रविवार, 10 जून 2018

टूटता तारा

हमारे मन में यह अवधारणा घर कर गई है कि जब टूटता हुआ तारा दिखाई दे तो उस समय कोई विश माँग लो अथवा कामना करो तो वह पूरी हो जाती है। कहते हैं कि यह टूटता हुआ तारा है जो सब लोगों की मनोकामना पूर्ण करता है। इसका कारण शायद यही है कि उसे टूटने और अपने भाई-बन्धुओं से बिछुड़ने का दर्द शायद ज्ञात होता है। तभी तो वह सब लोगों को उनके हिस्से की सारी खुशियाँ देना चाहता है।
        कभी हम किसी उद्देश्य को लेकर चलते हैं और कभी निरुद्देश्य भटकते रहते हैं। जिंदगी की कड़वी सच्चाई हमें तब ज्ञात होती है जब पेड़ों से टूटकर गिरे हुए फूलों ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि दूसरों को खुशबू देने वाले प्रायः कुचल दिए जाते हैं।
        यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि जो महापुरुष निःस्वार्थ होकर दुनिया का मार्गदर्शन करना चाहते हैं उन्हें स्वामी दयानन्द की तरह विषपान करना पड़ता है और ईसा की तरह सूली पर चढ़ जाना पड़ता है।
         फिर भी ये महानुभाव अपने साथ अत्याचार करने वालों को कोई सजा दिए बिना, उन्हें क्षमा करके अपनी सहृदयता और महानता का परिचय देते हैं।
       यदि कोई नजरअंदाज करता है तो निश्चिन्त रहिए, उसका बुरा मत मानिए। इस संसार में जो भी मूल्यवान लोग होते हैं, उन सब हीरों की कद्र करने की बात यह जनसाधारण नहीं समझ सकता। इसी प्रकार मँहगी वस्तुएँ जो लोगों की पहुँच से बाहर होती हैं, उन्हें दूर की कौड़ी कहकर, अपने मन को मारकर वे नजरअंदाज कर देते हैं।
       जब अपनी गलती का पता लग जाए उसी समय क्षमा याचना कर लेनी चाहिए। साथ ही अपने दुष्कमों अथवा दुर्व्यसनों का अविलम्ब त्याग कर देना चाहिए। उसमें की गई देर कष्टदायक होती है। इसके पीछे सार यही है कि हम यात्रा करते हुए जितनी अधिक दूर चले जाते हैं, वापिस लौटने में हमें उतना ही अधिक समय लगता है।
        इसमें बिल्कुल सन्देह नहीं है कि इस संसार में दूसरों पर हँसने के स्थान पर मनुष्य को स्वयं पर हँसते रहना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा कर पाता है, यह दुनिया उसके पीछे चलने लगती है। अन्यथा दुखों और परेशानियों के समय हर समय आँसू बहाते रहने वालों के आँसू सूख जाते हैं। फिर उन आँसुओं को मनुष्य की आँखो में भी जगह नहीं मिल पाती। यानी चाहकर भी उसकी आँखों में आँसू नहीं आते।
         जो भी अपने साथ अच्छा या बुरा हो रहा है, उसे ईश्वर की इच्छा मानकर सन्तोष कर लेना चाहिए। उसके न्याय पर कभी सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका न्याय बड़ा ही विचित्र है। वह ही ऐसा है जो स्वयं ही दुनिया में सन्तुलन बनाकर रखता है।
         सयाने कहते हैं कि जब दाँत थे तो थे चबाने के लिए दाने खरीदने की सामर्थ्य नहीं थी और अब जब खाने के लिए दाँत नहीं हैं तो मनुष्य के पास दाने खरीदने की हैसियत हो गई है। दोनों ही स्थितियों में रोने-बिसूरने का कोई लाभ नहीं होता।
            इसी कड़ी में उदाहरण भी ले सकते हैं कि जो व्यक्ति हाड़तोड़ परिश्रम करता है और सौ-सौ किलो अनाज के बोरे उठा लेता हैं, उसके पास उसे खरीदने के लिए धन नहीं होता है। इसके विपरीत जो नाजों से, शानो-शौकत में पला-बड़ा है, वह सौ किलो अनाज खरीद सकता है पर उसे उठा नहीं सकता।
        इसलिए कोई भी कार्य करने से पहले दस बार उसके परिणाम के विषय में सोच लेना बुद्धिमानी कहलाती है। मनुष्य जैसी करनी करता है, उसी के अनुसार उसे भुगतान करना ही पड़ता है।
         इसीलिए मनीषी सद्परामर्श देते हैं कि मनुष्य को अपने जीवन काल में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए जिससे मृत्यु के पश्चात इन्सान हँसते हुए इस दुनिया से विदा ले सके। उसके भाई-बन्धु उसकी अच्छाइयों और सद्गुणों को याद करके रोते रहें।
चन्द्र प्रभा सूद
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