अपने अंत:करण में विद्यमान ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, लालच, अहंकार आदि के कूड़े को मनुष्य सम्हालकर रखता जाता है। कुछ समय पश्चात कचरा बने हुए ये सभी दूषित भाव धीरे-धीरे सड़कर बदबू देने लगते हैं। वे मनुष्य के मन-मस्तिष्क को और अधिक प्रभावित करने लगते हैं। उस समय अपने अहं के कारण जब मनुष्य विश्लेषण करने लगता है तो उसका अपने परिवारी जनों और बन्धु-बान्धवों पर से विश्वास उठने लगता है।
उन कुविचारों पर बार-बार मन्थन करने पर उसे यह लगने लगता है कि इस संसार में सभी उससे जलते हैं, उसे कोई भी तरक्की करते हुए नहीं देखना चाहता। सभी उसका फायदा उठाना चाहते हैं पर उससे उन्हें कोई लगाव नहीं है। सब लोग उसके साथ स्वार्थवश जुड़े हुए हैं।
सदा ही इस प्रकार सोच-विचार करते रहने वाले व्यक्ति धीरे-धीरे समय बीतते नकारात्मक दृष्टिकोण वाले बन जाते हैं। उन्हें हर मनुष्य में खोट ही नजर आने लगता है, चाहे वह उनका प्रिय ही क्यों न हो। हर व्यक्ति को वे सन्देहभरी नजरों से देखते हैं।
उन्हें यही लगता है कि एक वे ही हैं जो दुनिया बदल देने की सामर्थ्य रखते हैं और उनके आसपास रहने वाले बाकी सभी लोग मूर्ख हैं। वह हर अच्छी चर्चा को अपने नकारात्मक विचारों से बरबाद करके सबकी आलोचना का शिकार बन जाते हैं। बाद में यही शिकायत करते हैं कि उनकी बात को कोई सुनकर लाभ ही नहीं उठाना चाहता और अपनी इस गलती पर वे सब एक दिन सब पछताएँगे।
मोह-माया के बन्धन में जकड़ा हुआ मनुष्य इनसे अपना पल्लू नहीं झाड़ पाता। न चाहते हुए भी अज्ञानतावश बार-बार इनके जाल में फँस जाता है। इसलिए वह केवल अपनों के लिए सब सुख-सुविधाएँ जुटाता है और दूसरे सभी लोगों को अनदेखा करने लगता है।
जैसे अन्धा बाँटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे, उसी प्रकार अपनों के मोह में फंसे मनुष्य भी बारबार जाने-अनजाने सब गलत-सही काम करने से परहेज नहीं करते। बाद में परेशान होते हैं और पश्चाताप करते हैं।
इसी प्रकार क्रोध करता हुआ वह अपना विवेक दाँव पर लगा देता है। वह किसी ऐसे मनुष्य से दोस्ती नहीं करना चाहता जो अनावश्यक ही क्रोध करके अपने सामने वाले का अपमान करे अथवा दूसरों से अलग होता जाए।
जिस प्रकार घर के अन्दर जमा हुए कूड़े-कचरे को फैंकने के लिए उसका विज्ञापन अखबार आदि में नहीं किया जाता बल्कि चुपचाप प्रसन्नतापूर्वक बाहर जाकर कूड़दान में फैंक दिया जाता है। उसी प्रकार अपने अंतस् में विद्यमान कुत्सित भावरूपी कचरे को निकाल फैंकने के लिए भी ढिंढोरा नहीं पीटा जाता या विज्ञापित नहीं किया जाता।
इन विचारों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। न ही इन्हें अपने जीवन को नरक के तुल्य कष्टदायी बनाने देना चाहिए। इन्हें नियन्त्रित करना हमारे लिए बहुत आवश्यक हो जाता है।
ईश्वर की शरण में जाने से और अपने सद् ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करने से इन विचारों को वश में किया जा सकता है। साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि अपनी संगति पर पैनी नजर रखनी चाहिए। यथासम्भव सज्जनों की संगति में रहने का प्रयास करना चाहिए।
अपने मन को साधने के लिए आत्मचिन्तन करना चाहिए। रात को सोते समय एक बार सारे दिन के कार्य व्यवहार पर नजर डालने से अपनी अच्छाई-बुराई का भान हो जाता है। उससे सबक लेकर अच्छे कृत्यों को बढ़ाते जाना चाहिए और अपनी कमियों को दूर करते रहना चाहिए। वास्तव में थोड़ा-सा प्रयत्न करने से व्यक्ति स्वयं ही समझदार मनुष्य बनकर सबका प्रिय हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp
शुक्रवार, 11 मार्च 2016
अंतस् में विद्यमान कचरा
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें