मनुष्य की मन की भावना सर्वोपरि होती है। उसकी श्रद्धा और उसका विश्वास उसे कहीं-का-कहीं पहुँचा सकते हैं, इसमें कोई दोराय नहीं है।
'द्वात्रिंशत् पुतलिकासिंहासनम्' नामक संस्कृत की एक पुस्तक है जिसका हिन्दी में 'सिंहासन बतीसी' नाम से अनुवाद किया गया। इस पुस्तक में निम्न श्लोक कवि ने वर्षों पूर्व लिखा था, वह आज भी उतना ही सटीक है -
देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥
अर्थात् देवता, तीर्थ, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, डाक्टर और गुरु में मनुष्य की जैसी भावना होती है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है।
हम ईश्वर की उपासना जिस भी रुप में करते हैं अथवा जिस किसी भी नाम से उसे याद करते हैं, यह मायने नहीं रखता। असली मुद्दा यह है कि हमारे मन में अपने इष्ट के लिए कितनी तड़प है। हम उसकी उपासना सच्चे मन से करते हैं या केवल दिखावा करते हैं। ईश्वर के भजन का तभी फल मिलता है जब हम पूर्णरूपेण उसके प्रति समर्पित हो जाते हैं। दुनिया को दिखाने के लिए या उनसे सबसे बड़ा भक्त होने का सर्टिफिकेट पाने के लिए किया गया प्रयास, ईश्वर की नजर में शून्य होता है।
तीर्थ स्थान पर यदि हम मौज-मस्ती के लिए जाते हैं तो तीर्थ भ्रमण का हमें लाभ नहीं मिलता। न तो हमारे विचारों में कोई परिवर्तन आता है और न ही हम प्रभु के सच्चे और बड़े भक्त बन सकते हैं। तीर्थ करने की हमारे जीवन में तभी उपयोगिता होती है यदि वहाँ जाकर घर-गृहस्थी के झंझटों से मन को विरक्त करके मालिक का स्मरण करते हैं। विद्वानों की संत्संगति करते हुए ज्ञानार्जन करते हैं। साधना करते हुए अपने अन्त:करण को शुद्ध-पवित्र बनाते हैं, तभी तीर्थ करने का हमारा उद्देश्य पूर्ण होता है। अन्यथा तो पिकनिक मनाकर लौट आने वाली बात होती है।
ब्राह्मण में यदि हमारा विश्वास होता है, तभी उससे मार्गदर्शन लिया जाता है। हमें अपने संस्कारों को करवाने के लिए भी सदा योग्य ब्राह्मण की आवश्यकता होती है। यदि उसमें आस्था नहीं होगी तो हमारे धार्मिक कृत्यों को करने का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकेगा।
मन्त्रों में अपार शक्ति होती है। ये आत्मोन्नति करने में हमारी सहायता करते हैं। हमें अपने इष्ट तक पहुँचने में सफल बनाते हैं। हम मन्त्र जप करके ही तो अपने प्रभु का सानिध्य प्राप्त करते हैं। यदि मन्त्र पर हमें विश्वास नहीं होगा तो हमें कोई सिद्धि भी नहीं मिलेगी। तब ये अमूल्य मन्त्र हमें अपने इष्ट से मिलाने में सफल नहीं हो पाएँगे।
तान्त्रिक इन मन्त्रों को सिद्ध करके चमत्कार करते हैं। मैं उनकी इस पद्धति पर कोई आलोचना नहीं करना चाहती। पर इतना अवश्य कहना चाहती हूँ कि इन मन्त्रो से प्राप्त सिद्धियों का समाज हित में उपयोग करना चाहिए, मारण-उच्चाटन आदि में नहीं।
ज्योतिष एक वेदांग है। ज्योतिषीय गणना की विधा अपने आप में सम्पूर्ण है। उस पर मन से विश्वास करना आवश्यक है। हाँ, फलित ज्योतिष में जहाँ लालच व स्वार्थ हावी हो जाते हैं, वहाँ पर गलती की गुँजाइश बनी रहती है। फिर भी ज्योतिषी के पास विश्वास होने पर ही मनुष्य जाता है और अपनी विकट समस्या का उपाय जानना चाहता है।
डाक्टर पर यदि विश्वास न जमे तो वह कितना ही योग्य क्यों न हो रोगी स्वस्थ नहीं हो पाता। इसलिए उस पर मन से विश्वास होना चाहिए।
गुरु पर विश्वास न हो तब उसकी शरण में जाना व्यर्थ होता है। प्राचीन काल में योग्य गुरु के पास लोग अपने बच्चों को विद्याध्ययन के लिए के लिए भेजते थे। उन्हें यही विश्वास होता था कि उनके बच्चे योग्य बनकर जीवन में यश कमाएँगे। गुरु का कार्य शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति करना होता है। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव मनुष्य को इहलोक और परलोक के बन्धनों से मुक्त करवाता है।
मन की सच्ची भावना होने से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। देवता, तीर्थ, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, डाक्टर और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखकर हम उनसे लाभ ले सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 13 जनवरी 2016
भावना के अनुरूप फल
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