शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

दुःख-सुख की रचना क्यों

मानव अपने जुड़वाँ सहोदरों की तरह सुख और दुख दोनों के साथ इस संसार में जन्म लेता है। ये दोनों मानो आजन्म बाडीगार्ड की तरह उसके अगल-बगल, उसकी परछाई बनकर चलते हैं। इनसे छिप जाना अथवा नजरें चुराकर कहीं भागकर चले जाना मनुष्य के लिए कदापि सम्भव नहीं है। यह सब कर पाना उसके वश की बात नहीं है।
        सुख और दुख मनुष्य के जीवन में अहं किरदार निभाते हैं। अब विचार यह करना है कि दुख क्या है और सुख क्या है?  ईश्वर ने इन दुःखों और सुखों की रचना किसके लिए की है? इस संसार में कौन व्यक्ति दुःखी है और कौन सुखी है? किसके खो जाने पर दुःख नहीं होता? ऐसा कौन-सा एकमात्र उपाय हो सकता है जिसे अपनाकर मनुष्य का जीवन लम्बे समय तक सुखी रह सकता है?
         इस असार संसार में दुःखों का मूल कारण मनुष्य के मन में पनपने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, स्वार्थ और भय की प्रवृत्ति होती है। इनके वश में रहने पर मनुष्य को सदा दुखों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। यदि वह अपनी इन कमजोरियों को नियन्त्रणित कर लेता है, उन्हें अपने ऊपर हावी नहीं होने देता तभी वह सुखी रह सकता है। मनुष्य का अच्छा स्वभाव ही उसके सुखी होने का उपाय है।
        ईश्वर ने इस संसार की रचना की है। मनुष्य ने अपने विचारों और कर्मों से दुःख और सुख के व्यूह की रचना की है। वही अपने सुखों और दुखों का उत्तरदायी है, किसी अन्य व्यक्ति के माथे पर वह इसका दोष नहीं मढ़ सकता। मनुष्य कर्म करने में सर्वथा स्वतन्त्र है परन्तु उसके फल को भोगने में कदापि नहीं।
        मनुष्य अपने जीवनकाल में जो कुछ भी स्याह-सफेद करता है, वह अपनी स्वयं इच्छा के अनुरूप करता है। उसमें किसी अन्य का दखल नहीं होता। यह बात और है कि वह किसी से प्रभावित होकर शुभाशुभ कर्म कर बैठता है जिसकी भरपाई उसे सुख-समृद्धि प्राप्त करके अथवा कष्ट-परेशानियाँ भोगकर स्वयं ही करनी होती है।
         इसका कारण है कि मनुष्य की हर क्रिया, उसके हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, भयंकर भी हो सकता है। मनुष्य के पूर्वजन्मों में किए गए कर्म सञ्चित होकर उसके भाग्य का निर्माण करते हैं। यह भाग्य प्रत्येक जन्म में जीव के साथ-साथ चलता है। उसी के आधार पर समयानुसार उसे दुख और सुख आदि की प्राप्ति होती है।           
         मनुष्य की यह भूल होगी यदि वह ईश्वर को सुख और दुख का कारक मानता है। ईश्वर मनुष्य के खाते में इन्हें नहीं जोड़ता बल्कि मनुष्य अपने कर्मों से उनका संग्रह करता है। वास्तव में जैसे भी कर्म मनुष्य आज अपने खाते में जोड़ता है, वे ही कर्म आने वाले कल मे उसका भाग्य बन जाते हैं। ईश्वर की इसमें कोई भूमिका नहीं है, मनुष्य स्वयं ही उत्तरदायी है।
         ईश्वर समय-समय पर मनुष्य को दुष्कर्म न करने की चेतावनी देता रहता है और सत्कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करता है। मनुष्य स्वयं को ऐसा महान तथाकथित ज्ञानी मानता है जो ईश्वर को अपने अहं के कारण कुछ भी नहीं जानता और समझता। वह अपनी बुद्धि को सबसे ऊपर मानता है। ईश्वर सहित सारा संसार उसके समक्ष मानो पानी भरता है।
        सुखों और दुखों के मकड़जाल में मनुष्य अपनी मूर्खताओं के कारण फँसता है। न वह ईश्वरीय चेतावनी पर ध्यान देता है, न हीं अपने मनीषियों से कुछ सीखना चाहता है और न ही अपने शास्त्रों की शिक्षाओं पर चलना चाहता है। इन सबके अतिरिक्त वह अपने मद के कारण न्याय-व्यवस्था से भयभीत होता है। वह स्वयं ही दुखों, कष्टों और परेशानियों को न्यौता देता है। फिर ईश्वर सहित सारे जमाने को पानी पी-पीकर कोसता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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