हम बच्चों की तरह मासूम बनें
हम बड़े बच्चों की तरह मासूम बनकर क्यों नहीं रह सकते? यह यक्ष प्रश्न हमारे समक्ष मुँह बाये खड़ा है जिसका हल हम सबको मिलकर सोचना है। बच्चे बहुत सरल हृदय होते हैं। उनके मन में कोई छल-कपट नहीं होता। उनके मन में हम बड़े ही ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, कुटिलता आदि भावों को भरते हैं। कल्पना कीजिए यदि सभी बड़े लोग बच्चों की तरह सरल व सहज स्वभाव के हो जाएँ तो बहुत-सी बुराइयों का अन्त हो जाएगा अथवा वे पनपेंगी ही नहीं।
तब किसी प्रकार के लड़ाई-झगड़े अथवा दंगे-फसाद की नौबत ही नहीं आएगी। यदि पलभर के लिए हम विवाद करेंगे या झगड़ा करेंगे तो अगले ही पल गले में बॉंहे डालकर घूमते हुए नजर आएँगे। ऐसी स्थिति के विषय में सोचकर मन को बहुत ही सुकून मिलता है। यदि धर्म, जाति, वर्ग एवं वर्ण आदि के पचड़ों में न पड़कर हम अपनी स्वयं की अथवा अपने देश की भलाई के कार्य कर सकें तो देश और समाज का भला हो सकता है।
सरल स्वभाव के होते हुए हम हर प्रकार की धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, छल-फरेब, मारकाट, जालसाजी आदि से मुक्त हुए समाज की सहज ही कल्पना कर सकते हैं। सबसे बड़ी आतंकवाद की जो समस्या है, उससे भी विश्व को राहत की साँस मिल सकती है। हालाँकि यह सोच हम सब के लिए एक बहुत ही आदर्शवादी स्थिति की है जिसकी हम कल्पना मात्र ही कर सकते हैं। इस पर चलना हम कभी भी गंवारा नहीं करते। यह राह तो कठिनाई से भरी हुई है।
जिन बच्चों के लिए बड़े लोग एक-दूसरे से टकराकर दुश्मनी मोल ले लेते हैं, वही बच्चे अगले क्षण सिर जोड़कर घूमते हुए नजर आ जाते हैं। इन बच्चों की दुनिया बड़ी अलग तरह की होती है जिसमें सबके लिए प्यार भरा होता है। एक-दूसरे की बाहों में बाहें डाले अथवा हाथ पकड़कर वे घूमते रहते हैं। किसी प्रकार के नफरत की वहाँ पर कोई गुँजाइश नहीं होती। बच्चे एक-दूसरे से यदि रूठते हैं तो कुछ ही समय पश्चात पहले ही की तरह दोस्त बन जाते हैं। उनके मध्य कोई अहं का मुद्दा नहीं बनता कि किसने पहले सुलह की।
उन्हें बड़ों की तरह न तो स्टेटस की चिन्ता होती है और न ही वे इन्सान-इन्सान में फर्क करते हैं। उनके लिए धर्म, जाति, रंग-रूप आदि का अन्तर कोई मायने नहीं रखता। उन्हें तो बस प्यार की भाषा समझ में आती है। जो भी उन्हें प्यार करता है, वे बच्चे उसी की अंगुली थामकर चल पड़ते हैं। बच्चों के शब्दकोश में 'अपना-पराया' जैसे कोई भी शब्द नहीं होते। हम बड़े अपने तुच्छ स्वार्थों के कारण ही ऐसा खतरनाक जहर उनके कोमल हृदयों में भर देते हैं जिससे बड़े होते हुए उनके मन भी प्रदूषित होने लग जाते हैं। उनका भोलापन तो हमारी मूर्खता से नष्ट हो जाता है और तब वे हमारे बताए हुए रास्ते से दुनिया की रेस में शामिल हो जाते हैं।
बच्चों की मासूमियत हमें इसी से दिखाई देती है कि जब वे हर बात को समझने के लिए कब, क्या, क्यों, कैसे आदि प्रश्नों के माध्यम से हल ढूँढते हैं। मासूम से चेहरे पर गोल-गोल आँखे करके बच्चे सहज रूप से अपनी भोलीभाली जिज्ञासाओं को शान्त करने का यत्न करते रहते हैं। अपने बड़ों की डाँट-फटकार की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। परेशान हुए बिना अथवा परवाह किए बिना वे बस बारबार अपने प्रश्नों की झड़ी हर किसी के आगे लगा देते हैं। वे इस बात से बेखबर रहते हैं कि जिनसे उन्होंने पूछा है, वे उनके प्रश्न का उत्तर दे भी पाएँगे अथवा नहीं।
बच्चों की मासूमियत उनकी प्राकृतिक अवस्था है जो उन्हें दुनिया के प्रति एक अनोखी दृष्टि देती है। परन्तु उन्हें सही परवरिश की, वातावरण की तथा उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ताकि वे अपनी मासूमियत के साथ-साथ समझदार और जिम्मेदार बन सकें। आधुनिक टेक्नोलॉजी और सामाजिक दबाव के कारण बच्चों की मासूमियत बहुत अधिक प्रभावित हो रही है। इस स्थिति में माता-पिता की भूमिका अपने बच्चों के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।
बच्चे मासूम होते हैं क्योंकि उनका दिमाग दुनिया को समझने के लिए पूरी तरह विकसित नहीं होता। वे वर्तमान में जीते हैं और उनमें दुनियादारी की समझ कम होती है। इस कारण उनके व्यवहार में स्वाभाविक भोलापन होता है। उनकी यह मासूमियत माता-पिता के मार्गदर्शन और सामाजिक परिवेश से आकार लेती है। समय के साथ अनुभव और समझदारी के साथ बदलती है। उनके बचपन का यह दौर प्रायः प्रसन्नता, उम्मीद और पवित्रता से भरा होता है।
यदि हम सब तेरे मेरे वाली इस संकीर्ण मनोवृत्ति से छुटकारा पा सकें तो मानव जीवन सफल हो जाएगा। तब सभी राष्ट्र अपने बहुत से आपसी झगड़ों से मुक्त हो सकेंगे। अनावश्यक सैनिक खर्च में कटौती करके वे उस धन को अपने राष्ट्र की प्रगति करने में व्यय कर सकते हैं। अपने देश को निरन्तर उन्नति के मार्ग पर ले जा सकते हैं। अपने-अपने देशों को खुशहाल बना सकते हैं। इससे भाईचारा तो बढ़ेगा ही और विश्व सबके रहने के लिए एक खूबसूरत स्थान बन जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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