रविवार, 9 अप्रैल 2017

देखकर अनदेखा करना

हमारे आसपास प्रतिदिन बहुत कुछ घटित होता रहता है। इसमें से कुछ ऐसा हो जाता है जो अपनी छाप सबके हृदयों पर छोड़ जाता है और कुछ ऐसा भी होता है जिसे हम अनावश्यक मानकर अनदेखा कर देते हैं अथवा शीघ्र भूल जाते हैं। सभी घटनाएँ जीवन के क्रम को बाधित नहीं कर सकतीं। कुछ घटनाओं से सीख लेकर हम आगे बढ़ जाते हैं जो जीवन की दिशा और दशा ही बदल देती हैं।
         पूरे विश्व में कई भौतिक आश्चर्य हैं जिन्हें देखने के लिए जन सैलाब उमड़ता रहता है। इसी प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर बिखरा हुआ है। उसका आनन्द उठाने वाले भी बहुत से सैलानी हैं। परन्तु इन सबसे बड़ा आश्चर्य है अपने आसपास होने वाली मृत्यु को प्रत्यक्ष देखकर भी हम सभी अनदेखा करते हैं। यह मृत्यु दुनिया मे अपरिवर्तनशील है।
       सभी यही सोचते हैं कि जाने वाला तो चला गया है, हम थोड़े ही जाने वाले हैं। हम तो मानो संसार में सदा रहने के लिए पट्टा लिखवाकर आए हैं। हमें कोई हिला नहीं सकता। इसलिए मनुष्य शुभ-अशुभ कर्म करने से घबराता नहीं है। उसे अपनी गलतियाँ कभी नजर नहीं आतीं। वह बेधड़क अपनी योजनाओं और षडयन्त्रों को अन्जाम देता रहता है और सुख-दुख के झूले में झूलता रहता है।
         महाभारत में एक प्रसंग आता है कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव तेरह वर्ष के लिए जंगल में भटक रहे थे। प्यास के कारण वे परेशान थे। उस समय भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों भाई क्रमशः पानी की तलाश में जाते हैं। उन्हें एक तालाब दिखाई देता है जिसका स्वामी एक यक्ष होता है। पानी लेने से पहले यक्ष सबसे प्रश्न पूछता है और उसका उत्तर न दे पाने के कारण वे बेहोश हो जाते हैं। अन्त में युधिष्ठिर पानी के लिए जाते हैं।
       यक्ष ने युधिष्ठिर से भी कई प्रश्न पूछे। उनमें से एक था - 'इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?'
        इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महाराज युधिष्ठिर ने कहा था - 'प्रतिदिन हजारों-लाखों लोग मरते हैं। इसे सभी लोग देखते हैं, फिर भी सबको अनन्त-काल तक जीते रहने की इच्छा होती है।'
       यक्ष का महाराज युधिष्ठिर से यह प्रश्न करना वास्तव में बहुत ही समीचीन है। जितना यह तब सत्य था, उतना ही आज भी है। अतः इसे हम सार्वभौमिक सत्य की श्रेणी में रख सकते हैं। यदि क्रियात्मक रूप से देखा जाए तो इस सत्य कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। मनीषियों ने इसीलिए इसे श्मशान वैराग्य की श्रेणी में रखा हैं।
        अपने प्रिय बन्धु-बान्धवों की मृत्यु के उपरान्त उनका संस्कार करने के लिए उन्हें श्मशान ले जाते हैं। जब वहाँ उस शव को अग्नि को समर्पित करते हैं तब मन में यही भाव आता है कि इस संसार में कुछ नहीं रखा है। एक दिन सभी को यहीं आना है। दुनिया के सारे कार्य-व्यवहार का कोई लाभ नहीं। खून-पसीने से कमाई हुई यह धन-दौलत भी कोई अपने साथ लेकर नहीं जा सकता।
        मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ ही विदा हो जाता है। आँख मूँदते ही सारी मारधाड़, सारी मेहनत एक झटके में धरी-की-धरी रह जाती है। अपना वही है जो शुभ कार्यों में व्यय कर दिया गया। ईश्वर की माया समझ ही नहीं आती कि वह हमसे क्या चाहता है। ऐसे दार्शनिक विचार हर किसी के मन को मथते हैं।
         श्मशान से बाहर निकलते ही एक पल में सारा दर्शन छूमन्तर हो जाता है। उस समय घर, परिवार, कार्यक्षेत्र आदि की समस्याएँ मुँह बाए खड़ी दिखाई देने लगती हैं। कुछ पल पहले के विचार न जाने मन के किस कोने में दफन हो जाते हैं। मनुष्य उन विचारों को अपने मन से झटककर पुनः दुनिया में रम जाता है। वह क्षणिक वैराग्य उसके पैर की बेड़ी नही बन पाता। वास्तव में इससे बड़ा आश्चर्य नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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