किशोर वय की भी बड़ों की तरह अपनी ही बहुत सारी समस्याएँ होती हैं। इस आयु में बच्चे जीवन के ऐसे मोड़ पर होते हैं कि न तो वे बड़े कहलाते हैं और न ही बच्चे। इन बच्चों की सही कही बातों पर बड़े लोग ध्यान नहीं देते। यह बात इनके कोमल मन को बहुत पीड़ा देती है।
इन किशोरों की सबसे बड़ी समस्या है कि ये सोचते हैं हम बड़े हो गए हैं और बड़ों की तरह ही उन्हें अपने फैसले लेने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। वे अपनी मनमर्जी से सारे कार्य करना चाहते हैं। वे चाहते है कोई भी उन्हें रोकटोक न करे। किसी की भी दखलअंदाजी से वे चिढ़ जाते हैं।
इस किशोरावस्था में वे छोटों के साथ खेलना या मौज-मस्ती नहीं करना चाहते। उन्हे लगता है कि वे छोटे हैं उनके बराबर के नहीं हैं। इसलिए वे उनसे दूरी बनाकर रहते हैं। बड़े लोग जो है वे उन्हें बच्चा मानते हुए अनदेखा करते हैं। इस कारण वे बिल्कुल अकेले हो जाते हैं।
अपने इस अकेलेपन को दूर करने के लिए वे हमउम्र साथियों की तलाश करते हैं। उनके साथ वे अपना समय व्यतीत करते हैं, मौज-मस्ती करते हैं, हंसी-मजाक करते हैं और घूमते-फिरते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे दोस्तों को खोजकर उन्होंने कोई खजाना पा लिया है।
घर में रहते हुए वे स्वय को अकेला महसूस करते हैं। इसलिए अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए उनको टीवी देखकर, गेम्स खेलकर, मोबाइल में वाटस अप पर दोस्तों से गप्पे लगाकर अथवा फेसबुक पर मनपसंद पोस्ट या वीडियो देखकर अपना समय बिताना अच्छा लगता है। अपनी पसंद के गाने सुनकर भी वे मन बहलाने का यत्न करते हैं।
ये बच्चे चाहते हैं कि उनके माता-पिता उनके लिए समय निकालें, उनके पास बैठें, उनसे सलाह-मशविरा करें, जरूरत पड़ने पर उनको डाँट-डपट करें। वे अपनी स्कूल की और अपने दोस्तों की समस्याओं को उनके साथ शेयर करना चाहते हैं।
उनके माता-पिता दोनों ही दिन-रात अपने-अपने कार्यालय अथवा व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं। सवेरे से शाम तक जुटे हुए उन्हें आराम के पल भी नहीं मिलते। जिन किशोरों की सुविधा सम्पन्न माताएँ घर पर रहती हैं वे भी अपने मित्रों के साथ क्लबों, किटी पार्टियों या शापिंग आदि में व्यस्त रहती हैं। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव रहता है।
अपने समयाभाव के मुआवजे के रूप में वे बच्चों को उनकी पसंदीदा मंहगी वस्तुएँ खरीदकर ला देते हैं। यदि वे सौ रूपए माँगते हैं तो उन्हें पाँच सौ या हजार के नोट थमा देते हैं। विद्यालय से कहीं बाहर घूमने जाना हो या दोस्तों के ही साथ मटरगश्ती करनी हो तो उन्हें आवश्यकता से अधिक धन थमाकर उनका दिल जीतने की नाकाम कोशिश करते हैं।
किशोरों को इन सब भौतिक वस्तुओं की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं होती जितनी माता-पिता के समय की होती है। वे भी दूसरे बच्चों की तरह उनसे लाड-प्यार करना चाहते हैं। उनसे रूठने का ढोंग कर मनुहार करने पर मानना चाहते हैं। पर वे माता-पिता हैं जिन्हें ये सब बचकानी हरकतें लगती हैं।
ऐसे में ये किशोर बागी होने लगते हैं। अपने माता-पिता का ध्यान आकर्षित करने के लिए उल्टे-सीधे काम करने शुरू देते हैं। कुछ गलत संगति में पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं।
किशोरावस्था में बच्चे इतने बड़े या इतने जिम्मेदार नहीं होते कि उनकी ओर से निश्चिन्त हुआ जा सके। उन्हें इस अवस्था में भी मात-पिता के प्यार-दुलार की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी बचपन में होती थी। इसलिए उनकी ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। यही वह समय है जब उन्हें संस्कारित करके सुयोग्य बनाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015
किशोर वय की समस्याएँ
शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015
संसार सागर में जीवध नैया
इस विशाल संसार सागर में हमारी छोटी-सी जीवन नैया हिचकोले खाती चलती है। यह हमारी अपनी जीवन रूपी नौका है तब इसके नाविक भी हमीं हैं। इसे सम्हालकर पार लगना हमारा कर्त्तव्य है।
इतने विशाल समुद्र में एक छोटी-सी नाव के सहारे उसे पर करना बहुत कठिन हो जाता है । उसमें उठने वाली लहरों से नाव हिचकोले खाने लगती है। कभी-कभी बड़े-बड़े जहाजों से टकराकर इसके चूर-चूर होने का खतरा बन जाता है। यदा-कदा यह डूबने-उतरने भी लगती है। इसी प्रकार इसे विशालकाय समुद्री जीवों का भी डर रहता है कि कहीं वे आक्रमण करके उसकी नाव को डूबो कर नाविक को खा न जाएँ। यह भी सम्भव है कि वह वहीं-कहीं उलझकर गायब हो जाए।
इसी प्रकार यह संसार भी जीवों का सागर है। यहाँ फूँक-फूँककर कदम रखना पड़ता है। जरा-सी चूक हुई कि सब समाप्त हो जाता है। यहाँ मनुष्य सुखों और दुखों की लहरों पर डूबता-तरता रहता है। कभी वह नीचे डूबता हुआ पटखनी खाता है तो फिर कभी ऊपर तरता हुआ सफलता के सोपानों को छू लेता है।
जीवन के ये उतार-चढ़ाव उसे चाहे-अनचाहे भोगने पड़ते हैं। इन सब थपेड़ों को सहना उसकी नियति है। या यूँ कह सकते हैं कि उसकी मजबूरी है। अपने पूर्वजन्म कृत सुकर्मो अथवा कुकर्मों को भोगकर ही वह इस ससार के बंधनों से मुक्त हो सकता है। उन्हीं के अनुसार ही उसे जीव योनि प्राप्त होती है।
संसार में रहते हुए उसे सज्जनों का संसर्ग मिलता रहता है जो उसकी सर्वविध उन्नति करने में सहायक बनते हैं। फिर कभी दुर्जनों का साथ मिल जाता है जिनकी संगति उसके विनाश का कारण बनती है। मनुष्य स्वतन्त्र है जहाँ चाहे वह जा सकता है। अब यह मनुष्य के स्वयं के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाना पसंद करता है। वह अपना उत्थान चाहता है या पतन।
इस जगत में कदम-कदम पर विशालकाय मगरमच्छ रूपी मनुष्य भी हमें राह चलते मिल जाते हैं। जिनसे बचना बहुत कठिन होता है। समझदार मनुष्य कोई-न-कोई उपाय करके उनसे पार पा ही लेते हैं और दूसरे लोग उनके जाल में फंसकर छटपटाते रहते हैं। ऐसे हिंसक प्रकृति के लोगों से जितनी भी दूरी बनाकर रखी जाए उतना ही लाभदायक होता है। यत्न यही होना चाहिए कि हमारा फायदा कोई करे या न करे पर वह हमारा नुकसान न कर पाए।
यह भौतिक जगत मनुष्य को पाप कर्मों के दलदल में बरबस खींचता है। उससे निकल पाना बहुतही कठिन होता है। इसलिए मनीषी इस दलदल में न फंसने की चेतावनी देते हैं। इस दुनिया में मोह माया भी हमें बराबर पीछे की ओर धकेलते हैं। इनको पीछे ठेलते हुए अपनी जीवन नैया को बचाकर दूसरे किनारे पर लेकर जाना है। यह कोई कठिन ऐसा कार्य नहीं है बस हमारी इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए। तभी हम अपना बचाव करने में समर्थ हो सकते हैं अन्यथा यही सच है कि तब हमारी रक्षा कोई भी नहीं कर सकेगा।
हमारी यह छोटी-सी जीवन नैया इस महासमुद्र में हिचकोले न खाए इसलिए उसे बाधारहित इस भवसागर से पार ले जाने के लिए हमें सत्कर्मों को करने की महती आवश्यकता है। ईश्वर का दामन थामकर, उस मालिक पर पूर्ण विश्वास करके और स्वयं को समर्पण भाव से उसे सौंपकर ही हम इस वैतरणी को पार कर सकते हैं। अन्यथा हम यहाँ हिचकोले खाते रहेंगे और अन्य लोग हमारा तमाशा देखते रहेंगे। इस संसार सागर में हमें डूबाने में लोग जरा-सी भी कसर नहीं छोड़ना चाहते।
चन्द्र प्रभा सूद
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वैराग्य की पराकाष्ठा
वैराग्य की पराकाष्ठा मनुष्य का अपने शरीर तक से मोहभंग करवा देती है। वह इस असार संसार के साथ-साथ स्वयं अपने को भी विस्मृत कर देना चाहता है। इसीलिए कह बैठता है-
'क्या तन मांजता रे आखिर
माटी में मिल जाना।'
अर्थात इस शरीर को क्या माँजना इसने तो मिट्टी में मिल जाना है।
ऐसे विचार रखने वालों की इस धरा के किसी भी कार्य-कलाप में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। वे सभी कार्यों को करते समय निर्लिप्त रहते हैं। परन्तु कभी-कभी कुछ लोग इन सांसारिक दायित्वों से किनारा भी कर लेते हैं। इसे पलायनवादी प्रकृति भी कहा जा सकता है। भौतिक संसार के सभी रिश्ते-नातों से स्वयं को दूर करते हुए मनुष्य ईश्वर के समीप होने लगते हैं। दिन-रात वह प्रभु का नाम जपने में स्वयं को व्यस्त रखना चाहते हैं।
यह शरीर हमें ईश्वर ने एक साधन के रूप में दिया है। जिसके माध्यम से हम इस संसार में अपने हिस्से के दायित्वों को पूर्ण कर सकें। यदि हम इसकी सार-सम्हाल नहीं करेंगे तो यह रोगी हो जाएगा। तब न ईश्वर की भक्ति होगी और न ही सांसारिक दायित्व पूरे हो पाएँगे। दूसरे शब्दों में -'माया मिली न राम' वाली हमारी स्थिति हो जाएगी।
घर में हम वाहन रखते है तो समय-समय पर उसका परीक्षण करवाना, उसमें ईंधन डलवाना, नित्य उसकी साफ-सफाई रखना आवश्यक होता है अन्यथा वह कबाड़ बनकर हम पर बोझ बन जाता है। इसी प्रकार शरीर को यदि साफ-सुथरा न रखा जाए, इसे समय पर भोजन न दिया जाए तो यह भी अपने और अपनों पर रोगी होकर बोझ बन जाता है।
इसलिए इसका स्वस्थ रहना बहुत ही आवश्यक है। इस शरीर को बेशक आप साध्य न माने पर यह ईश्वर तक जाने का साधन तो है ही। हमारे सभी ऋषि-मुनि इस शरीर को साधन मानकर इसका पूरा ध्यान रखने का परामर्श देते हैं।
यह सच है कि हमें केवल इस शरीर के लिए ही नहीं जीना चाहिए। मात्र इसी को सजाते-संवारते रहें और इसकी देखरेख के लिए ही पानी की तरह पैसा बहाते रहें। सारा-सारा दिन ब्यूटी पार्लर में जाकर सजते रहें अथवा नित नए बालों के स्टाइल बनवाते रहें। उस पर विभिन्न प्रकार के इत्र या परफ्यूम या डियो डालकर इसे नकली सुगन्ध से महकाते रहें। इस तरह इसको खूबसूरत दिखाने के चक्कर में हम दीन-दुनिया भूल जाएँ। घर-परिवार के दायित्वों से मुँह मोड़कर नित्य ही कलह-क्लेश करते रहें।
इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सच है कि शारीरिक सौन्दर्य कुछ सीमित समय के लिए ही रहता है। जहाँ मनुष्य आयु को प्राप्त करने लगता है अर्थात वह वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है वहीं उसके चेहरे पर झुरियाँ आने लगती हैं। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होने पर अथवा किसी रोग के आ जाने पर भी शरीर की सुन्दरता मुँह मोड़ने लगती है।
उस समय जिस शरीर की सुन्दरता पर हमें बड़ा मान था वह साथ निभाने से इन्कार कर देती है। तब हमारा यह सुन्दर शरीर सामान्य-सा रह जाता है। इसीलिए गुणीजन कहते है कि इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। यह हमारा सौन्दर्य स्थायी नहीं है। जब यह नहीं रहता तब हमें बहुत दुख होता है।
अति वैराग्य की चर्चा को यदि हम छोड़ भी दें तो भी इस बात का विशेष ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि यह शरीर ही सब कुछ नहीं है इसके पीछे भागने का कोई लाभ नहीं होता। इसके अंदर रहने वाली उस आत्मा के विषय में भी सोचना चाहिए। तभी हम सब अपने मानव होने के धर्म को सार्थक करके अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015
एकला चलो रे
मनुष्य को स्वयं अकेले ही अपने सभी पाप-पुण्य कर्मों के लेखे-जोखे का भुगतान करना होता है वहाँ कोई उसका साथी नहीं बनता। भरी भीड़ में भी वह अपने आपको अकेला ही पाता है।
'एकला चलो रे' गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर की यह पंक्ति सदा ही प्रेरणा देती है और मार्गदर्शन कराती है। यह पंक्ति हमें हमारे जीवन जीने के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश देती है कि अकेले चलने में घबराना नहीं चाहिए।
दुनिया में अकेले वही चलते हैं जो साहसी होते हैं। जैसे शेर को जंगल में अकेले चलने के लिए किसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार मनुष्य को भी सहारों की बैसाखी नहीं तलाशनी चाहिए।
मनुष्य इस ससार में जन्म लेता है तो अकेला ही होता है और इसी प्रकार जब विदा लेता है तब भी अकेला होता है। न उसके साथ कोई आता है और न ही कोई जाता है। जब मृत्यु से जन्म की यात्रा वह एकाकी कर सकता है तो जन्म से मृत्यु की यात्रा में उसे कभी अकेले परेशानी होनी ही नहीं चाहिए।
विचार कीजिए कि इस संसार में हम कब-कब अकेले होते हैं? यदि इस का हल हम कर लेते हैं तो फिर सारी समस्या ही हल हो जाती है।
मनुष्य अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के फल स्वयं ही भोगता है। उसकी खुशी में तो सब शामिल हो सकते हैं पर उसके दुखों और परेशानियों को कोई नहीं बाँट सकता। यह सच है कि जो भी कष्ट उसके शरीर के होते हैं या उसके मन के अवसाद होते हैं उनमें चाहकर भी कोई भागीदारी नहीं कर सकता। उन सबको अकेले ही भोगता रहता है। अन्य सभी परिवारी जन, मित्र या बन्धु उससे सहानुभूति रख सकते हैं। उसके पास भी खड़े हो सकते हैं पर अपने भोगों का भुगतान तो अकेले ही करना पड़ता है।
अपने पत्नी, बच्चों या अन्यों के लिए जो भी स्याह-सफेद वह करता है उसका जिम्मा केवल उसी का होता है किसी अन्य का नहीं।
यहाँ मुझे महर्षि वाल्मीकि की घटना याद आ रही है। जंगल में लूटने के उद्देश्य से रत्नानाकर डाकू ने ऋषियों को रोका।
तब उन्होंने कहा कि घर जाओ और जिनके लिए तुम यह पापकर्म करते हो उनसे पूछो कि वे इसमें तुम्हारे साथी होंगे। रत्नाकर को यह सुनकर विचित्र लगा उसने कहा कि वे मेरे अपने हैं और मेरा ही साथ देंगे।
ऋषियों के जोर देने पर घर जाकर उसने अपने माता, पिता, पत्नी और बच्चों से वही प्रश्न किया। उन सबका का यही एक उत्तर था कि परिवार के पालन-पोषण का दायित्व उसका है। वह पैसा कैसे कमाता है उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं। इसलिए वे सब उसके पापकर्म में भागीदार कदापि नहीं बनेंगे। यहीं से महर्षि के जीवन का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ और वे युगों-युगों तक गाई जाने वाली पवित्र रामकथा के रचयिता बने।
मनुष्य के सुख और दुख के समय के अतिरिक्त उसके अकेलापन की पीड़ा भी उसकी अपनी होती है। जितना वह जीवन की ऊँचाइयों पर पहुँचता जाता है उतना ही अकेला होता जाता है। उसके सभी साथी एक-एक करके पीछे छूटते जाते हैं। वे हाथ बढ़ाकर तब उसे छू भी नहीं पाते।
हमारे ऋषि-मुनि इसीलिए पुण्यकर्मों को करने और पापकर्पमों को त्यागने पर बल देते हैं ताकि जब उन कर्मों को भोगने का समय आए तो मनुष्य को रोना न पड़े। इस उक्ति को सदा स्मरण रखना चाहिए-
'सुख के सब साथी दुख में न कोई।'
अकेले ही अपने सारे कृत कर्मों को भोगना होता है। अत: शीघ्र जाग जाएँ तो बहुत ही अच्छा है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015
छह दोषों का त्याग
भौतिक सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य की इस संसार में जिन लोगों को चाहत है उनके लिए मननशील होना बहुत आवश्यक होता है। इस जीवन के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करते हुए उन्हें अपने जीवन में नित्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। इसीलिए हमारे मनीषी सफलता का मन्त्र देते हुए कह रहे हैं-
षड्दोषा: पुरुषेणेव हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
अर्थात ऐश्वर्य चाहने वाले मनुष्य को- निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता इन छह दोषों से दूर रहना चाहिए।
जीवन में किसी प्रकार का कष्ट न आए और वह सुखपूर्वक बीते, इसके लिए थोड़ा-सा त्याग करना पड़ता है। सबसे पहले तो मनुष्य को अपनी नींद का त्याग करना चाहिए। यदि वह सोता रहेगा तो वह लूजर रहेगा। उसके जो साथी समय पर अपने कार्य करते हैं वे रेस में उससे आगे निकल जाते हैं और वह पिछड़ जाता है। उसे हार का स्वाद चखना पड़ता है जो वास्तव में बहुत कष्टकर होता है। इसीलिए कहते हैं-
उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन कहाँ जो सोवत है।
जो सोवत है वो खोवत है जो जागत है सो पावत है॥
इसका अर्थ है कि मनुष्य को जाग जाना चाहिए। अपने आवश्यक कार्यो को समय रहते निपटा लेना चाहिए। जो समय बीतने पर भी सोता रहता है वह अपना सब कुछ खो देता है।
तन्द्रा यानि यदि रात को ठीक से नींद पूरी न हो सके तो दिन भर सुस्ती छायी रहती है और बार-बार झपकी आती रहती है। इससे बचना चाहिए। प्रयत्न यही होना चाहिए कि नींद के साथ समझौता न किया जाए। आजकल के बच्चों में यह बीमारी बढ़ती ही जा रही है कि वे रात को देर तक पढ़ते रहते है और फिर दोपहर बाद जागते हैं। इसी तरह नाइट शिफ्ट में नौकरी करने वालों का भी यही हाल होता है। रात देर तक क्लबों व पार्टियों में रहने से भी समस्या बढ़ती है। इस तरह नींद के समय के गड़बड़ाने से बाडी क्लाक बिगड़ जाता है। इससे बहुत-सी बीमारियाँ मनुष्य को घेरने लगती हैं।
जब भय किसी मनुष्य के मन में घर करने लगता है तब वह किसी भी नए कार्य को करने से घबराता है। हर काम में खतरा तो जुड़ा होता है। जो खतरों से जीतकर आगे बढ़ता है वही सफलता प्राप्त करता है और जो डरकर कदम पीछे खींच लेता है वह जिन्दगी की दौड़ में पिछड़ जाता है।
क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है जो हर कदम पर उसे अपमानित करवाता है। उसके बनते हुए कामों को बिगाड़ देता है। अपनो से अलग-थलग करवा देता है। इसे जीतना हम मनुष्यों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
आलस्य मनुष्य को सदा अवनति की ओर धकेलता है। हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो रोटी का निवाला भी मुँह में नहीं जाता। उसे खाने के लिए भी तो श्रम करना पड़ता है। यदि आलस्य के कारण भाग्य के भरोसे वह बैठा रहेगा तो उस पर जीवन में असफल रहने का ठप्पा लग जाएगा।
दीर्घसूत्रता के कारण मनुष्य अपना आज का कार्य कल पर टालता ही जाता है। वह कल कभी नहीं आता और उसका कार्य पूरा नहीं हो पाता। मनुष्य भूल जाता है-
कल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय हो जाएगी, बहुरि करेगा कब?
अर्थात मनुष्य को इस संसार में जीने के लिए सीमित समय ही मिलता है। यदि उसे अपनी मूर्खता से बरबाद कर देगा तो अपने कार्यों को पूर्ण नहीं कर सकेगा।
जो भी संसार में नाम कमाना चाहता है, सभी सुखों को पाना चाहता है, सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहता है उसे निरन्तर कठोर परिश्रम करना चाहिए। निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता इन दोषों को अथवा शत्रुओं को अपने जीवन में कदापि स्थान नहीं देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 25 अक्तूबर 2015
चन्दन विष व्यापे नहीं
चंदन वृक्ष की सुगन्ध और शीतलता के कारण अजगर जैसे विशाल विषधर उस पर लिपटे रहते हैं उस पर उनके विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार उत्तम प्रकृति के महान लोगों पर भी बुरी सगति का कोई असर नहीं होता। रहीम जी ने इसी बात को बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
जो रहीम उत्तम प्रकृति , का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग॥
अर्थात चंदन की तरह ही उत्तम प्रकृति के लोग होते हैं जिनके ऊपर किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव नहीं पड़ता।
चन्दन के पेड़ की यही विशेषता है कि इन विषधरों के लिपट जाने से कोई उसकी महत्ता कम नहीं होती। चदन के वृक्ष की न ही शीतलता कम होती है और न ही उसकी सुगन्ध को चारों दिशाओं में फैलने से कोई रोक सकता है।
जिन लोगों में सतोगुण की अधिकता होती है अथवा जो सात्विक प्रवृत्ति के लोग होते हैं उन्हें कोई भी संगति प्रभावित नहीं कर सकती। कुसंगति भी उनके पास आती है तो शीतलता ही ढूँढती है और उनकी खुश्बू का आनन्द लेकर प्रसन्न होती है।
यह मैंने इसलिए कहा कि महापुरुषों की संगति में आकर बड़े खूँखार अपराधी भी सात्विक और शुद्ध हृदय बन जाते हैं। महर्षि वाल्मीकि, अंगुलिमाल डाकू आदि हमारे सामने प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। रत्नाकर डाकू साधुओं की सगति में आने के बाद रामकथा के रचयिता महर्षि वाल्मीकि बन गए। अंगुलिमाल डाकू महात्मा बुद्ध की शरण में आकर उनके प्रिय शिष्य बन गए थे। इसी प्रकार इतिहास के पृष्ठों को खंगालने पर हमें ऐसे कई और उदाहरण मिल जाएँगे।
अब विचार इस विषय पर करना है कि इन उत्तम प्रकृति के लोगों के पास ऐसा क्या होता है जो ये सबको बरबस अपनी ओर चुम्बक की तरह आकर्षित कर लेते हैं? वास्तव में ये लोग पारस पत्थर की तरह मूल्यवान होते हैं। इनके सम्पर्क जो एक बार आ जाता है तो वह सोना बन जाता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो वह धीरे-धीरे अपने दुर्गुणों का त्याग करता हुआ इनकी छत्रछाया में महान बन जाता है। तब उसकी सुगन्ध भी चारों ओर फैलने लगती है। सद् गुणों को अपने में आत्मसात कर लेने की उसकी प्रवृति उसे महान लोगों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। फिर उसके पास भी आकर लोग शीतलता पाते हैं। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है।
उत्तम प्रकृति के लोगो की महानता उनकी विशाल हृदयता, दूसरों के प्रति दया व सहानुभूति की भावना और बिना किसी भेदभाव के सबके कष्टों को हरने की इच्छा आदि गुणों के कारण होती है। लोग इन्हें इनके इन महान गुणों के कारण ईश्वर की पूजते हैं।
जो भी दुखित या पीड़ित इनके द्वार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने की याचना लेकर जाता है उसे ये कभी निराश नहीं करते। ये यथासभव उसे प्रसन्न करके ही भेजते हैं। आज के इस भौतिक युग में जहाँ लोगों के पास अपने लिए समय नहीं होता वहाँ इस प्रकार किसी के दुखों को दूर करने वाला महानुभाव मिल जाए तो यह बहुत बड़ी बात है।
ईश्वर ऐसे लोगों को वरदान स्वरूप धरा पर अवतरित करता है। ये चन्दन की तरह अपनी सुगन्ध देश-विदेश में सर्वत्र फैलाते हैं। इनके पास आकर कोई भी व्यक्ति खाली हाथ निराश नहीं लौटता। इनकी शीतलता को अपने भीतर महसूस करता रहता है।
उत्तम प्रकृति के लोगों के पास यदि विषधर जैसा कुसंग भी आ जाए तो उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता। वे उसके साथ भी सहृदयता का व्यवहार करते हुए शरण देते हैं। हमें यत्नपूर्वक ऐसे लोगों को ढूँढना चाहिए और उनकी सगति में रहकर महकना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015
अपनों से कष्ट
फूल और शूल दोनों एक साथ, एक ही पौधे पर जन्म लेते हैं। हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि कभी-कभी अपने ही सहोदर (साथ जन्मे) काँटों के द्वारा गुलाब का फूल छलनी-छलनी कर दिया जाता है। उस समय की परिकल्पना कीजिए कि उस कोमल फूल को कितनी पीड़ा यह सोचकर होती होगी कि अपनों के द्वारा ऐसा दारुण दुख दिया गया है।
इसी प्रकार मनुष्य को जब अपने ही सगे भाई-बहनों अथवा मित्र-सम्बन्धियों के द्वारा जब मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाई जाती है तब उसकी स्थिति कितनी विचित्र हो जाती है। वह मन से पूरी तरह टूटने लगता है। जिन कन्धों का सहारा उसे हमेशा दुखों-परेशानियों में मिलना चाहिए था वही कन्धे उसे झटककर इस दुनिया में निपट अकेला छोड़ रहे हैं और लहुलूहान करने के लिए तैयार हो रहे हैं।
हमारी भारतीय सस्कृति में पुनर्जन्म व कर्मसिद्धान्त को बहुत मान्यता दी जाती है। इसके अनुसार मनुष्य को अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार जिन जीवों से सुख अथवा दुख मिलना होता है उनके साथ उसका संयोग अपने-आप हो जाता है। यही वे लोग होते हैं जो भाई-बहन, मित्र-बन्धु अथवा माता-पिता के रूप में जीव को इस जन्म में मिलते हैं।
जब मनुष्य को इनमें से किसी के द्वारा भी मानसिक पीड़ा पहुँचती है तो उस समय वह अपने सम्बन्ध की गरिमा को देखते हुए उनके साथ यदि दुर्व्यवहार नहीं भी कर सकता तो वह अपने मन-ही-मन में कुढ़ता रहता है। तब वह अपने भाग्य को कोसता हुआ ईश्वर पर दोषारोपण करता है जिसने ऐसे दुख देने वाले सम्बन्धी उसे इस जीवन में दिए हैं।
उसे कभी याद नहीं आता कि यह संसार रिश्तों की एक मण्डी है। रिश्तों की गरिमा बनाना-बिगाड़ना उसके अपने हाथ में है। जैसे रिश्ते हम अपने कर्मों से खरीदना चाहते हैं उन्हें पा लेते हैं। मण्डी में जाकर हम पैसे देकर या मूल्य चुकाकर अपनी मनचाही कोई भी वस्तु खरीदकर ले आते हैं और उसका उपभोग प्रसन्नतापूर्वक करते हैं।
उसी प्रकार हम अपने जीवन में जिन लोगों के लिए शुभकार्य करते हैं, उनकी सहायता करते हैं, उनके दुख दूर करने का यत्न करते हैं वे आने वाले जन्म में हमारे हितैषी बनते हैं और सहायता करते हैं।
परन्तु जिन लोगों के साथ हम अच्छा व्यवहार नहीं करते, उन्हें किसी भी रूप में हानि पहुँचाते हैं, वे आने वाले जन्म में हमारा अहित करते हैं और हमारी जड़ें खोदते हैं। इस प्रकार सारा हिसाब-किताब किसी-न-किसी जन्म में एवविध चुकता हो जाता है। वे अपना लेखा-जोखा बराबर करके हमसे विदा ले लेते है अथवा हम उनसे विदा लेकर अगले पड़ाव की ओर पुन: कुछ और लोगों के साथ अपने लेनदेन के हिसाब को शून्य करने के लिए चल पड़ते हैं।
इस प्रकार लेनदेन के हिसाब-किताब के चक्रव्यूह में जीव भटकता रहता है। उन सबका निपटारा करके ही उसे इनसे मुक्ति मिलती है। वह परम न्यायकारी बिना पक्षपात के सबको एक ही लाठी से हाँकता है।
पूर्व जन्मों में हमने क्या अच्छा किया और क्या बुरा किया हम नहीं जानते परन्तु इस जन्म में हम जो भी स्याह-सफेद कर रहे हैं, उसकी हमें पूरी जानकारी है। आने वाले जन्मों में यदि कष्टों अथवा परेशानियों से बचना चाहते हैं तो हमें दूसरों की राह में शूल नहीं फूल बिछाने चाहिएँ जिससे हमें उन शूलों से छलनी या लहुलूहान न होना पड़े। जीवन में ऐसी कल्पना करना व्यर्थ है कि सभी फूल हमारे हिस्से के और सभी काँटे दूसरों के भाग्य में। हमारे विद्वान हमें चेतावनी देते हैं-
जो तोको काँटा बोए ताको बोइए फूल।
तोको फूल के फूल हैं वा को हैं त्रिशूल॥
तभी जीव फूलों की तरह अपनी सुगन्ध और मुस्कुराहट बिखेरता हुआ अपने कंटक रूपी सहोदरों के चंगुल से बच सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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