मनुष्य को उसके भाग्य के अनुसार समय पर ही मिलता है। न उससे रत्तीभर कम और न ही उससे अधिक। उसके भाग्य में जो होता हैं वह बिना कहे ही पता नहीं कैसे भी करके उसके पास आ जाता है। परन्तु जो उसके भाग्य में नही होता, वह उसके पास आकर भी हाथ से निकल जाता है। वह बस मूक दर्शक की तरह देखता और बिलबिलाता रह जाता है।
बचपन में एक कथा सुनी थी कि किसी राजा की एक बेटी ने उससे कहा था कि पिता उसे नमक की तरह अच्छा लगता है तो वह नाराज हो गया था। पिता ने उस नाराजगी के कारण उसे दण्ड देने का निश्चय किया। राजा ने उसकी शादी एक राह चलते किसी भिखारी जैसे दिखने वाले किसी इन्सान से करवा दी।
माँ तो आखिर माँ होती है, उसे बेटी के दुर्भाग्य पर बहुत रोना आया। उसने राजा से छिपाकर कुछ धन उसे दे दिया। ताकि उसे शादी के एकदम बाद उसे किसी तरह से परेशान न होना पड़े।
वह राजकुमारी अपने पति के साथ नया जीवन आरम्भ करने के लिए निकल पड़ी। कोई ठिकाना नहीं था, कोई आसरा नहीं था। एक-दो दिन बाद ही माँ द्वारा दिया गया धन भी चोरी हो गया। अब उन दोनों के पास अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं बचा था।
राजकुमारी बहुत हिम्मत वाली थी। उसने हांर नहीं मानी और अपने पति के साथ मिलकर बहुत श्रम किया। अन्ततः उन्होंने अपना मनचाहा प्राप्त कर लिया। यानि एक सुन्दर-सा महल बना लिया और अपने राजसी ठाठ-बाट जुटा लिए। फिर एक दिन बिना अपना परिचय दिए, पति को भेजकर अपने पिता को भोजन के लिए आमन्त्रण भिजवा दिया।
पिता बेटी का वह ऐश्वर्य देखकर प्रभावित हुए बिना न रह सका। अब भोजन करने की बारी थी। सामने न आते हुए बेटी ने बहुत सारे व्यञ्जन खाने के लिए भेजे। उनमें एक भी नमकीन खाद्य नहीं था। राजा इतने सारे मीठे व्यञ्जन खाकर उकता गया और पूछ बैठा कि नमकीन कुछ भी नहीं है क्या?
तब वह बेटी बाहर आई और पिता से बोली कि मैं आपकी वही बेटी हूँ जिसने आपको कहा था कि आप मुझे नमक की तरह अच्छे लगते हो तो आपने मुझे घर से बाहर निकल दिया था। केवल मीठा कोई नहीं खा सकता पर नमकीन कितना भी हो खाया जा सकता है। जब तक मीठे के साथ नमकीन न हो तो उसे खाना कठिन हो जाता है।
उसकी बात सुनकर पिता को अपनी उस गलती का अहसास हुआ और पश्चाताप भी। उसने बेटी से अपने उस कुकृत्य के लिए क्षमा माँगी और उसे अपने गले से लगा लिया।
कहने का तात्पर्य यही है कि जब राजकुमारी के भाग्य में नहीं था तो राजा की बेटी होते हुए भी सभी सुखों-ऐश्वर्यों से उसे वंचित होना पड़ा। इससे भी बढ़कर माँ के द्वारा की गई सहायता भी उसके काम न आ सकी। जब भाग्य देने पर आया तो उसने उस राजकुमारी को सब कुछ दे दिया और मालामाल कर दिया।
इसे हम भाग्य का फेर भी कह सकते हैं जिसने राजकुमारी को बैठे-बिठाए भिखारिन जैसी स्थिति में पहुँचा दिया। और फिर समय बीतते राजमहल के सारे ठाठ दे दिए। जैसे भगवान श्रीराम का अगली प्रातः राज्यतिलक होना था पर होनी ने उन्हें दरबदर कर चौदह वर्ष के लिए वनवास दे दिया।
इसी प्रकार रजा हरिश्चन्द्र को पत्नी और पुत्र सहित राज्य से बेदखल कर दिया। उन्हें चाण्डाल के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। और भी अपनी पत्नी व पुत्र को दास की तरह बेचना पड़ा। हालाँकि उनके इस कार्य का समर्थन मैं नहीं कर रही। पर होनी को कैन ताल सकता है?
राजा हरिश्चन्द्र के जीवन की घटना लिखने का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि भाग्य कैसे-कैसे खेल इन्सान को खेलने के लिए विवश करता है। मनुष्य बस कठपुतली बना उसकी डोर पर नाचता रहता है। उसके पास इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी तो नहीं है। वह चाहकर भी इसका प्रतिवाद नहीं कर सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 6 अगस्त 2016
होनी जो न कराए
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