सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

आठ सूत्र प्रसन्न रहने के

नित्य प्रसन्न रहना और अपने कल्याण की कामना करना प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। वह जीवन में सुख-सुविधाओं का भोग करे तथा उसका सर्वविध कल्याण होता रहे यह बहुत आवश्यक है। जब तक मनुष्य के जीवन में कुछ अच्छा घटित नहीं होगा, वह प्रसन्न नहीं रह सकता। उसके दुखी या परेशान होने से उसका सारा परिवार प्रभावित होता है। मनुष्य को अपने जीवनकाल में ऐसा प्रयास करना चाहिए कि उसकी खुशियों को किसी की नजर न लगे। जितना वह दूसरों के दुख-दर्द को जानकर, समझकर उसमें सहभागी बनेगा, उतना ही उसका कल्याण होगा। उसका मन सदा प्रफुल्लित रहेगा।
        मनुष्य के कल्याण तथा प्रसन्नता का मार्ग
भर्तृहरि 'नीतिशतकम्' ग्रन्थ के निम्न श्लोक के माध्यम से बता रहे हैं-
     प्राणाघातान्निवृत्तिः  परधनहरणे  संयमः   सत्यवाक्यं।
    काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।।
    तृष्णास्त्रोतोविभड़्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा।
    सामान्यं सर्वशास्त्रोष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्था ।।
अर्थात जीवों को चोट पहुँचाने से बचना, दूसरों का धन हरण करने की इच्छा न रखना, हमेशा सत्य बोलना, समयानुसार श्रद्धा से दान करना, परायी स्त्री की चर्चा करने और सुनाने से दूर रहना, अपनी इच्छाओं को अपने वश में करना, गुरुजनों का आदर करना और सब जीवों पर दया करना- हम सब के लिए सभी शास्त्रों के मतानुसार यह कल्याण तथा प्रसन्नता का मार्ग है।
       इस श्लोक का सरल शब्दों में यही अर्थ है कि मनुष्य को निम्न आठ सूत्रों को मन, वचन तथा कर्म से अपनाना चाहिए। ये सूत्र हैं -
       प्रणियों के प्रति अहिंसा का भाव अपनाना चाहिए। सभी जीवों को जीने का अधिकार समान रूप से ईश्वर ने दिया है। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए। उनके प्रति सबको वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम अपने लिए चाहते हैं। किसी भी जीव की हिंसा करना शास्त्र के अनुसार अनुचित है। प्रत्येक मनुष्य का दायित्व है कि स्वयं का हित चाहने के साथ-साथ वह दूसरों का सम्मान भी करे।
         दूसरों का धन पाने या हड़पने की भावना से सदा दूर रहना चाहिए। हमेशा यह स्मरण रखना चाहिए कि बरकत अपनी मेहनत और ईमानदारी से कमाए हुए पैसे में होती है। दूसरों का हक छीनने वाले का धन उसी प्रकार चला जाता है, जैसा वह कमाता है। गलत तरीके से कमाया हुआ धन कभी भी सुख-शान्ति का कारक नहीं बनता। वह अपने साथ बहुत-सी बुराइयों को लेकर आता है। इसलिए सावधानी बरतना बहुत ही आवश्यक होता है।
          सच बोलना मनुष्य का एक बहुत बड़ा गुण है। प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह सदा सत्य के मार्ग पर चले। असत्य का साथ उसे नहीं करना चाहिए। उसे इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि सत्य कभी पराजित नहीं हो सकता। हाँ, वह कुछ समय के लिए धूमिल अवश्य हो सकता है। 'सत्यमेव जयते' कहकर मनीषियों ने सत्य को महिमामण्डित किया है। सत्य का पल्लू पकड़ने वाले कभी हारते नहीं है।
         अपनी शक्ति, सामर्थ्य और समय के अनुसार दान करना चाहिए। दूसरों की होड़ में दान नहीं देना चाहिए। दान अवश्य करना चाहिए पर सुपात्र को देना चाहिए। दान का प्रदर्शन कदापि नहीं करना चाहिए। ऐसे दान का कोई लाभ नहीं मिलता। अपनी नेक कमाई का से कुछ राशि निकलकर सामाजिक कार्यों में व्यय करना चाहिए। धन के अतिरिक्त विद्या, अन्न, वस्त्र अथवा श्रम का दान भी किया जा सकता है।
        परायी स्त्री के बारे में कुछ बोलने अथवा सुनने से सदा बचना चाहिए। 'मातृवत् परदरेषु' कहकर शास्त्र हमें अनुशासित करते हैं। पराई स्त्री को माता समझने वाले कभी भी उस पर कुदृष्टि नहीं डाल सकते। इससे सामाजिक तानाबाना सुचारू रूप से कार्य करता है। वहाँ किसी प्रकार के व्यभिचार की गुँजाइश नहीं रह जाती।
        मन में उत्पन्न होने वाली इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना चाहिए। हर कामना को पूर्ण करने असम्भव होता है। अतृप्त कामनाओं को पूर्ण करने के लिए मनुष्य स्याह-सफेद करता है जो उसके नैतिक पतन का कारण बनते हैं। मन तो पंख लगाकर ऊँचे आकाश में उड़ना चाहता है। उसे लगाम लगाना बहुत ही आवश्यक होता है अन्यथा मनुष्य अपना सारा जीवन भटकता ही रहता है। उसे कहीं भी पल भर का चैन नहीं मिल पाता।
        गुरु के प्रति सम्मान और नम्रता का भाव रखना चाहिए। चाहे वह गुण, आयु या किसी भी रूप में उससे बड़ा हो। अपने गुरुजनों का सदा सम्मान करना चाहिए। उनके प्रति विनम्र रहना चाहिए। तभी मनुष्य जीवन के पथ पर अनवरत अग्रसर रहता है। जो ज्ञान उसे इन अनुभवी गुरुजनों से मिलता है, वही वास्तव में उसकी पूँजी होता है।
           सबके प्रति दया की भावना अपने मन में रखनी चाहिए। जिस व्यक्ति के मन में दया, ममता, सहृदयता आदि गुण नहीं हैं, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी ही नहीं होता। दया से रहित कठोर मनुष्य को किसी से अपने प्रति सदय होने की आशा नहीं करनी चाहिए। हर निर्दय व्यक्ति भी यही चाहता है कि उसके लिए सभी दयालु बने रहें। सहृदय व्यकितयों को सब लोग पसन्द करते हैं, अन्यों को नहीं।
          मनीषियों द्वारा निर्देशित इस कल्याण के मार्ग पर चलकर मनुष्य को अपने जीवन में सदा चिरकालिक सच्चा सुख और प्रसन्नता पा लेनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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