इस दुनिया के व्यवहार का सत्य बहुत ही कठोर और आश्चर्यचकित करने वाला है। किसी एक व्यक्ति को इसके लिए मुजरिम नहीं ठहराकर हम कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते। सभी लोग कमोबेश ऐसा ही आचरण करते हैं। सबसे मजे की बात तो यह है कि जानते-बूझते हुए, बिना सोचे-समझे सभी भेड़चाल चले जा रहे हैं। कोई भी अपने दिमाग पर जोर नहीं डालना चाहता। हर व्यक्ति सोचता है जो हो रहा है उसे बस होने दो, मैं किसी को टोककर या मना करके बुरा क्यों बनूँ?
यह दुनिया खुशी के समय आगे चलती है और दुख के वक्त पीछे हो जाती है। इसका कारण जो समझ आता है, वह है कि सुख के समय वह बताना चाहती है कि उसे अधिक प्रसन्नता है। परन्तु दुख के समय वह शायद यह साबित करना चाहती है कि हम तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहे हैं, घबराना मत। इस कथन का बहुत अच्छा उदाहरण है कि विवाह के अवसर पर बारात में दूल्हा सबसे पीछे घोड़ी पर रहता है और बन्धु-बान्धव आगे चलते हैं। मौत के समय जब अर्थी चार कन्धों पर आगे रहती है तब लोग उसके पीछे चलते हैं।
एक और नई रीति का प्रचलन इन दिनों बड़े जोरों पर है। वह है लोग मोमबत्ती जलाकर मुर्दों को याद करते हैं और इसके विपरीत मोमबत्ती बुझाकर अपने जन्मदिन की खुशियाँ मनाते हैं। यानी यहाँ भी उल्टा व्यवहार दिखाई देता है। खुशी के समय में प्रकाशित करने का कार्य करना चाहिए, बुझाने का कार्य करना उचित नहीं है। परन्तु ऐसा हो रहा है तो हो रहा है। सभी लोग आँख मूँदे उसी लीक पर बिना विचारे चले जा रहे हैं।
लोगों के हृदयों में दया, ममता, धर्म, ईमान, सहिष्णुता आदि मानवोचित गुण लगता है शेष बचे ही नहीं हैं। इन्सान दिन-प्रतिदिन पत्थर दिल बनते जा रहे हैं। शायद इसीलिए उन्हें अपने ही जैसे पत्थर के भगवान पसन्द आते हैं। उसी पत्थर के भगवान की वे पूजा करते हैं, घर में कलह-कलेश करते हैं। लोग धर्म का मुखौटा लगाकर दिन भर पापकर्म करते हैं। दुनिया को दिखाने के लिए भण्डारे करते हैं परन्तु भगवान के रूप में घर में बैठे हुए माता-पिता उन्हें फूटी आँख नहीं भाते, वे उन्हें बोझ के समान लगते हैं। किसी तरह उनसे छुटकारा मिल जाए बस इसी फिराक में सदा ही लगे रहते हैं। बहुत से लोग अपने माता-पिता को न ढंग से खाना खिलाते हैं और न ही उनकी जरूरतों का ध्यान रखते हैं। फिर भी वे चाहते हैं कि सभी लोग उन्हें बहुत बड़ा भक्त और दानी मानें।
उसी पत्थर के भगवान को ही वे छप्पन भोग लगते हैं। उनके सामने फुटपाथ पर दीन-हीन, असहाय लोग भूखे, प्यासे मर जाते हैं। उनकी फिक्र किसी को नहीं होती है। उनकी ओर वे पलटकर भी नहीं देखते। उन्हें पूछना या उनका दुख-दर्द बाँटने के स्थान पर उन्हें ऐसे वितृष्णा से घूरकर देखते हैं जैसे वे इन्सान नहीं कीड़े-मकोड़े हों और उनके मार्ग में जबर्दस्ती घुसपैठ करने के लिए आ गए हों। उन लोगों के अनुसार ऐसे लोगों का इस दुनिया से चले जाना ही श्रेयस्कर है।
बहुत से लोगों को देखो ऐसा तो लगता है मानो उन्होंने अपनी लाज-शर्म बेच खाई है। उनकी पानी आँखों समाप्त हो गया है। हर समर्थ व्यक्ति साम, दाम, दण्ड, भेद का सहारा लेकर दूसरों को अपने वश में करना चाहता है। एक-दूसरे पर विश्वास करने का स्वभाव कहीं पीछे छूटता जा रहा है। मित्र अपने मित्र से किनारा कर रहा है, भाई-बहिन एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते। जीवन देने और पालन-पोषण करने वाले माता-पिता को असहाय अवस्था में छोड़कर गुलछर्रे उड़ाने में उन नालायक बच्चों को शर्म नहीं आती। सबके स्वार्थ आड़े आ रहे हैं।
जब भी कहीं इन विषयों पर चर्चा होती है तो सभी लोग इन दुखदायी स्थितियों से परेशान दिखाई देते हैं। इनसे बचने का उपाय भी खोजना चाहते हैं। फिर वही बात कि मैं अपने व अपने परिवारी जनों में सुधार न करूँ। इसकी शुरूआत सामने वाले के घर से हो। दूसरों का मुँह ताकने के स्थान पर अपने ही घर से यदि नव आरम्भ किया जाए तो बहुत-सी समस्याओं से शीघ्र मुक्ति मिल सकती है। अतः आज से क्यों अभी से ही परिवर्तन की मुहिम को चलाने का साझा जिम्मा हम सबको उठाना चाहिए। तभी स्वस्थ समाज की परिकल्पना करना सार्थक हो सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 17 जून 2018
दुनिया का विचित्र व्यवहार
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