समय किसी के बाँधने से थम नहीं जाता। वह तो अपनी गति से निरन्तर प्रवहमान है। कहते हैं कि महाबली रावण ने अपने समय में काल को अपने सिरहाने बाँध रखा था। फिर भी काल ने उसका पक्ष नहीं लिया और न ही उसे नहीँ बक्शा। समय किसी को क्षमा नहीं करता चाहे वह व्यक्ति स्वयं को कितना भी शक्तिशाली समझने की क्यों न भूल करता रहे।
समय के इसी फेर बदल में इन्सान सदा उलझा रहता है पर इसका रहस्य वह आयुपर्यन्त नहीं जान पाता। मनुष्य का समय कभी अच्छा होता है और कभी वह पटकनी खाने लगता है। यानी कभी वह उन्नति करता है और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसके विपरीत वह कभी अनथक दुखों और परेशानियों में घिरकर लाचार हो जाता है।
समय के इस फेर से बचने के लिए मनुष्य विभिन्न उपाय करता रहता है। धर्म स्थानों में जाता है, तीर्थ यात्राएँ करता है, तन्त्र-मन्त्र वालों के जाल में फंस जाता है, जंगलों की खाक छानता है, तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण में भी चला जाता है। फिर भी समय के इस दुस्सह फेर से बाहर निकालने में वह स्वयं को असमर्थ पाकर सिर धुनता है।
ग्रन्थों में एक प्रसंग ऐसा भी आता है कि एक बार धनुर्धारी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से अनुरोध किया - 'प्रभु! इस दीवार पर कुछ ऐसा लिख दो कि जब खुशी में पढूँ तो दुख हो और जब दुख में पढूँ तो मुझे प्रसन्नता हो।' प्रभु ने अर्जुन के कहने पर बस यह वाक्य लिखा कि 'यह समय व्यतीत हो जाएगा।'
इस प्रसंग का यही तात्पर्य है कि यह समय हर परिस्थिति में बदल जाता है। जब मनुष्य सुखों का भोग कर रहा होता है तो वह समय भी बीत जाता है। इसी प्रकार दुखों-कष्टों का समय भी सदा नहीं रहता, वह भी बदल जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रायः लोग कहते हैं अच्छा या बुरा कैसा भी मनुष्य का समय हो, हर तरह का समय बदल जाता है।
समय कभी अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि अच्छी या बुरी इन्सान की वे सभी परिस्थितियाँ होती हैं जो उस समय विशेष पर मनुष्य को प्रभावित करती रहती हैं। उनके कारण ही वह कभी-कभी विचलित भी होने लगता है और उससे बचने के लिए कुमार्ग को अपना लेता है। समय बीतते जब उसे होश आती है तो पश्चाताप करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचता।
मनुष्य जब प्रसन्न होता है तो कह दिया जाता है कि फलाँ व्यक्ति का समय अच्छा है तभी तो वह जीवन की ऊँचाइयों को छू रहा है। जब वह कष्ट में होता है तब आम भाषा में कह दिया जाता है कि उस व्यक्ति विशेष का समय खराब है, तभी उसकी दुर्दशा हो रही है।
इसी बात को इन शब्दों में कह सकते हैं कि आदिकाल से ही समय अपनी गति से समान रूप से चलता जा रहा है। न वह किसी की भलाई करता है और न ही किसी का अनिष्ट करता है। उसके लिए सभी जीव एक सामान हैं, इसीलिए सबके ही साथ समान रूप से व्यवहार करता है।
मनुष्य के जीवन में पहिए के अरों की तरह समय ऊपर-नीचे होता रहता है। अर्थात सुख और दुःख उसके जीवन में क्रम से आते रहते हैं। यह सम्पूर्ण क्रम उसे उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलता है। जैसे भी सुकर्म या दुष्कर्म उसने किए होते हैं, उनसे उसे किसी भी तरह छुटकारा नहीं मिल पाता।
जब तक मनुष्य अपने किए गए शुभाशुभ कर्मों का फल भोग नहीं लेता तब तक वह जन्म-जन्मान्तरों के बन्धन में जकड़ा हुआ चौरासी लाख योनियों के फेर में ही भटकता रहता है। इससे उसकी मुक्ति संभव नहीं हो सकती।
समय को सदा दोष देते रहने का कोई औचित्य नहीं होता। समय का वरद हस्त हम सब पर हमेशा बना रहता है। उसका सदुपयोग करके मनुष्य इस संसार सफल हो जाता है और दुरुपयोग करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य कर बैठता है। इसलिए समय के साथ कदम मिलाकर यदि मनुष्य चल सके तो उसका सौभाग्य बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 10 अगस्त 2016
समय बाँधा नहीं जाता
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