मृत्यु एक अटल सत्य है। एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने का विश्राम स्थल है। इससे घबराना नहीं चाहिए। जिस भी जीव का जन्म इस संसार में होता है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। हर जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार निश्चित समय के लिए इस संसार में आता है। मनुष्य स्वयं चाहे अथवा न चाहे परन्तु समयावधि पूर्ण होने के पश्चात इस दुनिया से उसे विदा लेनी ही पड़ती है।
उसके निकटस्थ सम्बन्धी बेशक रोते-बिलखते रह जाते हैं और वह दूसरे लोक की यात्रा के लिए निपट अकेले ही प्रस्थान कर जाता है, किसी को अपने साथ लेकर जाने की अनुमति उसे ईश्वर की ओर से नहीं मिलती।
प्राण जब इस शरीर का त्याग कर देते हैं तब जीव की आँखें सदा के लिए मुँद जाती हैं। उस समय सभी भौतिक रिश्ते-नाते इसी संसार में छूट जाते हैं। कोई भी सम्बन्धी उसका अपना नहीं रह जाता और न ही वह भी किसी का नहीं रहता है। जिन परिवारों जनों के लिए वह सारा जीवन सब स्याह-सफेद कार्य करता है, वे सभी भाई-बन्धु केवल जीते जी की माया हैं और सिर्फ श्मशान तक साथ निभाते हैं। उसके पश्चात की यात्रा जीव को स्वयं अकेले ही तय करनी होती है।
अब हमें यहाँ यह भी विचार करना है कि क्या सिर्फ साँसे बंद होने से कोई मुर्दा हो जाता है? जिसे अपने प्रियजन भी घर रखने के लिए तैयार नहीं होते। बस शीघ्र ही उसे घर से निकाल देने के लिए उत्सुक रहते हैं। यही रह जाती है मनुष्य के जीवन की कहानी।
यह चिरन्तन सत्य है कि श्वासों की डोर थमने या टूट जाने से जीव मृत हो जाता है। उसे हम आम बोलचाल में शव या मुर्दा कहते हैं। फिर तब उस शव को उसी के ही परिवारी जन और बन्धु-बान्धव जुलूस बनाकर, श्मशान में ले जाकर अग्नि के सुपुर्द कर देते हैं। उसके जल जाने की थोड़ी-सी प्रतीक्षा किए बिना ही अपने-अपने घरों को लौट आते हैं।
यह भी सत्य है कि जब मनुष्य से उसकी इन्सानियत निकल जाती है या फिर उसकी आँखों का पानी मर जाता है, उस समय भी वह मृतप्राय होता है। मनुष्य के लिए यही आवश्यक है कि सबसे पहले वह एक अच्छा इन्सान बने। एक मनुष्य में सबसे पहले मानवोचित गुणों का होना जरूरी है। उन गुणों के बिना इस मनुष्य को राक्षस या हैवान कहते हैं।
ये दुष्ट प्रकृति के लोग मनुष्यता के नाम पर कलंक होते हैं, जो इन्सानियत की कब्र खोदते हैं। इन्हें न तो घर-परिवार में स्थान मिलता है और न ही देश-समाज में। नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियमों के विरुद्ध चलने वाले ये लोग देश, धर्म और समाज के शत्रु कहलाते हैं।
इसलिए ये लोग न्याय व्यवस्था से आँखमिचौली खेलते हुए अन्तत: कानून की बेड़ियों में जकड़कर सलाखों के पीछे जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाते है। किसी भी व्यक्ति के जीवित रहते हुए मिलने वाली यह एक ऐसी मृत्यु होती है जो स्वयं उसके लिए और उसके अपनों के लिए बहुत कष्टकारी होती है।
वैसे तो जरा-सा कष्ट आने पर हम सब लोग मृत्यु को पुकारने लगते हैं, पर वह क्षणिक रोष होता है। कभी-कभी लम्बी या असाध्य बीमारी की अवस्था में भी मनुष्य जीवन से हारकर मृत्यु का दामन थामना चाहता है, पर यह उसके वश में नहीं होता। ईश्वरीय इच्छा के समक्ष मनुष्य को नतमस्तक होना पड़ता है।
ईश्वर के प्राकृतिक न्याय के अनुसार मृत्यु होना एक स्वाभाविक-सी प्रक्रिया है परन्तु अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने वाली यह मृत्यु मनुष्य की स्वयं की बुलाई हुई होती है। मनुष्य को अपनी मृत्यु को इस प्रकार अनावश्यक रूप से कष्टदायक नहीं बनाना चाहिए। उसे सही रास्ते का चुनाव करके उस मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सुखद बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 16 मार्च 2016
मृत्यु अटल सत्य
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