कुलीन अथवा अच्छे कुल में जन्म लेने वाले किसी मनुष्य को अपरिहार्य परिस्थितियों में भी अपने सद्गुणों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए। उसे कदापि अपने कुल के संस्कारों के विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए। उसका शील-व्यवहार अपने कुल के अनुरूप ही दूसरों के लिए आदर्श होना चाहिए। उसे हर स्थिति में अपने धैर्य को बनाए रखना चाहिए तथा अपने विवेक का सहारा लेते हुए कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
आम जन ऐसे ही कुलीन सदाचारी, परोपकारी मनुष्यों का मुँह ताकते हैं। कुलीन व्यक्ति कभी दुराचरण नहीं कर सकता, यह अवधारणा सबके मन में बसी रहती है। सच्चाई यही है कि अच्छा कुल वही मन जाता है जिसमें रहने वाले प्रत्येक सदस्य का आचार-व्यवहार दूसरों के लिए आदर्श होता है। वहाँ सभी मिल-जुलकर रहते हैं। चन्दन की तरह उनकी सुगन्ध सर्वत्र फैलती रहती है। वहाँ छोटे बड़ों का मन करते हैं और बड़े उन्हें संरक्षण देते हैं। यानी आपसी प्यार-मुहब्बत वहाँ बना रहता है। यदि किसी सदस्य को समस्या का सामना करना पड़ जाता है तो सब मिलकर उसका हल खोज लेते हैं। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हो पाती। हर व्यक्ति उनके साथ अपना सम्बन्ध बनाने के लिए आतुर रहता है।
कुलीन मनुष्य के विषय में निम्नलिखित श्लोक में बहुत ही सुन्दर शब्दों में चित्रण किया गया है-
छिन्नोऽपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धम्।
वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः।
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।
अर्थात जिस प्रकार काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्ध का त्याग नहीं करता, वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर भी गजराज अपनी क्रीड़ा नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरे जाने के बाद भी ईख (गन्ना) अपनी मधुरता का त्याग नहीं करती, इसी प्रकार कुलीन मनुष्य भी दरिद्रता अथवा विपन्नता की स्थिति आ जाने पर अपने शीलता या चारित्रिक के गुणों का त्याग नहीं करता।
इस श्लोक में उदाहरण सहित अपनी बात को कवि ने स्पष्ट किया है। चन्दन की सुगन्ध जंगल में दूर-दूर तक फैलती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि चन्दन का वृक्ष काट दें तो वह सबको महकना छोड़ देगा। हम देखते हैं कि चन्दन के छोटे से टुकड़े को वर्षों बाद भी घिसो तो भी वह सुगन्ध और शीतलता देता है। इसी प्रकार हाथी चाहे वृद्ध हो पर जलक्रीड़ा करना नहीं छोड़ता। नदी के जल में वह स्नान करता है, अपनी सूँड में पानी भरकर फव्वारे की तरह छोड़ना नहीं भूलता। अपने आसपास हम गन्ने के रस की मशीने देखते हैं। वहाँ उसे इतना निचोड़ लिया जाता है कि उसमें शायद ही रास की कोई बूँद बचती है। फिर भी उसके शेष में मिठास राह जाती है, वह समाप्त नहीं होती।
कवि ने ये सभी सार्थक उदाहरण दिए हैं। यह सत्य है कि कुलीन व्यक्ति समय व परिस्थितियों के द्वारा कितना भी प्रताड़ित क्यों न किया जाए, वह अपने कुल के संस्कार नहीं छोड़ता। यह मैं भगवान श्री राम का उदाहरण भी देना चाहती हूँ। अगले दिन प्रातः उन्हें राज्य मिलना था, परन्तु उनकी सौतेली माता केकैयी के कहने पर उन्हें वन में जाना पड़ा। चाहते तो पिता के कथनानुसार वे विद्रोह कर सकते थे। उनकी आज्ञा का पालन करने से इन्कार कर सकते थे। अपने कुलनुरूप उन्होंने व्यवहार किया यानी वे सारी अयोध्या को रोता छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वन में चले गए। वहाँ भी अनेक कष्टों का उन्होंने सामना किया। अपने कुल को कलंकित नहीं किया। इसीलिए इतने युगों के बीत जाने पर भी उन्हें स्मरण किया जाता है। लोग उन्हें भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं।
कहने का तात्पर्य यही है कि कुलीन लोग कैसी भी स्थिति में हों अपने कुल के आदर्शों का त्याग नहीं करते। वे अपने उन मूल्यों के लिए अपने जीवन की बाजी तक लगा देने में भी नहीं हिचकिचाते। इतिहास भर पड़ा है ऐसे महानुभावों के चित्रण से। अतः अपने सदाचरण से ही कुलीन होने की पुष्टि की जा सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018
कुलीन का सदाचरण
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