मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

सरल मार्ग को त्यागें

मनुष्य का लक्ष्य अथवा उद्देश्य जितना महान होता है, उसका प्रयास भी उतना ही बड़ा होता है। सफलता को प्राप्त कर लेना कोई बच्चों का खेल नहीं है अथवा सहज या सरल नहीं होता। उसके लिए अथक परिश्रम करना पड़ता है। दिन-रात की चिन्ता किए बिना अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का जोखिम उठाना पड़ता है। जो लोग अपने जीवन में महान उद्देश्य लेकर चलते हैं, वे देर-सवेर अपने लक्ष्य में सफल हो ही जाते हैं। ऐसे महान लोग समाज में मील का पत्थर साबित होते हैं।
         सरल मार्ग को तलाशने वाले लोग प्रायः निम्न स्तर तक पहुँच जाते हैं। उन्हें केवल अपना स्वार्थ साधना होता है। उनका स्वार्थ चाहे कैसे भी सध जाए, यही उनका प्रयास होता है। उसके लिए अपना स्वाभिमान भी क्यों न गिरवी रखने पड़ जाए, इससे परहेज नहीं करते। सरल मार्ग को ढूंढने के क्रम में उनके कुमार्गगामी होने की सम्भावना भी सदा बनी रहती है। आने वाले समय में इसका दुष्परिणाम बहुत भयावह होता है। इसको भोगने में कष्टों का सामना करना पड़ता है।
          भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ 'नीतिशतकम्' में इसी विषय को बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है-
           शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरम्।
           महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि      जलधिम्।।
           अधोऽधो   गङ्गेयं  पदमुपगता   स्तोकमथवा।
           विवेकभ्रष्टानां  भवति  विनिपातः  शतमुखः॥
अर्थात गंगा स्वर्ग से निकल कर भगवान शिव की जटाओं में बन्ध जाती है। वहाँ से मुक्त होकर हिमालय से होती हुई धरती पर आ जाती है। फिर गंगा मैदानी इलाकों में आती है। मैदानों में आकर और नीचे जाते हुए अन्ततः समुद्र में मिल जाती है। ठीक इसी प्रकार मूर्ख भी अपने जीवन  के साथ करते हैं। अर्थात् वे सदा सबसे सरल मार्ग अपनाते हुए सबसे निम्न स्तर पर पहुँच जाते हैं।
         यह श्लोक हमें चेतावनी दे रहा है। कवि ने स्पष्ट शब्दों में अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वालों की मानसिकता पर प्रहार किया है। उन्हें मूर्ख बताते हुए बताया है कि वे कहाँ तक गिर सकते हैं। इस श्लोक में भारत की पवित्र नदी माँ गंगा की यात्रा के विषय में बताया है। कहाँ तो वह स्वर्ग में विद्यमान थी। फिर उसके बाद उसने भगवान शिव की जटाओं में शरण ली। जटाओं से निकलकर गंगा इस धरती पर उतरकर आ गयी। अन्त में वह समुद्र में जाकर विलीन हो गई। यानी समुद्र में मिलकर उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
         ऋषि-मुनि इस धरती से स्वर्ग में अपना स्थान बनाने के लिए कठोर तप और साधना करते हैं। दूसरी ओर यह गंगा नदी है जो उल्टी चाल चल रही है। उसकी इस यात्रा के माध्यम से कवि यही समझाना चाहता है कि स्वर्ग से गिरती हुई महानदी गंगा इस धरती पर आ गयी।  यानी उसका पतन हो गया। फिर उसका अन्त ऐसा हुआ कि सागर के विशाल जल में मिलकर वह अपना अस्तित्व ही खो रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो समुद्र की विशाल जलराशि में अनेक नदियों के जल को अलग-अलग कर सकना नामुमकिन है।
        इसी प्रकार सरल मार्ग या शॉर्टकट खोजने वालों का अन्त भी गंगा की तरह ही होता है। मानो उनका भी अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। जिस मार्ग पर वे चलते हैं या जिनकी संगति में वे रहते हैं, उसी नाम से पहचाने जाते हैं। बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि अपने जीवन के महान उद्देश्य को पीछे छोड़कर वे अपनी पहचान खो बैठते हैं। अपनी मूर्खता का परित्याग करके मनुष्य को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए संघर्षरत रहना चाहिए। यदि मनुष्य की पहचान गम हो गई तो वह जीते जी मृतवत हो जाता है। अतः समय रहते सजग हो जाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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