तीर्थ स्थान की परिकल्पना कुछ मुट्ठी भर स्वार्थी लोगों की मनोवृत्ति का परिणाम है। उन्होंने सीधे-सादे धर्मभीरू लोगों को किए गए पापों को नष्ट करने का लालच देकर अपना हित साधने का प्रयास किया है। वे इस सत्य को भूल गए कि-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् जो भी अच्छे या बुरे कर्म मनुष्य करता है, उन्हें भोगना पड़ता है। यानि कि उन कर्मों को भोगे बिना उनसे मुक्ति सम्भव नहीं।
शायद यही कारण है कि मनुष्य दुष्कर्म करने में जरा भी गुरेज नहीं करता। उसे लगता है कि गंगा जी में डुबकी लगा लेंगे या तीर्थ कर आएँगे अथवा पाप की कमाई का कुछ अंश दान कर देंगे तो हम पापों के दुष्परिणाम से बच जाएँगे। काश ऐसा हो सकता। जब उन कर्मों का परिणाम असह्य कष्टों के रूप में भुगतना पड़ता है तो इन्सान टूट जाता है। उसे अपने चारों ओर घटाटोप अंधकार दिखाई देता है। उस समय वह त्राहि त्राहि करता है।
'प्रसंगाहरणम्' ग्रन्थ का कथन है कि विमल मति वाले विद्या तीर्थ में, साधु सत्य तीर्थ में, मलिन मन वाले गंगा तीर्थ में, धनाढ्य दान तीर्थ में, कुलवधुएँ लज्जा तीर्थ में, योगी ज्ञान तीर्थ में और राजा युद्ध तीर्थ में स्नान करके पापों का क्षय करते हैं।
कहने का तात्पर्य यही है कि निरन्तर अध्ययन करने वाले ज्ञानी और सत्यवादी लोग पापकर्म से बचे रहते हैं। जो राजा अपनी प्रजा का हित साधने में जुटा रहता है वह अनुचित कार्य नहीं कर सकता।
'पद्मनन्दि पञ्चविंशति:' ग्रन्थ में विद्वान कवि कहते हैं-
आत्मबोधशुचितीर्थमद्भुतं
स्नानमत्र कुरुतोत्तमं जना:।
यन्न यात्यपरतीर्थकोटिभि:
क्षालयत्यपि मलं तदन्तरम्॥
अर्थात् आत्मबोध पवित्र एवं अदभुत तीर्थ है। हे ज्ञानियो! इसमें अच्छी तरह स्नान कीजिए। क्योंकि दूसरे करोड़ों तीर्थों से भी आन्तरिक मल का प्रक्षालन नहीं होता।
इस श्लोक में यही समझाया है कि करोड़ों तीर्थो में भटकने से भी अपने पापो का क्षय नहीं होता। अपने अन्त:करण को शुद्ध कर लेना ही सबसे बड़ा तीर्थ है। जो मनुष्य आत्मज्ञान को जान लेता है, उसके सभी कर्म शुद्ध होते हैं, पापकर्म की वहाँ गुँजाइश ही नहीं रहती।
इसी तरह का भाव महाभारत में भी वेदव्यास जी ने कहा है कि जो दान लेने से मुक्त है, जिस किसी से भी सन्तुष्ट है तथा जो अहंकार से रहित है, वही तीर्थों का फल पाता है।
विचारणीय है कि तीर्थ स्थान कहते किसे हैं? महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमरसमभवम्' महाकाव्य में इस विषय में कहा है -
यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्ष्यते।
अर्थात् महापुरुषों का निवास स्थान ही तीर्थ कहलाता है।
महापुरुषों का निवास इसलिए तीर्थ स्थान बन जाता है कि उनका संसर्ग पाकर मनुष्य अपने अंतस की सभी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग पर चलने लगता है। तब वह कुकर्मों करने से बच जाता है। फिर उसे अनावश्यक दुख-तकलीफों का सामना नहीं करना पड़ता।
यदि शान्ति चाहिए अथवा ईश्वर प्राप्ति लक्ष्य है तो भी वे हमारे अपने मन में ही मिलते हैं, कहीं बाहर जाकर खोजने से कदापि नहीं। अपना इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने के लिए और कष्टों-परेशानियों से बचने के अपने अंतस को ही तीर्थ के समान शुद्ध और पवित्र बनाना चाहिए। उन तथाकथित तीर्थों में भटककर अपना समय और परिश्रम से कमाए हुए धन दोनों को ही बचाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 26 जनवरी 2016
तीर्थों की परिकल्पना
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