बेटी किसकी बन पाई है रे अपनी
सभी कहते उसको धन पराया है
परअंगना जाने का मोहक सपना
घुट्टी में ही उसको मिल जाता है
न यह घर तेरा है, न वह घर तेरा
कहते-सुनते ही यह बीत जाता है
न जाने कैसे उसका जीवन सारा
फिर भी वह पराई ही रह जाती है
पनीरी की तरह वह बाबुल घर से
पिया के अंगना बस अरमानों से
उखाड़कर वह रोप ही दी जाती है
दो नावों पर सवार होकर बटती है
अपने इस लघु जीवन में खटती है
अपना अस्तित्व खोजती रहती है
न बाबुल का अंगना था कभी मेरा
न साजन का घर बन पाया सवेरा
किस दर जाऊँ निज मन बहलाऊँ
विधना तूने यह क्या लिख डाला
चक्की के दो पाटों में बस पिसती
रही जीवन में बूँद-बूँद कर रिसती
शिकवा कैसे कर सकी किसी से
कौन सुने पीर पराई-सी उसी से
रिश्तों के मकड़जाल में उलझती
नहीं उसकी यह गुत्थी सुलझती
दोनों ही घरों का मान है वह बस
दोनों ही घरों की शान है वह बस
यूँ चलता जाता जीवन का खेला
अब आ गया चला-चली का मेला
अपना भरा-पूरा घर उसका चाहे
बेटी अब भी माँ की गोद ही चाहे
चाहे कितनी हो पिया की प्यारी
बेटी तो बेटी है बाबुल की दुलारी।
चन्द्र प्रभा सूद
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