोड़कर उसे ईश्वर की नजरों में स्वयं को महान सिद्ध करना है। वही उसके सेवा जैसे महान पुण्य कर्म का फल देने वाला है।
चन्द्र प्रभा सूद
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