गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

नश्वर-अनश्वर की पहेली

सृष्टि के आदि से लेकर अद्य पर्यन्त हर विचारशील मनुष्य के मन में कुछ प्रश्न अपना फन उठाए उसे सदा ही उद्वेलित करते रहते हैं। बादलों की भाँति हृदय में उमड़ते-घुमड़ते इन प्रश्नों के उत्तर जानने का वह भरसक प्रयास करता है, परन्तु फिर भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। इसलिए वह सदा यहाँ वहाँ भटकता रहता है और तथाकथित ढोंगियों और शठों के चंगुल में फँसकर परेशान होता है।
          जो प्रश्न मनुष्य को सदैव उद्वेलित करते रहते हैं और उसका जीवन मुहाल कर देते हैँ, वे हैं- इस मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? जन्म और मरण के बन्धनों से कौन मुक्त हो सकता है? दुनिया में नश्वर कौन कहलाता है और किसे हम अनश्वर कह सकते हैं?
          इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ पाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए बहुत कठोर साधना की आवश्यकता होती है। अपने महान ग्रन्थों के अनुशीलन और मनन की महती आवश्यकता होती है। ईश्वर की अनुकम्पा जिस मनुष्य पर हो जाए, वही सौभाग्यशाली इस सत्य की खोज के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। इस सत्य को ऋषि और मनस्वी जन आयुपर्यन्त खोजते रहते हैं, तब कहीं जाकर वे इस सत्य का अनुसन्धान करके उसे उद्घाटित करने में सफल हो पाते हैं।    
          जीवन का उद्देश्य वही चेतन मनुष्य जान सकता है, जो जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इस रहस्य को जानना ही मोक्ष कहलाता है। जिस मनुष्य ने स्वयं को और स्वयं मे विद्यमान आत्मा के गूढ़ रहस्य को भली-भाँति समझ लिया, वही जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त हो सकता है।
           जिस मनुष्य ने अपने अंतस में विद्यमान आत्मा और तत्सम्बन्धित ज्ञान को आत्मसात कर लिया उसके लिए इस ब्रह्माण्ड में कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता। ऐसा व्यक्ति ही जन्म-मरण और चौरासी लाख योनियों के बन्धनों से मुक्त होकर, बहुत कठिनता से प्राप्त हो सकने वाले मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
      जिसका भी जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। कोई भी जीव यहाँ स्थायी रूप से निवास नहीं कर सकता। इसीलिए इस मृत्युलोक को हमारे ग्रन्थ और मनीषी मरणधर्मा कहते हैं। अतः सभी जीव नश्वर कहलाते हैं। केवल ईश्वर ही अनश्वर है क्योंकि वह जन्म और मरण के बन्धनों से परे है।
         इसके अतिरिक्त ईश्वर का अंश जीव भी अनश्वर होता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ईश्वर और शरीर में रहने वाली जीवात्मा दोनों ही अविनाशी हैं, शेष अन्य सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ नश्वर हैं। यह आत्मा जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेती अर्थात परमात्मा में लीन नहीं हो जाती तब तक वह शरीर धारण करके इस धरा पर जन्म लेती रहती है।
        वैसे सभी प्रकार के द्वन्द्व या भोग इस शरीर के होते हैं, आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
          नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
          न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
         इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य को समझा रहे हैं कि आत्मा पर किसी भौतिक प्राकृतिक पदार्थ का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह इन सबसे निर्लिप्त रहती है। शरीर इन सभी से प्रभावित होता है। बच्चे के रूप में जन्म लेकर बढ़ना और मृत्यु तक की यात्रा करता है।
         इन रहस्यों की गुत्थी में उलझने के स्थान पर मनुष्य को अपने शास्त्रों और ऋषियों के बताए मार्ग का अनुकरण करना चाहिए। उसे संसार में सब उसके कृत कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होता है। इसलिए कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना परम आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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