मनुष्य अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में विश्व के किसी भी देश में रहें परन्तु उसे उनकी अपनी जड़ें दूरी नहीं बनाने देती। उनके संस्कार, उनकी सांस्कृतिक विरासत उसे अपने से अलग नहीं होने देते। ये संस्कार उसके हृदय की गहराइयों में इतने गहरे पैठे होते हैं कि चाहकर भी वह उनको झटक नहीं सकते।
यही कारण है कि परदेस में रहते हुए वह हर समय वहाँ के और अपने वातावरण की तुलना करते रहते हैं। वहाँ के माहौल में रच-बस जाना कठिन होता है। उन्हें अपना परिवेश रह-रहकर याद आता है। अपने तीज-त्योहार, अपने रस्मो-रिवाज उन्हें बार-बार अपनो से दूरी की याद दिलाते रहते हैं, जो उनके हृदय में टीस बनकर कसकते रहते हैं।
विदेशों में रहने वाले अपने त्योहारों को अपने परिवारी जनों के साथ नहीं मना पाने की उदासी को दूर करने के लिए वहाँ रहने वाले मित्रों के साथ मनाते हैं। इसी तरह वे यथासम्भव अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने का एक सार्थक प्रयास करते हैं।
समय और परिस्थितियों के कारण उसका अपने देश में लौटना सम्भव नहीं हो पाता, पर उनका मन यही करता है कि वह किसी भी क्षण, किसी भी तरह उड़कर अपनों के बीच आ जाए। फिर से पुराने दिनों की तरह खूब मस्ती करें, धमाल करें, अपने सुख-दुख साझा करें। परन्तु वह अपनी इस चाह को अपनी मजबूरियों के कारण अपने मन के किसी अज्ञात कोने में दफन कर देने के लिए विवश हो जाते हैं।
हम देखते हैं कि प्रवासी पक्षी एक खास मौसम में दूसरे देशों में जाते हैं। जहाँ मौसम बीता वे लौट जाते हैं। अपने देश की मिट्टी की यही कसक शायद उन परिन्दों को वापिस लौटाकर ले जाती है। हर वर्ष वे आते हैं और फिर वापिस चले जाते हैं, वहीं के होकर नहीं रह जाते।
बेजुबान पक्षियों के मन में यदि अपनी मिट्टी के प्रति इतनी कसक हो सकती है तो फिर इन्सानों के मन में ऐसा भाव आ जाना स्वाभाविक होता है।
वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है जहाँ भगवान राम युद्ध के पश्चात अपने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाते हुए कहते हैं कि उन्हें सोने से बनी लंका का कोई मोह नहीं है। उन्हें अपनी माता और अपनी जन्मभूमि से प्यार है -
न मे स्वर्णमयी लंकाSपि रोचते लक्ष्मण।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
अर्थात् हे लक्ष्मण! मुझे सोने की यह लंका भी पसद नहीं है। मेरी माता और मेरी जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
इससे बढ़कर अपनी जन्मभूमि के प्रति लगाव का कोई अन्य उदाहरण नहीं हो सकता। यदि वे चाहते तो युद्ध में जीती हुई लंका पर शासन कर सकते थे, पर नहीं उन्होंने तो विभीषण को लंका सौंप दी और स्वयं चले आए अपनी जन्मभूमि अयोध्या में अपनों के बीच।
हमारे मनीषी कहते हैं कि मनुष्य को अपने देश, अपने वेष और अपनी संस्कृति से प्यार होना चाहिए। जिसे प्यार नहीं है, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।
शायद यही कारण है कि दशकों पूर्व विदेशों में जा बसे और वहाँ की नागरिकता लेकर रच-बस जाने वाले भारतीय, बरसों-बरस बीत जाने तथा पीढ़ियों के बदल जाने के बाद भी भारतीय ही कहलाते हैं। राजनैतिक भाषा में उन्हें भारतीय मूल का कह दिया जाता है।
इतना सब हो जाने के बाद भी मृत्यु के समय अपने देश की मिट्टी न पा सकने की कसक उनके मनों में रहती है। इसलिए ही बहुत से लोग जब समय मिलता है, तब अपने भारत देश आकर प्रियजनों की सम्हालकर रखी गई अस्थियाँ गंगा जी में प्रवाहित करते हैं।
परिस्थतियाँ और समय मनुष्य को अपने देश तथा परिवेश से दूर तो कर सकते हैं परन्तु उनके हृदयों को नहीं। यही कारण है कि परदेस की धरती पर रहने वाले अपने देश की महक को भूल नहीं पाते बल्कि उसे बहुमूल्य नगीनों की तरह संजोकर रखते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 17 जनवरी 2016
अपनी मिट्टी का मोह
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