शत्रुता करना जितना सरल होता है, उसका परिणाम भोगना उतना ही कठिन होता है। मित्रता करना और उसे निभाना दोनों ही कठिन कार्य कहे जाते हैं। अपने अतिप्रिय मित्र को भी पलभर में अपना दुश्मन बनाया जा सकता है पर दुश्मन को अपना बनाना टेढ़ी खीर होता है। उन दोनों में परस्पर विश्वास हो जाना असम्भव नहीं पर कठिन अवश्य होता है क्योंकि अविश्वास की एक रेखा उनके मनों में छुपी रहती है। इसलिए उन दोनों में पूर्ण समर्पण का भाव नहीं आ सकता है।
शत्रुता अथवा दुश्मनी करना मनुष्य के मन के कटु भावों की परिणति होती है। किसी व्यक्ति विशेष के विरूद्ध अपने मन में जितना अधिक ईर्ष्या, घृणा आदि विचारों को एकत्रित करते जाते हैं, उतना ही उसके प्रति क्रोध और नफरत बढ़ती जाती है। यही सारे दुर्भाव आगे चलकर दुश्मनी को जन्म देते हैं। हालांकि दुश्मनी का कोई बीज नहीं होती परन्तु फिर भी किसी-न-किसी कारण से वह बोयी जाती है।
समाज में हम अपने आसपास देखते हैं और किस्से भी पढ़ते-सुनते हैं कि दुश्मनी की यह आग पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। इसके चलते न जाने कितने ही मासूम मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। पता नहीं ऐसे क्या कारण होते हैं जो ऐसी दुश्मनियाँ निभाई जाती हैं। इससे किसी भी पक्ष का हित नहीं होता। दोनों ही ओर के पक्षों को यह आग जलाकर रख देती है।
इस विषय को लेकर बहुत-सी फिल्में बन चुकी हैं और टीवी सीरियल भी बने हैं। यदा कदा ऐसी घटनाएँ हमें समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलती हैं और टीवी चैनलों पर भी इनकी चर्चा होती रहती है।
जर, जोरु और जमीन प्राय: शत्रुता के कारण माने जाते हैं। आज भी इन्हीं को हम दुश्मनी की जड़ मान सकते हैं। जर का अर्थ है धन सम्पत्ति, जोरु का अर्थ है पत्नी और जमीन का अर्थ है जयदाद।
धन-सम्पत्ति और जमीन-जयदाद के लिए तो सगे भाई-बहन भी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। न्यायालय की शरण लेकर अपना समय और धन दोनों ही नष्ट करते हैं। बरसों लग जाते हैं इनका फैसला होने में। इसके लिए वे ईश्वर तुल्य अपने माता-पिता से धोखा करने और उन्हें दर-बदर करने में भी बाज नहीं आते। ऐसा घोर पापाचरण करते समय उन लोगों को पता नहीं उनकी आत्मा नहीं कचोटती।
अपनी पत्नी की मान-मर्यादा की रक्षा करना हर पति का ही कर्त्तव्य होता है। किसी दुष्ट के कुदृष्टि डालने पर खून तक कर दिए जाते हैं। रामायणकाल और महाभारतकाल इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। जहाँ इस दुस्साहस के लिए भयंकर युद्ध लड़े गए और इतना विनाश हुआ।
इतिहास के पन्नों में भी दुश्मनी की ऐसी घटनाओं की भरमार है जहाँ दो देशों में किसी भी कारण से अनावश्यक ही युद्ध हुए और दोनों ओर के असंख्य लोग काल कवलित हो गए।
आज भी दो देशों में युद्ध का कारण दूसरे की जमीन पर कब्जा करना ही होता है। यही प्रतिस्पर्धा दोनों देशों में चलती रहती है कि मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूँ। हमारे पास आधुनिक युद्ध सामग्री तुमसे अधिक है। यानि कि दो देशों में शक्तिप्रदर्शन भी इस शत्रुता का एक कारण बन जाता है।
मेरे विचार में अधिकांश दुश्मनियाँ जाति के मद और अपनी नाक को बचाने के लिए की जाती हैं। और भी देखें तो कुम्भ के मेलों में पहले स्नान करने के नाम पर ही साधुओं के अखाड़ों में भी अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने के लिए लट्ठ चल जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यही है कि इस दुश्मनी के अजगर को अपने जीवन से निकाल फैंकने में ही सबका भला है। इसे ढोल की तरह अपने गले से लगा लेने पर अपना ही नुकसान होता है। हमारी अपनी मानसिक शान्ति नष्ट होती है जो अमूल्य है, इसके लिए मनुष्य जगह-जगह भटकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 28 जनवरी 2016
शत्रुता करना सरल
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