रविवार, 3 जून 2018

मनीषी, प्रभावशाली का प्रभाव

विद्वान मनीषी यदि सहृदयता, सदाशयता का त्याग करके इर्ष्या-द्वेषयुक्त मन वाले हो जाएँगे तो ऐसी स्थिति बहुत कष्टकारी हो जाती है। उनका अनुसरण करने वाले लोग भी भटक जाते हैं। इसी प्रकार उच्च पदासीन अथवा प्रभावशाली व्यक्ति यदि विनम्रता का त्याग करके अहंकारी हो जाते हैं तो जनमानस पर उसका कुप्रभाव पड़ता है। लोग उनकी ओर ही देखते हैं। उनके अनुसार ही आचरण करना चाहते हैं। सद्संस्कार उन पर प्रभावहीन होने लगते हैं।
        कवि भर्तृहरि जी ने 'नीतिशतकम्' में इसी भाव को प्रकट किया है-
         बोद्धारो मत्सरग्रस्ता: प्रभवः स्मयदूषिता:।   
         अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम्।।
अर्थात जब सुभाषित को समझने वाले विद्वान् द्वेषयुक्‍त हो चुके हैं, प्रभावशाली लोग घमण्‍डी हो चुके हैं तथा शेष अन्‍य अज्ञानी हैं। तब सुभाषित का अंग-प्रत्‍यंग जीर्ण हो जाता है।
          कवि के कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को सहृदय, दूसरों के दुख को समझने वाला, सरल और मानवोचित गुणों से युक्त होना चाहिए। तभी वह सही अर्थों में मानव कहलाने के योग्य होता है। अन्यथा उसका मूल्य दो कौड़ी का भी नहीं होता। चाहे उसके पास कितनी ही धन-सम्पदा हो या सत्ता हो। इसी तरह यदि वही विद्वान लोग विनम्रता के स्थान पर अपने मूल्यों का त्याग करके ईर्ष्या-द्वेष आदि अवगुणों को अपनाने लगेंगे तो समाज को दिशा देने का कार्य कौन करेगा?
          इसी प्रकार यदि प्रभावशाली व्यक्ति यदि अपने मद में रहने लगते हैं तो सामाजिक व्यवस्थाएँ गड़बड़ाने लगती हैं। यदि वे मद में चूर होकर अपने सामने वाले को कीड़े-मकौडों की तरह समझकर उनके साथ अन्यायी या आततायी की भाँति व्यवहार करेंगे तो आम लोगों पर उनके दुष्कृत्य का कुप्रभाव पड़ता है। जन-साधारण माननीय व्यक्तियों का अनुसरण करता है। वह उन्हीं की तरह बनना चाहता है। उन्हीं की चाल-ढाल की नकल करना चाहता है। यदि आमजन उन अहंकारियों के रंग में रंग जाएँगे तो समाज किस दिशा की ओर चल पड़ेगा? इस पर विचार करना अति आवश्यक हो जाता है।
          सभी लोग यदि अपने मद में चूर रहेंगे तो समाज में अराजकता का वातावरण बन जाएगा। जब कोई किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं होगा तब दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बलवती होती जाएगी। हर किसी को देख लेने का झूठा दम्भ भरने वाले हावी हो जाएँगे। ऐसे समय में अनाचार और कदाचार ही बढेगा। इस प्रकार समाज बुराइयों का अखाड़ा बन जाएगा। सारा समय लोगों में अनावश्यक ही नूरा कुश्ती चलती रहेगी। या फिर इस प्रकार साधारण लोग अज्ञानियों की तरह बन जाएँगे। वे अपने विवेक को ताक पर रख देंगे और उनका सामना करने के लिए मूर्खता का ढोंग करने लगेंगे।
          ऐसी परिस्थितियों में हमारे सारे जीवन मूल्य धरे-के-धरे रह जाएँगे। हमारे ऋषियों ने जीवन जीने का जो मार्ग दिखाया है, उस समय वह न जाने कहाँ छूट जाएगा। जब समाज में स्वार्थ हावी होने लगते हैं तब मनुष्य अन्धे के समान हो जाता है। उसे अपने और अपने परिवार के अतिरिक्त और कुछ न तो दिखाई देता है और न कुछ सूझता है। तब मानो सब कुछ बेमानी-सा हो जाता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि समाज धरातल में समा जाने की तैयारी कर रहा है।
          समाज में ऐसी जब विकट परिस्थिति बन जाती है तब सुभाषित यानी सुवचन का प्रत्येक शब्द अपने मायने खोने लगता है। लोगों को फुर्सत ही नहीं होती उन मोतियों को चुनकर अपने जीवन में ढालने की। समाज को इस प्रकार की विकृतियों से बचाने के लिए ईर्ष्या-द्वेष से युक्त विद्वानों और अहंकार से चूर प्रभावशाली लोगों से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए। हो सके तो उनका सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। समाज स्वस्थ होगा तो हम सबका अस्तित्व भी बचा रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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