मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

धोखा देने वाले को सुख नहीं

किसी भी व्यक्ति को जाने-अनजाने कभी कष्ट अथवा धोखा नहीं देना चाहिए। वह समझता है कि दूसरों को ठगकर अथवा परेशान करके वह अपने लिए खुशियाँ या सुख एकत्र कर रहा है। परन्तु यह उसकी भूल होती है। इस तरह का व्यवहार करके न वह खुशियाँ बटोर सकता है और न ही वास्तव में धन कमा पाता है। हाँ, ऐसा करके मनुष्य अपने जीवन में स्वयं के लिए काँटे बोता चला जाता है।
       यह तो जग में उल्टी रीत कहलाएगी। जबकि होना यह चाहिए कि अपने साथ अनुचित व्यवहार करने वालों को क्षमा कर देनी चाहिए। कबीरदास जी ने इस विषय पर कहा है -
          जो तोको  काँटा बुवै ताहे  बोव तू फूल।
          तोको फूल के फूल हैं वाको हैं तिरशूल।।
यानी अपनी तरफ से किसी का बुरा नहीं करना चाहिए और यदि कोई फिर भी गलत करे तो उसे काँटों की तरह कष्ट पीड़ित करते हैं। सदा दूसरों का शुभ करने वालों की फूलों के समान चहुँ ओर सुगन्ध फैलती है। उसे मानसिक सन्तोष मिलता है जो दुनिया के हर भौतिक ऐश्वर्य से बढ़कर होता है।
        ऐसे कुकृत्यों से दूसरे मन को जो भी पीड़ा होती है, उसका भुगतान मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है। कबीरदास जी ने चेतावनी देते हुए कहा है -
         दुर्बल  को  न  सताइए  जाकी  मोटी  हाय।
         बिना साँस की चाम से लौह भस्म हो जाय।।
अर्थात निर्जीव धौंकनी को जब कोई लुहार चलता है तो उससे आग और अधिक प्रज्जवलित होती है। उस समय वह कठोर लोहे को भी गला देती है।
      तात्पर्य मात्र इतना है कि जिसे मनुष्य बेबस या कमजोर समझकर कष्ट देता है, उसके मन की पीड़ा से वह अछूता नहीं रह सकता। उसे उसका कुफल भुगतना ही पड़ता है। इससे बचाव का कोई मार्ग नहीं रह जाता। इसलिए दूसरों का सम्मान को कभी दागदार करने का प्रयास नहीं करना चाहिए और न ही किसी असहाय की हाय भी नहीं लेनी चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा करने से बच सके तो उससे बड़ा कोई नहीं।
        मनुष्य को कभी किसी की मजबूरी अथवा विवशता का लाभ नहीं उठाना चाहिए। मजबूरी ऐसी चीज है जो किसी से कुछ भी करवा सकती है। ऐसी स्थिति आ जाने पर इन्सान लाचार होकर स्वयं को भी बेच देता है यानी बन्धुवा मजदूर बन जाता है। मनुष्य अपने दीन-ईमान तक का सौदा कर बैठता है। यहाँ तक कि वह अपनों और अपने देश तक के रहस्यों को शत्रुओं को बेच देने में भी परहेज नहीं करता। केवल अपनी विपरीत स्थितियों से पार पा जाने की मजबूरी और जिन्दगी से लड़ने की जद्दोजहद ही इसका प्रमुख कारण प्रतीत होता है।
       सोशल मीडिया और समाचार पत्रों में कई बार ऐसा समाचार पढ़ा-सुना है कि विवशता के कारण माता-पिता अपने जिगर के टुकड़ों को बेच देते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ एक ओर मानवाधिकारों की चर्चा जोर पकड़ रही है, वहीं दूसरी ओर बहुत से असहाय लोग गुलामों से भी बदतर बन्धुआ मजदूर का सा जीवन जी रहे हैं। यह हमारे सभ्य समाज के मुँह पर एक करारा तमाचा जड़ने जैसा कार्य हो कहा जा सकता है।
        मनुष्य को हर कदम पर सचेत रहना चाहिए। उसे सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह जाने अथवा अनजाने किसी के सन्ताप का कारण न बने। यदि दुर्भाग्यवश कभी उससे गलती हो भी जाए तो अपने तथाकथित अहं को एक किनारे रखकर अपनी उस भूल को सुधारने का एक प्रयास उसे अवश्य कर लेना चाहिए। इससे उसका कद और ऊँचा हो जाएगा, उसका मान नहीं कम होगा।
       मनुष्य को मानव का यह जन्म बहुत कठिनता से मिलता है। इसे अनावश्यक ही व्यर्थ के झगड़ों, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य में नहीं गँवाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो अपने जीवन को देश, धर्म और समाज के हित में लगाकर मनुष्य को अपना इहलोक और परलोक सुधारना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें