सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

प्राप्त वस्तु का मूल्य नहीं

कटु सत्य है मनुष्य के जीवन का कि वह जिस भी वस्तु को प्राप्त करने की कामना करता है या हसरत रखता है, उसे पाने के लिए दिन-रात एक कर देता है। परन्तु जब उसे पा लेता है तो उसके लिए उसका महत्व कुछ भी नहीं रह जाता। वह वस्तु मानो उसके लिए सामान्य-सी हो जाती है। हो सकता है वह फिर उसे देखे ही नहीं। उसके बाद कुछ नया पाने का जुनून उस पर सवार हो जाता है। इस प्रकार यह क्रम अनवरत चलता रहता है। यानी जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह इस चक्र से कभी मुक्त नहीं हो पाता।
         इन्सान का मन भी बालक के मन की तरह हर दिन कुछ नया खिलौना चाहता है। उसके पास चाहे ढेर खिलौने हों, पर जब भी वह कोई नया खिलौना अपने मित्र के पास या बाजार में घूमते हुए देखता है, उसे पाने के लिए मचलने लगता है। माता-पिता से उसे दिलाने की जिद करता है। हो सकता है कि माता-पिता की हैसियत ही न हो उसे खरीदने की या उसकी उसे आवश्यकता ही उसे न हो। परन्तु जब वे उसे उसका मनचाहा खिलौना खरीदकर देते हैं तो वह उसे पाकर ऐसे प्रसन्न हो जाता है मानो उसने कोई जंग जीत ली हो या फिर कारू का खजाना उसके हाथ लग गया हो। दो-चार दिन ही वह उससे खेलता है, फिर उससे बोर होने लगता है। कुछ बच्चे पुनः मुड़कर उस खिलौने की ओर नहीं देखते और कुछ शरारती बच्चे उसे तोड़-मरोड़कर इधर-उधर फैंककर बरबाद कर देते हैं। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं होता कि माता-पिता ने किन आवश्यक खर्चों में कटोती करके, कितना पैसा उस पर खर्च किया है।
          मनुष्य की इसी प्रवृत्ति का बयान करती हुई यह एक कथा है जो हम में से बहुत मित्रों ने सुनी होगी।
          शिकार की खोज में जंगल में घूमते हुए एक शिकारी भटक गया। उसे कहीं भी रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। बहुत प्रयास करने के उपरान्त भी उसे जंगल से बाहर निकलने का मार्ग नही मिल सका। इस तरह जंगल में इधर-उधर घूमते हुए उसे कई दिन हो गए। उसने कुछ भी नहीं खाया था। भूख-प्यास से व्याकुल होकर वह छटपटाने लगा था। भूख उसकी सहनशक्ति से अब बाहर हो रही थी। अपनी क्षुधा शान्त करने के लिए वह फल तलाशने लगा।
         उसे निराशा होने लगी थी और ऐसा लगने लगा था कि अब उसके बचने की कोई आशा नहीं रह गयी है। तभी अचानक उसे एक सेब का पेड़ नजर आया। उसने तुरन्त ही कुछ सेब तोड़कर अपने पास रख लिए। पहला सेब खाते ही मानो उसमें जीवनी शक्ति का सञ्चार हो गया। उसकी प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा। ईश्वर का धन्यवाद करते हुए उसने अपनी कृतज्ञता ज्ञापन की।
           दूसरा सेब खाते समय उसकी खुशी कम हो गई। धीरे-धीरे पाँचवें सेब को खाते समय तक उसकी खुशी समाप्त ही होती गई। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि पाँचों सेबों में किसी प्रकार के स्वाद की कमी थी या वे खराब थे। इसका स्पष्ट अर्थ यही था कि भूख से तड़प रहे शिकारी को पहला सेब खाकर लगा कि वह मानो जी उठा है। अब उसकी क्षुधा शान्त हो रही थी, उसका पेट भरने लगा था। उसके पश्चात वाले सेब भी हालाँकि उसकी भूख को शान्त कर रहे थे, पर उसकी भूख कम होते हुए समाप्त हो रही थी। इसलिए धीरे-धीरे सेबों का आनन्द भी कम हो रहा था।
        हम सब लोग भी उस शिकारी की भाँति ही हैं। जिस वस्तु को हम व्याकुलता की स्थिति तक पाना चाहते हैं, जब उसे कठोर परिश्रम करके पा लेते हैं तब ऐसा लगने लगता है कि अमुक वस्तु को पा लेना कोई असाधारण बात नहीं। इसे पा लेना तो हमारे बाँए हाथ का खेल था। तब परिश्रम से कमाई गई वह वस्तु विशेष से साधारण हो जाती है। उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। इस जीवन में हमें ईश्वर की ओर से निरन्तर उपहार मिलते रहते हैं। इससे और और पाने का हमारा मोह नित्य प्रति बढ़ता ही जाता है। इन उपहारों के दाता के प्रति हमारी कृतज्ञता भी धीरे-धीरे कम होने लगती है। हमें लगता है कि ईश्वर जो भी हमें देता है, उस पर तो हमारा हक है। इस प्रकार अपने झूठे अहं के कारण हम उसकी उपेक्षा करने लगते हैं।
          वास्तव में होना तो यही चाहिए कि हमें इस जीवन में आने वाला हर दिन, हर पल बीते हुए किसी भी दिन या पल की तरह ही मूल्यवान प्रतीत होना चाहिए। बिनमाँगे मनुष्य को अपनी नेमतों से सदा मालामाल करने वाले ईश्वर और अपने इस जीवन के प्रति उसे सदा कृतज्ञ होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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