मंगलवार, 22 मार्च 2016

निस्वार्थ सेवा का फल

अपने झूठे अहं के कारण जो मनुष्य दूसरों की सहायता नहीं करता वह खाली हाथ रह जाता है। वह चाहे कितनी ही सुख-समृद्धि जुटा ले पर उसे मानसिक सन्तोष नहीं मिलता। वह सदा ही किसी-न-किसी कारण से भटकता रहता है। यह भटकाव उसे आजीवन परेशान करता रहता है। वह उसके सुख-चैन पर सदा घात लगाए बैठा रहता है। मनुष्य यदि दूसरों की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से तत्पर हो जाए तो उसके बिना माँगे ही उसकी झोली में सब कुछ आ जाता है।
           एक दृष्टान्त याद आ रहा है। एक बार देवताओं और असुरों को अलग-अलग मेज पर भोजन करने के लिए बिठा दिया गया। उनके सामने शर्त रखी गई कि उनकी बाहों में खप्पचियाँ बाँधी जाएँगी और उन्हें बंधे हाथों से उन्हें भोजन समाप्त करना है।
          तब उनको खप्पचियाँ बाँध दी गईं और फिर उनके समक्ष भोजन को परोस दिया गया। उनको खाना खाने के लिए आदेश दे दिया गया। देवताओं और असुरों दोनों ने ही बहुत प्रयास किया परन्तु बाहें न मोड़ पाने के कारण वे खाना खाने में सफल नहीं हो पाए। वे चम्मच में खाना भरकर मुँह की ओर ले जाते तो बंधे हाथ के कारण खाना उनके मुँह में न जाकर गिर जाता। अब वे दोनों ही परेशान होने लगे कि खाना कैसे खाया जाए?
           असुरों की प्रकृति होती है कि वे कभी मिल-जुलकर रह नहीं पाते, अपने अहं के कारण सदा झगड़ते ही रहते हैं। यहाँ भी मिलकर खाने के विषय में वे असुर सोच ही नहीं पाए। उनका भोजन नीचे धरती पर गिरकर बिखरता हुआ समाप्त हो गया और वे बिनखाए भूखे ही उठ गए।
            दूसरी ओर देवता थे जो सहिष्णु और सबके हितचिन्तक होते हैं। उन्होंने उपाय सोचा और उस पर अमल करने लगे। सभी देवता आमने-सामने होकर बैठ गए। चम्मच में भोज्य लेते और सामने वाले के मुँह में डालते। इस प्रकार एक-दूसरे की सहायता से उन्होंने भरपेट भोजन का आनन्द लिया। इस तरह उनकी बुद्धिमानी और परोपकार की भावना के कारण उनका भोजन व्यर्थ ही नष्ट नहीं हुआ और अपनी मेज से वे तृप्त होकर उठे।
           यह कथा हमें यही समझाती है कि दूसरों के हित की चिन्ता करने पर अपना हित स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। ईश्वर का न्याय है - 'इस हाथ दो और उस हाथ लो।' बार-बार हम इस सत्य को भूल जाते है और स्वार्थ के हाथों विवश हो जाते हैं। यह स्वार्थ हमारी कामनाओं की पूर्ति का मात्र साधन नहीं है अपितु हमें मूर्ख बनाकर दिन-रात हमें ठगता रहता है। इस तरह हम भी अनजान बनकर अपना तमाशा स्वयं ही बन जाते हैं।
          मनुष्य जितना अधिक स्व तक ही सीमित रहता है उसे परेशानियो का सामना करना पड़ता है। परन्तु जब वह स्व से ऊपर उठकर पर यानि दूसरों के बारे में सोचने लगता है तो उसे सहज ही वह सब प्राप्त हो जाता है जिसे वह अपनी कल्पना में ही पाता रहता है।
            इसीलिए हमारे मनीषी व्यष्टि(एक) से समष्टि(समूह या अनेक) की ओर चलने की बात करते हैं। यही कारण रहा होगा विश्व बन्धुत्व की कल्पना का जिसके लिए कहा जाता है- ' वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् सारी पृथ्वी अपना घर है।
          इस विचारधारा में सबको साथ लेकर चलने और मिल-जुलकर रहने की भावना बलवती होती है। हर मनुष्य को अपने घर-परिवार के आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। उन्हीं के लिए ही वह जीता है और सारा जीवन खटता रहता है।
         अतः सम्पूर्ण ससार को यदि मनुष्य अपना परिवार ही मान ले तो सारे फसाद ही समाप्त हो जाएँगे। तब हर ओर से हम शुभ की ही कामना करेंगे। तब कोई स्वार्थ किसी पर हावी नहीं होगा। सब एक दूसरे का हित साधेंगे और सहायता करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें