सोमवार, 25 जनवरी 2016

भाग्य हमारा बैंक अकाउंट


भाग्य हमारा अपना व्यक्तिगत बैक अकाउंट होता है जिसका बेलैंस जन्म-जन्मान्तरों तक हम सभी के खाते में मल्टीप्लाई होता रहता है। हम अपने-अपने बैंक के अकाऊँट में पैसा जमा करवाते हैं अथवा निकालते हैं। उसी प्रकार हम अपने सुकर्मों अथवा कुकर्मों की कमाई पूँजी को अपने खाते में जमा करवाते रहते हैं। जब उन शुभ या अशुभ कर्मों का सुफल या कुफल हम भोग लेते हैं तो उसका अर्थ यही होता है कि हमने अपने खाते में से उन उतने कर्मो की पूँजी निकालकर खर्च कर ली है। इस प्रकार लेन और देन का यह क्रम अनवरत चलता रहता है।
           हम कुछ जान भी नहीं पाते परन्तु हमारा यह खाता नित्य ही आटोमेटिकली पूरा होता रहता है। शुभकर्मों की इस खाते में यदि अधिकता होती है तभी जीव को मानव के रूप में जन्म मिलता है। उसमें भी हमारे कर्मानुसार यदि शुभकर्मो की अधिकता होती है तो सुख-शान्ति, भौतिक सम्पत्ति, अच्छा घर-परिवार, रिश्ते-नाते, रूप-सौन्दर्य और सामाजिक रुतबा आदि मिलते हैं।
          इसके विपरीत यदि अशुभ कर्मों की अधिकता होती है तो जीव को अपने कृत कर्मानुसार चौरासी योनियों के भयावह चक्र से गुजरना पड़ता है। ये सभी योनियाँ भोग योनि कहलाती हैं। अपने अशुभ कर्मों को भोगकर जीव को फिर से मानव जन्म की प्राप्ति होती है।
          मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है पर उनका फल भोगने में नहीं। अपने किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का फल उसे भुगतना ही पड़ता है, उसे किसी तरह से छुटकारा नहीं मिल सकता, चाहे वह कितने ही उपाय क्यों न कर ले। वह अपनी इच्छा से तीर्थों की यात्रा करे, तन्त्र या मन्त्र का सहारा ले पर उनसे मुक्ति सम्भव नहीं।
          इन्सान कहता है कि जब वह गलत काम करता है अथवा कुमार्ग पर चलता है तब ईश्वर उसे उस समय सन्मार्ग क्यों नहीं दिखाता, चुप क्यों रहता है?
सोचिए, यह तो हुई चोरी और सीनाजोरी वाली बात। जब भी मनुष्य शुभकर्म करता है तब वह मालिक उसे उत्साहित करता है। जब वह अशुभकर्म करता है तब वह उसे चेतावनी भी देता है। सुकर्म करते समय मन से प्ररेणादायक आवाज आती है और दुष्कर्म करते समय अंतस से समझाने की आवाज आती है। उसके मन में विचारों का अन्तर्द्वन्द्व होने लगता है।
         यह मनुष्य है कि अपने स्वार्थों को पूर्ण करने में इतना अन्धा हो जाता है कि वह बार-बार उस अन्तरात्मा की आवाज को अनसुना करता रहता है। सन्मार्ग पर चलने के स्थान पर कुमार्ग पर चलने लगता है। फिर बाद में वह दोषारोपण करने से भी बाज नहीं आता।
         सुख-ऐश्वर्य का समय जीवन में आने पर वह गर्व से इतराता फिरता है कि मेरे परिश्रम के फलस्वरूप मुझे यह सब मिला है। तब उसे ईश्वर को याद करने का ध्यान ही नहीं आता।
           इसके विपरीत जब उसके जीवन में दुख और परेशानियाँ आती हैं तब वह ईश्वर को दोष देता है। उसे अपनी की गई गलतियों की जरा भी याद नहीं आती। वह सारा समय मालिक को और अपने भाग्य को कोसता रहता है।
          उसे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि उसका तो भाग्य ही खराब है अथवा मेरा भाग्य ही मुझसे रूठ गया है।
उसे स्मरण करना चाहिए कि। यह भाग्य अथवा यह किस्मत हमारी सखी नहीं है जो बार-बार हमसे रूठ जाती है और फिर जब मनाएँगे तब मान जाएगी।
           हर जन्म यदि मानव जीवन का चाहिए तो अभी से अपने कर्मों पर लगाम लगानी आरम्भ कर देनी चाहिए। सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। जहाँ तक हो सके ईश्वर को साक्षी मानकर अपने जीवन की डोर उसके हाथ में सौंप देनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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