जिजीविषा(जीने की इच्छा) का हर मनुष्य में होना बहुत ही आवश्यक होता है। यदि मनुष्य जीवन से इसे निकाल दिया जाए तो शेष सब शून्यवत हो जाता है।
जिस इन्सान के मन में जीने की इच्छा नहीं रहती है, वह मनुष्य मृत तुल्य हो जाता है। बहुत समय से असाध्य बिमारी से जूझते हुए या बिस्तर पर लम्बे समय से पड़े, दूसरों से अनिच्छा से सेवा करवाते हुए मनुष्य में जिजीविषा का न होना समझ में आता है। वह अपने जीवन से निराश होकर ईश्वर से मृत्यु की कामना कर सकता है।
परन्तु यदि एक स्वस्थ व्यक्ति उठते-बैठते मृत्यु की कामना करे तो यह समझ से परे की बात है। हर मनुष्य के जीवन में उतार-चढ़ाव का समय आता है। जिन्हें हम भगवान मानते हैं, मनुष्य रूप में अवतरित होने पर उन्होंने भी अनेक कष्टों का सामना किया। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उसके कारण मनुष्य निराशावादी बन जाए। ईश्वर को और इस दुनिया के लोगों को बैठा-बैठा बस कोसता रहे। सबके खून सफेद होने का रोना रोता रहे। इस संसार के कष्टों से उकताकर वह आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठे।
जिस रोगी व्यक्ति के मन में जीने का उत्साह नहीं रहता, उसका स्वस्थ हो जाना कठिन हो जाता है। अस्वस्थ होते हुए भी यदि जीने की इच्छा प्रबल होती है तो वह मौत के मुँह से भी बचकर वापिस आ जाता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो हमें अपने आसपास देखने को मिल जाते हैं। फिल्मों में और टी.वी. सीरियल में भी ऐसी घटनाएँ यदा कदा दिखाई जाती हैं।
हमारे महान ग्रन्थों में 'जीवेम शरद: शतम्' कहकर ईश्वर से सौ वर्ष आयु की कामना की गई है। यदि मनुष्य जरा से कष्ट को देखकर हिम्मत हार जाएगा और अपने हाथ-पैर छोड़ देगा तो किस तरह इस आयु तक पहुँच सकेगा? ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य से इतनी आशा की जाती है कि वह जीवन की सच्चाइयों को समझे। उनके अनुरूप ही अपना आचरण करे। ऐसे निराशावादी का साथ कोई दूसरा व्यक्ति पसन्द नहीं करता। उसके अपनी पत्नी, बच्चे एवं परिवारी जन भी उससे परेशान रहते हैं।
मनुष्य को जीवन में जब कभी अपरिहार्य विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़े तब उसे सज्जनों एव विद्वानों की संगति में जाकर बैठना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। इस तरह करने से उसके मन में आई हुई निराशावादिता और हीन भावना दूर होती है। उसके मन में विपरीत परिस्थितियों से जूझने की स्वयं ही सामर्थ्य बढ़ती है। तब उनसे लड़ता हुआ मनुष्य उन्हें अपने पक्ष में मोड़ लेने के लिए आत्मिक बल प्राप्त कर लेता है।
ऐसे कठिन समय में अपना धैर्य बनाए रखने के लिए वह अपने आप को समाज सेवा के कार्य में व्यस्त रख सकता है। अपने से अधिक दुखी लोगो को देखकर अपने मन को हतोत्साहित होने से बचा सकता है। अपनी किसी हाबी में स्वय को व्यस्त रखने का प्रयास कर सकता है।
इनके अतिरिक्त ईश्वर की शरण में जाने से भी उसे सुख और शान्ति मिलती है। वह उन निराश करने वाले हालातों से उभर जाता है, उसका मनोबल प्रभु की कृपा से डगमगाता नहीं है। वह दृढ़ होकर हर स्थिति से दो-दो हाथ करने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाता है।
कैसी भी परिस्थिति मनुष्य के जीवन में क्यों न आ जाए उसे सदा अपने आत्मविश्वास को बनाए रखना चाहिए। उसे खण्डित होने से बचाना चाहिए। तभी उसमें जिजीविषा बनी रह सकती है। इस जिजीविषा के कारण ही वह आकाश की बुलंदियों को छूने का हौंसला कर सकता है और जीवन के हर क्षेत्र में सरलता पूर्वक सफल हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2016
जिजीविषा
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