मनुष्य छोटा है अथवा बड़ा, यह सब उसके वैभव से आँक लिया जाता है। यदि व्यक्ति विपन्न अवस्था में है अथवा अपना गुजर-बसर मात्र कर सकता है, तो उसे छोटा कह दिया जाता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति जो सभी सुख-साधनों से सम्पन्न है, समय-समय पर अपने वैभव का प्रदर्शन करके दूसरों को उपकृत सकता है। उसे हम आम बोलचाल में बड़ा आदमी कह देते हैं।
भर्तृहरि ने 'नीतिशतक' में इस कथन को इस प्रकार प्रस्तुत किया है -
परिक्षीण: कश्चित्स्पृहति यवानां प्रसृतये।
स पश्चात्सम्पूर्णो गणयति धरित्रीं तृणसमम्
अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयार्षेषु धनिना-
मवस्था वस्तूनी प्रथयति च सङ्कोचयति च॥
अर्थात् जो दरिद्र एक मुट्ठी भर जौं की इच्छा करता है, वही सम्पन्न होने पर सारे संसार को तुच्छ समझने लगता है। लघुता और गुरुता निश्चित नहीं हैं। ये दोनों अवस्थाएँ ही मनुष्य को छोटा-बड़ा बनाती हैं और वस्तुओं को संकुचित या विस्तृत बनाती हैं।
इस श्लोक से यही समझ सकते हैं कि जब मनुष्य को खाने के लाले होते हैं, तो वह दरिद्र कहलाता है। परन्तु जब दैवयोग से उसे ऐश्वर्य की प्राप्त हो जाती है तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। इसका कारण है कि वह धनवान या वैभवशाली बनकर देश, धर्म व समाज के लिए एक महत्त्वपूर्ण ईकाई बन जाता है। समाज में उसकी पूछ होने लगती है। लोग उसे सम्मानित करने लगते हैं। हर स्थान पर उसकी उपस्थिति की आकाँक्षा करते हैं।
यहीं से उसकी चारित्रक गिरावट आरम्भ होने लगती है। वह सारे संसार को हिकारत की नजर से देखने लगता है और स्वयं को भगवान मानने लगता है। वह सारी दुनिया को देख लेने और आग लगा देने की बातें करने लगता है। जीवन के उस उत्कर्ष काल में वह यह बात भी भूल जाता है कि घमण्डी का सिर नीचा हो जाता है।
भर्तृहरि ने कहा है कि लघुता और गुरुता निश्चित नहीं हैं। छोटा होने या महान होने की ये दोनों अवस्थाएँ ही मनुष्य को छोटा-बड़ा बनाती हैं। वस्तुओं को देखने का मनुष्य का जो नजरिया है, वही उन्हें संकुचित या विस्तृत बनाता है।
संसार भी वही है और संसारी जन भी वही हैं। उन सबको हम वैसा ही देखते हैं जैसा देखना चाहते हैं। हमारा दृष्टिकोण ही उनमें धर्म, जाति, रंग, रूप आदि की दीवारें खड़ी करके संकुचित या विस्तृत बनाता है।
अपनी इस नश्वर भौतिक सम्पदा पर कभी भी मनुष्य को वृथा अभिमान नहीं करना चाहिए। यह सब इसी संसार का है और यहीं शेष रह जाता है। मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ ही यहाँ से विदा हो जाता है।
उसके सभी महल-दोमहले जो इसी दुनिया की अमानत हैं, उसे मुस्कुराते हुए, मुँह चिढ़ाते हुए उसे अन्तिम विदाई दे देते हैं। उसे यह अहसास दिलाने की कोशिश करते हैं कि हमें पाने के लिए जो भी जायज-नाजायज रास्ते तूने खोजे, वे सब व्यर्थ हैं। तू इनका भोग कितना कर पाया, तू ही जान। हम तो यहीं तक के तेरे साथी थे। अब तू अपने रास्ते चला जा और हम अपने इस जहान में रहेंगे।
इसलिए जिस भी अवस्था में रहे उसे सारे संसार को तुच्छ समझने के बजाय यह भाव रखना चाहिए कि हम तो इस सारे ऐश्वर्य के रक्षक मात्र हैं। देने वाला तो वह मालिक है जो हमारी सारी मनोकामनाओं को देर-सवेर पूरा करता है। यही विचार करते हुए कर्त्तापन के भाव से मनुष्य को विमुख रहना चाहिए। ऐसा करता हुआ मनुष्य गुरुता और लघुता की भावना से मुक्त हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 8 जनवरी 2016
मनुष्य छोटा या बड़ा
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